Home गेस्ट ब्लॉग दिसम्बरी उभार के मायने 2…

दिसम्बरी उभार के मायने 2…

30 second read
0
0
477

दिसम्बरी उभार के मायने 2...

2019 के इस दिसम्बर के तकरीबन मध्य से साफ़ उभरकर आया छात्रों का देशव्यापी उभार नि:सन्देह हमारे देश में इमर्जेंसी के बाद का अब तक का सबसे बड़ा छात्र-उभार है. आज यह छात्र-उभार एक जन-उभार का रूप लेने लगा है. भले इस उभार में NRC औऱ CAA के अलावा शिक्षा के कारपोरेटीकरण और पब्लिक फंडेड शिक्षा-व्यवस्था के खात्मे के विरोध जैसे मुद्दे सामने हैं, पर इसकी अंतर्वस्तु को देखें तो यह उभार मुख्यतः इस फासीवादी सरकार की निरंकुशता और इसके द्वारा कवच के रूप में इस्तेमाल की जा रही हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता के खिलाफ संचालित है. इमर्जेंसी के दौर के छात्र-उभार के साथ इस उभार का एक मुख्य अंतर भी यही है कि वह जहां सिर्फ तानाशाही के खिलाफ केन्द्रित था, वहीं यह फासिस्ट तानाशाही और हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिता दोनों के खिलाफ संचालित है.

आज की परिस्थिति यह है कि मौजूदा फासिस्ट शासन अपने बचाव और फासीवाद-विरोधी आंदोलनों से निपटने के लिए हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल कर रहा है और इस जन-उभार को हिन्दू ध्रुवीकरण और हिन्दू-मुस्लिम दंगों की बाढ़ में डुबो देने का खतरा अत्यंत वास्तविक है. अतः इसके मद्देनजर इस उभार की नेतृत्वकारी ताकतों को ठोस रूप से सोचना होगा और इस हिन्दू-ध्रुवीकरण को रोकने और दंगो की हर साजिश और कोशिशों से निपटते हुए इस देशव्यापी जन-उभार को एक सही दिशा में, व्यवस्था-परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ाते जाने पर पूरा जोर लगाना होगा. जहां तक इस जन-उभार की बात है, इसमें वर्तमान हिन्दुत्ववादी फासिस्ट सत्ता को धराशायी करने और जनता के बुनियादी मुद्दों को हल करने में समर्थ एक जनपक्षीय, जनवादी व सच्ची धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के निर्माण की दिशा में संघर्षों को उन्मुख करने की भारी संभावनाएं हैं. पर साथ में इस उभार के सामने कई चुनौतियां भी हैं.

आइए इन चुनौतियों को देखें! इनमें पहली चुनौती इस उभार में शामिल होती जा रही शक्तियों को एक सूत्र में बांधने लायक नेतृत्व को सामने लाना है. इस चुनौती को पूरा करने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर से लेकर निचले, प्रांतीय और देश के स्तर तक संघर्षरत ताक़तों के बीच समन्वय कायम किया जाए, संयुक्त, एकताबद्ध व समन्वित कार्यवाहियों को बढ़ाया जाए और देशव्यापी एक सुसंगठित आंदोलन के रूप में इसे बढ़ाने और टिकाये रखने में सक्षम नेतृत्व का सभी स्तरों पर विकास किया जाए.

दूसरी चुनौती प्रहार के निशाने को मुख्य शत्रु के खिलाफ केंद्रित करने और बाकी तमाम मित्र-ताक़तों को साथ लेने की है. यहाँ याद रखना जरूरी है कि फासीवाद महज़ पूँजीपति वर्ग/शासक वर्ग की निरंकुश सैन्य तानाशाही नहीं है, बल्कि यह पूँजीपति वर्ग/शासक वर्ग के चरम प्रतिक्रियावादी हिस्से की निरंकुश तानाशाही है. अतः यह अपने चरित्र के मुताबिक ही परम्परागत शासक/शोषक वर्गों के एक कम प्रतिक्रियावादी और अपेक्षाकृत उदारवादी हिस्से को सत्ता और सम्पत्ति से बेदखल करती है। वह इसलिए कि अपने इस सामग्रिक संकट के दौर में शासक/शोषक वर्ग का चरम प्रतिक्रियावादी हिस्सा निरंतर सत्ता व सम्पत्ति के केन्द्रीकरण को बढ़ाते चला जाता है. अतः इस फासिस्ट सत्ता के खिलाफ उभरने वाले हर जन-उभार को शासक-शोषक वर्गों के इस मुट्ठीभर चरम प्रतिक्रियावादी हिस्से के खिलाफ ही अपने प्रहार को केन्द्रित करना पड़ता है और शासक-शोषक वर्ग के एक हिस्से को साथ में लेने लायक जगह बनाये रखनी पड़ती है. पर साथ ही यह भी चौकसी निरंतर बनाये रखनी पड़ती है कि यह हिस्सा जन-उभार को अपने वर्गीय हित में न भुना सके और हमारी पांतों में दरार पैदा कर व बढ़ाकर अपना उल्लू न सीधा कर ले.

तीसरी और सर्वाधिक अहम चुनौती इस जन-उभार के सामने यह है कि वह शहरी मध्य वर्ग के अपने दायरे से बाहर निकले और इस कृषि-प्रधान देश की बहुसंख्यक किसान-आबादी तक पहुँचे. साथ ही व्यापक संगठित व असंगठित श्रमिकों को भी अपने आगोश में ले. किसानों, खासकर गरीब-भूमिहीन किसानों और मजदूरों के इस बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग को इस जन-उभार की अगली कतार में लाये बिना और इसे एक नेतृत्वकारी व निर्णायक शक्ति के रूप मे में खड़ा किये बिना शहरी मध्य वर्ग के कुछ प्रोटेस्टों के जरिए इस हिन्दुत्ववादी फासिस्ट शासन को उखाड़ फेंकना असंभव होगा, कोई समानतामूलक जनपक्षीय व जनवादी व्यवस्था का मॉडल पेश करना तो दूर की बात है.

यहां एक बात और भी दिमाग में रखने की है. पिछले दशकों में अपने देश के जन-आंदोलनों और उनके निर्माण व विकास में लगी सामाजिक-राजनीतिक ताकतों, खासकर वाम, जनवादी, क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट ताकतों के समूचे कामकाज पर ध्यान देने से एक चीज साफ तौर पर दिखती है. वह यह कि पिछले दशक से चाहे परम्परागत संसदीय वाम हो या क्रांतिकारी वाम, दोनों ने भारत के विस्तीर्ण देहाती क्षेत्रों से, किसान वर्ग से, खासकर गरीब-भूमिहीन किसानों से अपने को काफी अलगाव में डाल लिया है. एक तरफ जहाँ परम्परागत वाम शहरों में सिमट गया है, वहीं दूसरी तरफ क्रांतिकारी वाम कुछेक जंगली पॉकेटों में. यह सिमटाव तो अपने-आप में चिंताजनक है ही, इससे भी ज्यादा चिंता तब होती है जब हम यह देखते हैं कि विस्तीर्ण ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी मजदूर-बस्तियों से वाम की अनुपस्थिति और इससे उपजे खालीपन को भर रही है हिंदुत्व की झंडाबरदार आर.एस.एस. की शक्तियां.

ये शहरी क्षेत्रों में तो पहले से ही थीं, अभी अपनी पूरी ताकत से ये ग्रामीण क्षेत्रों में भी सामाजिक-राजनीतिक-सांगठनिक-सांस्कृतिक व सैनिक रूप से अपने पांव जमाने, फैलाने और सुदृढ़ करने में जुट गयी हैं. जमीनी कार्य में लगे सभी कार्यकर्ताओं व एक्टिविस्टों को यह अहसास स्पष्ट और बेहतर रूप से हो रहा है. वैसे भी देहातों में संघ की शाखाओं में पिछले 6 वर्षों में 11000 से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी, सरस्वती शिशु मंदिर सहित अन्यान्य संघी स्कूलों और हिन्दू युवा वाहिनी, दुर्गा वाहिनी, बजरंग दल, श्री राम सेना आदि जैसे संगठनों की शाखाओं में भी भारी वृद्धि और गो-रक्षा वाहिनियों जैसी न जाने कितनी वाहिनियों और संगठनों की चारों तरफ भरमार तथा संघ गिरोह एवं सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर इन्हें मिल रहे प्रश्रय से आप परिस्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं.

तो ऐसी एक स्थिति में आज की यह उभरती हुई छात्र-शक्ति व अन्यान्य ताकतें विस्तीर्ण ग्रामीण अंचलों में किसानों, खासकर गरीब, छोटे और मध्यम किसानों व खेतिहर मजदूरों के बीच कितनी अपनी ताकत केन्द्रित कर इन साम्प्रदायिकतावादी फासिस्ट ताकतों को अलगाव में डालकर इस जन-उभार में मजदूरों व किसानों की भारी बहुसंख्या को शामिल कर पाती हैं और आगे ले जा पाती हैं या नहीं, इस पर यह निर्भर करता है कि हिंदुत्ववादी फासिस्ट शासन के खिलाफ प्रहारों को कितना केन्द्रित किया जा सकेगा.

और चौथी चुनौती है शत्रु को पूरी तरह से अलगाव में डालने के लिए हिन्दू मानस से प्रभावित आम जनता के एक बड़े हिस्से को अपनी ओर खींच लेना. यह तभी संभव है जब हम इन हिन्दुत्ववादी फासिस्ट ताकतों के हिंदुत्व के पाखंड को तार-तार कर सकें.

इसी तरह उनसे विचारधारात्मक रूप से प्रभावित मध्य अवस्थान वाली जनता को अपने पक्ष में खींचकर इस उभार में या इसके समर्थन में उन्हें उतारने औए साथ ही तमाम दलितों, मुस्लिमों, और महिलाओं को भी इस दलित-विरोधी, मुस्लिम-विरोधी और महिला-विरोधी फासिस्ट सत्ता के खिलाफ खड़ा कर पाने पर ही इस लड़ाई में जीत-हार का सारा दारोमदार निर्भर करता है.

आवें, सचमुच की वाम, जनवादी, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, देशभक्त, क्रांतिकारी व कम्युनिस्ट ताकतें इस जन-उभार के सामने की इन चुनौतियों का सामना करने के लिए खुद को तैयार करें, इस जन-उभार की अगली कतार में खड़े होकर इसका नेतृत्व करते और इसे सही दिशा में संचालित करते हुए भारतीय राष्ट्र और जनता के इस सर्वाधिक बड़े, गम्भीर व वास्तविक खतरे—हिन्दुत्ववादी फासिस्ट सत्ता को कब्र दें और इसकी कब्र पर एक सच्चे जनपक्षीय, जनवादी व धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण की नींव रखें.

  • बच्चा प्रसाद सिंह

Read Also –

दिसम्बरी उभार के मायने…
आखिर क्यों और किसे आ पड़ी जरूरत NRC- CAA की ?
प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक आम नागरिक का पत्र
हिटलर की जर्मनी और नागरिकता संशोधन बिल
‘एनआरसी हमारी बहुत बड़ी गलती है’

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…