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मोदी-शाह की ‘न्यू इंडिया’ के खिलाफ खड़ी ‘भारतीयता’, उनकी वैचारिकी में अंतिम कील

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मोदी-शाह की 'न्यू इंडिया' के खिलाफ खड़ी 'भारतीयता', उनकी वैचारिकी में अंतिम कील

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

उन्होंने कहा कि देश हित में उन्हें लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है. कारपोरेट प्रभुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें उनलोगों का एजेंट कहा जा रहा है, लेकिन देश हित में वे अपना काम करते रहेंगे. देश हित की उनकी अपनी परिभाषा है. वे सत्ता में हैं, प्रचंड बहुमत उनके साथ है तो अपनी परिभाषाओं के अनुसार देश चलाने का उनको अधिकार है. इतिहास उन्हें कैसे परिभाषित करेगा, इसकी कोई चिन्ता नहीं उन्हें. जाहिर है, जो इतिहास रचते हैं वे इसकी चिन्ता करते भी नहीं कि भविष्य में उन्हें कैसे परिभाषित किया जाएगा.

इसमें कोई संदेह नहीं कि इतिहास तो वे रच रहे हैं. वे उन अवधारणाओं को बदलने की कोशिश कर रहे हैं जिनसे भारतीयता परिभाषित होती रही है. कोई उनकी आलोचना करे, करता रहे. लोकतंत्र में आलोचना और विरोध प्रदर्शनों से क्या घबराना ? स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जिन मूल्यों के आधार पर भावी भारत की कल्पना की गई थी, वे उन पर मिट्टी डाल कर अपनी सोच के अनुसार नए भारत को गढ़ने की कोशिशें कर रहे हैं. सही मायनों में अब वे नेहरू के बरक्स खड़े हैं, भारत को लेकर नेहरू के सपनों को चुनौती देते हुए ही नहीं, उन सपनों में आग भी लगाते हुए.

नेहरू बहुसंख्यकवाद को किसी भी देश और समाज के लिये बेहद घातक मानते थे, जबकि वे बहुसंख्यकवाद की लहरों पर सवार हैं. जिस वैचारिकी ने उन्हें गढ़ा और आगे बढ़ाया, उसमें यह बिल्कुल स्वाभाविक भी है. उनकी स्वाभाविकता इस देश के लिये चुनौती बन गई है लेकिन देशवासियों की इस पीढ़ी के अधिकतर लोग उनमें अपनी कुंठाओं का शमन देखते हैं. अतीत में वोट-बैंक की राजनीति ने बहुत सारे लोगों में जिन कुंठाओं को जन्म दिया, वे और उनकी पार्टी कुशलतापूर्वक उनका दोहन करने में सफल रहे और उनके सत्ता तक पहुंचने में इन कुंठाओं की भी बड़ी भूमिका रही.

कुंठाएं जब विस्फोट के रूप में सामने आती हैं तो उनसे सकारात्मक निष्कर्षों की उम्मीदें करना बेमानी है. जाहिर है, वे इन्हीं नकारात्मकताओं की लहरों के साथ देश को आगे ले जाना चाहते हैं. नियामक संस्थाएं उनके समक्ष नतमस्तक हैं. मीडिया का बड़ा हिस्सा उनका चारण है, जबकि सोशल मीडिया उनका हथियार है. सक्षम प्रतिरोध के अभाव ने उन्हें मनमानी करने की जितनी छूटें दी हैं, उनका परिणाम देश भुगत रहा है और आगे कब तक, किन रूपों में भुगतता रहेगा, नहीं कहा जा सकता.

उन्होंने नोटबन्दी की, इसे देश हित में बताया और बावजूद इसके अनर्थकारी परिणामों के, आज तक उनके लोग इसे देश हित में बड़ा फैसला बता रहे हैं. तर्क की कोई जगह नहीं, साक्ष्यों की कोई वक़त नहीं. वे जो करते हैं उसे देश हित के आवरण में समेट लेते हैं और जाहिर है, उनके किये का विरोध करने वाले लोग देश विरोधी की संज्ञा से नवाजे जाने लगते हैं.

देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषा बिल्कुल स्पष्ट कर दी गई है. उनके किये का समर्थन देशभक्ति, उनका विरोध देशद्रोह. अब, देशद्रोह का दमन तो होना ही चाहिये. तो, दमन की नई इबारतें लिखी जा रही हैं. विश्वविद्यालयों की लाइब्रेरी तक में घुस कर पुलिस का लाठियां चटकाना कौन-सी बड़ी बात है, देश हित में इससे भी कठोर कदम उठाए जा सकते हैं.

देश के हित में उनके विजन का एक नाम है ‘न्यू इंडिया’. यह स्पष्ट होता जा रहा है कि उनके न्यू इंडिया में देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक संरचना कैसी होगी. महज साल दो साल में अंबानी और अडाणी जैसे शीर्षस्थ उद्योगपतियों की संपत्ति में दोगुना इज़ाफ़ा आकार ले रहे न्यू इंडिया की एक झलक मात्र है. रिपोर्ट्स बता रहे हैं कि उनके राज में देश में आर्थिक असमानता इतिहास में सबसे तीव्र गति से बढी है, 45 साल में बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर है, लोगों की क्रय शक्ति में अपेक्षाओं और दावों के अनुरूप बढ़ोतरी नहीं हो पा रही, बाजार की रौनक गायब है, लेकिन उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं.

वोट-बैंक की राजनीति की लानत-मलामत करते वे इसी राजनीति को नए स्तर पर ले जा चुके हैं. ऐसी राजनीति, जिसमें आर्थिक सूचकांकों का कोई महत्व नहीं. महत्व है तो सिर्फ लोगों की भावनाओं के ध्रुवीकरण का, कल्पित अवधारणाओं को जमीन पर उतारने की विध्वंसकारी योजनाओं का. यह राजनीति देश को विवादों और कोलाहलों के एक नए दौर में ले आई है.

कोई आश्चर्य नहीं कि देश विरोधी शक्तियों को साजिशें रचने की नई जमीन मिल रही है. भावनाओं के ध्रुवीकरण की राजनीति के इस साइड इफेक्ट से कोई इन्कार नहीं कर सकता. उन्हें ही इससे निपटना भी होगा. समय बताएगा कि वे कैसे निपटते हैं. उनकी सिफत है कि देश विरोधी साजिशों से निपटने की अपनी नाकामी को भी वे अपने राजनीतिक लाभ के लिये इस्तेमाल कर लेते हैं. पुलवामा की घटना इसका एक उदाहरण मात्र है.

उनकी सत्ता अभी निर्विवाद है. उनका कार्यकाल अभी चार साल से अधिक शेष है लेकिन, भारत को नए तरीके से परिभाषित करने की उनकी कोशिशों के आड़े भारत ही आ रहा है. नागरिकता कानून के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन इसके स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि भारतीयता उनके खिलाफ खड़ी हो रही है.

भारतीयता से संघर्ष में उनका पराभव उनकी वैचारिकी में भी अंतिम कील ठोंक सकता है. विपक्ष में जब राजनीतिक दल नहीं, आम लोग खड़े होने लगें तो कोई भी नेता कितनी देर टिक सकता है ?

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