अशफाक और बिस्मिल का साथियाना व्यवहार पूरे देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता की सबसे शानदार मिशाल है, जिस पर हर हिन्दुस्तानी गर्व करता है. लेकिन इससे ज्यादा गर्व की बात है बिस्मिल का विशाल राजनैतिक दृष्टिकोण और उसपर अशफाक उल्ला की अटूट विश्वास, जो फांसी के फंदे को सामने देखकर भी न डिगा.
अंग्रेजों के जासूस संघी, राम प्रसाद बिस्मिल के राजनीतिक दृष्टिकोण कि ‘राजनीति एक शतंरज का खेल है’ का नाजायज फायदा उठाकर कायर, डरपोक सावरकर और उसके माफीनामा और अंग्रेजों के तलबे चाटने जैसे कुकृत्यों को जायज और दूरदृष्टी बतलाना चाहता है, परन्तु, वह यह भूल जाता है कि सावरकर की माफीनामे और अशफाक के माफीनाम में रात दिन जैसा अंतर है.
गद्दार सावरकर के बार-बार माफीनामे का परिणाम उसके जेल से मुक्ति में निकलता है. उसके ₹60 प्रतिमाह के रूप में निकलता है, जो आज के हिसाब से 1 लाख 50 हजार के करीब आता है. वह अशफाक-बिस्मिल की अगली विरासत अमर शहीद भगत सिंह के खिलाफ झूठी गवाही दिलवाकर फांसी पर लटकाने के रूप में निकलता है, कि देश की 1947 को मिली आजादी के खिलाफ निकलता है, कि महात्मा गांधी की हत्या के रूप में निकलता है. जबकि अशफाक और बिस्मिल का माफीनाम उनको फांसी के फंदे पर पहुंचा देती है. हलांकि अशफाक उल्ला किसी भी प्रकार की माफी लिखने के बिल्कुल खिलाफ थे. बावजूद इसके उनकी संगठन पर बेपनाह भरोसा ही था जो वे माफीनामा लिखने के लिए तैयार हुए थे, खुद राम प्रसाद बिस्मिल ने उन्हें माफीनामा लिखने के लिए कहा था. राम प्रसाद बिस्मिल के ही शब्दों में माफीनामा लिखने पर उनका विचार इस प्रकार था, ‘सब कुछ पहले से ही जानते हुए भी मैने माफीनामा, रहम की दरखास्त, अपीलों पर अपीलों क्यों लिख-लिख भेजी ? मुझे तो इसका एक ही कारण समझ में आता हैं, कि राजनीति एक शतंरज का खेल है … सरकारी घोषणाओं का पोल खोलने की इच्छा से ही मैंने यह सब किया. माफीनामे भी लिखे, अपीलें भी की.’ साफ तौर पर गद्दार सावरकर और बिस्मिल एवं अशफाक की माफीनामें लिखने में रात और दिन का फर्क है.
राम प्रसाद बिस्मिल की वैचारिक दृढ़ता पर अशफाक उल्ला खान का कितना भरोसा था, इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है. एक दिन लखनऊ जेल पुलिस सुपरिन्टेडेन्ट अशफाक उल्ला खां से मिलने आये और कहने लगे, ‘अशफाक ! तुम मुसलमान हो और मैं भी मुसलमान हुं. मुझे तुम्हारी गिरफ्तारी पर बड़ा अफसोस है. तुम काफिर राम प्रसाद के साथी कैसे बन गयें ?’ इतना सुनते ही अशफाक क्रोध से उबलते हुए कहा, ‘खबरदार ! अब अगर ऐसी बात मुंह से निकली. राम प्रसाद सच्चे हिन्दुस्तानी हैं, उन्हें साम्प्रदायिक राज्य से घृणा है और अगर यह सच भी हो तो अंग्रेजों के राज्य से हिन्दुओं केे राज्य को में अधिक पसन्द करूंगा क्योंकि वे हमारे साथी हैं.’
अशफाक उल्ला खां वैचारिक तौर पर कितने परिपक्व थे इसका पता उनके पत्र से चलता है, जो उन्होंने 19 दिसम्बर, 1927 को अपनी फांसी के तीन दिन पहले फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) जेल से देशवासियों के नाम अपना अंतिम सन्देश भेजा था –
‘भारत माता के रंगमंच पर हम अपनी भूमिका अदा कर चुके हैं. गलत किया या सही, जो भी हमने किया, स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से प्रेरित होकर किया. हमारे अपने (अर्थात् कांग्रेसी नेता) हमारी निन्दा करें या प्रशंसा, लेकिन हमारे दुश्मनों तक को हमारी हिम्मत और वीरता की प्रशंसा करनी पड़ी है. लोग कहते हैं हमने देश में आंतकवाद फैलाना चाहा है, यह गलत है. इतनी देर तक मुकदमा चलता रहा. हमारे में बहुत से लोग बहुत दिनों तक आजाद रहे और अब भी कुछ लोग आजाद हैं (संकेत चन्द्रशेखर आजाद की ओर है), फिर भी हमने या हमारे किसी साथी ने हमें नुकसान पहुंचाने वालों तक पर गोली नहीं चलाई. हमारा उद्देश्य यह नहीं था. हम तो आजादी हासिल करने के लिए देश-भर में क्रान्ति लाना चाहते थे.
‘जजों ने हमें निर्दयी, बर्बर, मानव-कलंकी आदि विशेषणों से याद किया है. हमारे शासकों की कौम के जनरल डायर ने निहत्थों पर गोलियां चलायी थी और चलायी थी बच्चों, बूढों व स्त्री-पुरूषों पर. इन्साफ के इन ठेकेदारों ने अपने इन भाई-बन्धुओं को किस विशेषण से सम्बोधित किया था ? फिर हमारे साथ ही यह सलूक क्यों ?
‘हिन्दुस्तानी भाइयों ! आप चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो. व्यर्थ आपस में न लड़ो. रास्ते चाहे अलग हों, लेकिन उद्देश्य सबका एक है. सभी कार्य एक ही उद्देश्य की पूर्ति के साधन हैं, फिर यह व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े क्यों ? एक होकर देश की नौकरशाही का मुकाबला करो, अपने देश को आजाद कराओ. देश के सात करोड़ मुसलमानों में मैं पहला मुसलमान हूं, जो देश की आजादी के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूं, यह सोचकर मुझे गर्व महसूस होता है.
अन्त में सभी को मेरा समाल,
हिन्दुस्तान आजाद हो !
मेरे भाई खुश रहें !
आपका भाई,
अशफाक’
इसी तरह काकोरी काण्ड के क्रान्तिकारियों के मुख्य नेतृत्व राम प्रसाद बिस्मिल ने गोरखपुर जेल से अपना अन्तिम सन्देश देशवासियों के नाम लिखा था –
‘16-12-1927
19 तारीख सुबह साढ़े छः बजे फांसी समय निश्चित हो चुका है. कोई चिन्ता नहीं, ईश्वर की कृपा से मैं बार-बार जन्म लूंगा और मेरा उद्देश्य होगा कि संसार में पूर्ण स्वतंत्रता हो कि प्रकृति की देन पर सबका एक-सा अधिकार हो, कि कोई किसी पर शासन न करे. सभी जगह लोगों के अपने पंचायती राज्य स्थापित हो. अब मैं उन बातों का उल्लेख कर देना जरूरी समझता हूं, जो सेशन जज के 6 अप्रैल, 1927 के फैसले के बाद काकोरी के कैदियों के साथ हुआ. 18 जुलाई को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई. वह सिर्फ मौत की सजा पाये चार कैदियों की ओर से थी लेकिन पुलिस की ओर से सजा बढ़ाने की अपील हुई. फिर बाकी कैदियों ने भी अपील कर दी, लेकिन श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल, श्री भूपेन्द्रनाथ सान्याल और इकबालिया गवाह वनबारी लाल ने अपील नहीं की थी और फिर प्रणव चटर्जी ने इकबाल कर लिया और अपील वापस ले ली. फांसी वालों की सजा बहाल रही और श्री जोगेशचन्द्र चटर्जी, श्री गोविन्द चरण क्यू और श्री मुकुन्दी लाल जी को दस साल की उम्र कैद हो गई. श्री सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य और श्री विष्णु शरण दुबलिस की सजा सात-सात साल से बढ़ाकर दस-दस साल कर दी गई. रामनाथ पाण्डे की तीन साल और प्रणवेश की कैद चार साल रह गई. प्रेम किशन खन्ना पर से डकैती की सजा कम कर पांच वर्ष कैद रह गई. बाकी सब की अपीलें खारिजकर दी गयी. अशफाक की मौत की सजा बनी रही, शचीन्द्रनाथ बख्शी ने अपील ही नहीं की थी.
‘अपील से पहले ही मैंने गवर्नर के पास प्रार्थना पत्र लिखा था, जिनमें मैंने कहा था कि मैं गुप्त षड़यंत्रों में हिस्सा न लिया करूंगा और कोई सम्बन्ध भी उनसे नहीं रखूंगा. रहम की अपील में भी इस प्रार्थना पत्र का जिक्र कर दिया था लेकिन जजों ने कोई ध्यान देना जरूरी न समझा. जेल से अपना बचाव मैंने खुद लिख कर चीफ कोर्ट में भेजा, लेकिन जजों ने कहा कि यह बचाव राम प्रसाद का लिखा हुआ नहीं है, जरूर किसी बड़े सयाने आदमी की मदद से लिखा गया हैं. उल्टे उन्होंने यह कह दिया कि राम प्रसाद बड़ा भयानक क्रान्तिकारी है और यदि रिहा हुआ तो फिर वही काम करेगा. उन्होंने मेरी बुद्धिमत्ता-समझदारी आदि की प्रशंसा करने के बाद कहा कि यह एक ऐसा निर्दयी कातिल है, जो उन पर भी गोली चला सकता है, जिसके साथ उसकी कोई दुश्मनी नहीं हैं. खैर कलम उनके हाथ थी, जो चाहते वह लिखते लेकिन चीफ कोर्ट के फैसले से स्पष्ट पता चलता है कि बदला लेने के विचार से ही हमें फांसी की सजा दी गई.
अपील खारिज हो गई. फिर लार्ड साहब और वायसराय के पास रहम का प्रार्थना पत्र दिया गया. श्री राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, श्री अशफाक उल्ला खां, श्री रोशन सिंह और राम प्रसाद की मौत की सजा बदलने के लिए यू. पी. कौन्सिल के लगभग सभी चुने हुए सदस्यों के हस्ताक्षर से एक प्रार्थना पत्र दिया गया. मेरे पिता के प्रयत्नों से 250 ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों और बड़े-बड़े जमींदारों के हस्ताक्षरों सहित एक अलग प्रार्थना पत्र दिया गया. असेम्बेली और कौन्सिल ऑफ स्टेट के 108 सदस्यों ने भी हमारी मौत की सजा बदलने के लिए वायसराय के पास प्रार्थना पत्र दिया. उन्होंने यह भी कहा कि जज ने कहा था कि यदि लोग पश्चाताप करें तो सजाएं बहुत कम कर दी जायगी. चारों ओर से इतनी घोषणायें हो चुकी थी, लेकिन एक सिरे दूसरे सिरे तक सभी हमार रक्त के प्यासे थे और वायसराय ने भी हमारी एक न सुनी. पंडित मदन मोहन मालवीय जी कई और सज्जनों को लेकर वायसराय से मिले. सबको उम्मीद थी कि अब जरूर मोैत की सजा हटा ली जायगी. लेकिन क्या होना था. चुपचाप दशहरे से दो दिन पहले सभी जेलों में तार दे दी गयी कि फांसी की तारीख निश्चित हो गयी है, जब जेल के सुपरिण्डेण्ट ने यह तार मुझे सुनायी तो मैंने कहा, ‘अच्छा ! आप अपना काम करो.’ लेकिन उनके जोर देकर कहने से एक रहम की तार बादशाह को भेज दी. उस समय प्रिंवी कौन्सिल में अपील करने का विचार भी मन में आया. श्री मोहन लाल सक्सेना वकील को तार दी गयी. जब उन्हें बताया गया कि वायसराय ने सभी की दरखास्तें नामंजूर कर दी है तो किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था. उनसे कह-सुनकर प्रिवी कौन्सिल में अपील करवायी गयी. परिणाम पहले ही पता था, अपील खारिज हो गयी.
अब सवाल उठेगा कि सब कुछ पहले से ही जानते हुए भी मैने माफीनामा, रहम की दरखास्त, अपीलों पर अपीलों क्यों लिख-लिख भेजी ? मुझे तो इसका एक ही कारण समझ में आता हैं, कि राजनीति एक शतंरज का खेल है. सरकार ने बंगाल ऑर्डिनेंस कैदियों सम्बंधी असेम्बली में जोर देकर कहा था कि उनसे खिलाफ बड़े सबूत हैं, जो गवाहों की सुरक्षा के लिए हम खुली अदालत में पेश नहीं करते. हालांकि दक्षिणेश्वर बम काण्ड और शोभा बाजार षड़यंत्र के मुकदमे खुली अदालत में चले. खुफिया पुलिस के सुपरिण्डेन्ट को मारने का मुकदमा भी खुली अदालत में चला. काकोरी केस भी डेढ़ साल चला. सरकार की ओर से 300 गवाह पेश हुए. कभी किसी गवाह पर मुसीबत न आयी, हालांकि यह भी कहा गया था कि काकोरी षड्यंत्र की शुरूआत बंगाल में हुई. सरकारी घोषणाओं का पोल खोलने की इच्छा से ही मैंने यह सब किया. माफीनामे भी लिखे, अपीलें भी की लेकिन क्या होना था. असलियत तो यह है कि जोरावर मारे भी और रोने भी न दें.
हमारे जिन्दा रहने से कहीं विद्रोह नहीं हो चला था. अब तक क्रान्तिकारियों के लिए किसी ने इतनी भारी सिफरिश नहीं की थी, लेकिन सरकार को इससे क्या ? उसे अपनी ताकत पर नाज है, अपने बल पर अहंकार है. सर विलियम मौरिस ने स्वयं शाहजहांपुर और इलाहाबाद के दंगों में मौत की सजा पाने वालों की मौत की सजाएं माफ की थी, जबकि वहां रोज दंगे होते थे. यदि हमारी सजा कम करने से औरों की हिम्मत बढ़ती है तो यही बात साम्प्रदायिक दंगों सम्बन्धी भी कही जा सकती है. लेकिन यहां मामला ही कुछ और था. आज प्राण उत्सर्ग करते हुए मुझे कोई निराशा नहीं हो रही कि यह व्यर्थ गये. बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाते. क्या पता हमारे जैसे लोगों की ठंडी आहों से ही यह परिणाम हुआ कि लार्ड कर्जन हैड के दिमाग में हिन्दुस्तान की जंजीरें जकड़ने का विचार आया और उसने रॉयल कमिशन भेजा, जिसके बायकाट के लिए हिन्दू-मुसलमानों में फिर कुछ एकता हो रही है. ईश्वर करें कि इनको शीघ््रा ही सदबुद्धि आये और यह फिर एक हो जाये.
‘हमारी अपील ना मंजूर होते ही मैंने श्री मोहन लाल सक्सेना से कहा था कि ‘इस बार हमारी यादगार मनाने के लिए हिन्दू-मुसलमान नेताओं को इकट्ठा बुलाया जायें.’ अशफाक उल्ला खां को सरकार ने राम प्रसाद का दायां हाथ बताया है. अशफाक कट्टर मुसलमान होते हुए प्रसाद जैसे कट्टर आर्य समाजी का क्रान्ति में दाहिना हाथ हो सकता है तो क्या भारत के अन्य हिन्दू-मुसलमान आजादी के लिए अपने छोटे-मोटे लाभ भुला एक नहीं हो सकते ? अशफाक तो पहले ऐसे पहले मुसलामान हैं जिन्हें कि बंगाली क्रान्तिकारी पार्टी के सम्बन्ध में फांसी दी जा रही है. ईश्वर मेरी पुकार सुन ली. मेरा काम खत्म हो गया. मैंने मुसलमानों में से एक नौजवान निकालकर हिन्दुस्तान को यह दिखा दिया कि मुस्लिम नौजवान भी हिन्दू नौजवानों से बढ़-चढ़ देश के लिए बलिदान दे सकता है और वह सभी परीक्षाओं में सफल हुआ. अब यह कहने कि हिम्मत किसी में नहीं होनी चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए. यह पहला तजुर्बा था जो पूरा हुआ.
अशफाक ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शान्ति दे. तुमने मेरी और देश के सभी मुसलमानों की लाज बचा ली है और यह दिखा दिया है कि भारत में तुर्की और मिस्र जैसे मुसलमान युवक मिल सकते हैं.
अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें. यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है. सभी धर्मों ओर सभी पाटियों को कांग्रेस को ही प्रतिनिधि मानना चाहिए. फिर वह दिन दूर नहीं, जब अंग्रेजों को भारतीयों के आगे शीश झुकाना होगा.
जो कुछ मैं कह रहा हूं, ठीक वही, श्री अशफाक उल्ला खां बारसी का विचार है. अपील लिखते समय लखनऊ जेल में मैंने उनसे बातचीत की थी. श्री अशफाक तो रहम की दरखास्त देने लिए राजी नहीं थे. उन्होंने तो सिर्फ मेरी जिद पर, मेरे कहने पर ही ऐसा किया था.
सरकार से मैंने यहां तक कहा था कि जब तक उसे विश्वास न हो, तब तक मुझे जेल में कैद रखे या किसी दूसरे देश में निर्वासित कर दे, और हिन्दुस्तान न लौटने दे लेकिन सरकार को क्या करना था. सरकार को यही मंजूर था कि हमें फांसी जरूर दी जाय, हिन्दुस्तानियों के जले दिल पर नमक छिड़का जाय, आंखें तड़प उठे. कुछ संभल जायें और हमारे पुनर्जन्म लेकर काम के लिए तैयार होने तक देश की हालत सुधर गई हो. अब तो मेरी यही राय है कि अंग्रेजी अदालत के आगे न तो कोई बयान दे और न ही कोई सफाई पेश करे.
अपील करने के पीछे एक कारण यह भी था कि फांसी की तारीख बदलवाकर मैं एक बार देशवासियों की सहायता और नवयुवकों का दम देख लूं. इसमें मुझे बहुत निराशा हुई. मैंने निश्चय किया था कि सम्भव हो तो जेल से भाग जाऊं. यादि ऐसा हो सकता तो बांकी तीनों की मौत की सजा भी माफ हो जाती. यादि सरकार न करती तो मैं करवा लेता. इसका तरीका मुझे खूब आता था. मैंने बाहर निकलने के लिए बड़े यत्न किये, लेकिन बाहर से कोई सहायता न मिली.
अफसोस तो इसी बात का है कि जिस देश में मैंने इतना बड़ा क्रान्तिकारी दल खड़ा कर दिया था, वही अपनी रक्षा के लिए मुझे एक पिस्तौल तक न मिला. कोई नौजवान मेरी सहायता के लिए आगे नहीं आया. मेरी नौजवानों से प्रार्थना है कि जब तक सभी लोग पढ़-लिख न जायें, तब तक कोई भी गुप्त पार्टियों की ओर ध्यान नहीं दें. यादि देश-सेवा की इच्छा है तो खुला काम करें. व्यर्थ बातें सुन-सुनकर ख्याली पुलाव पकाते हुए अपने जीवन को मुसीबतों में न डालें. अभी गुप्त काम का समय नहीं आया. हमें इस मुकदमें के दौरान बड़े अनुभव हुए, लेकिन उनका लाभ उठाने का अवसर सरकार ने हमें नहीं दिया लेकिन इस बात के लिए हिन्दुस्तान और ब्रिटिश सरकार बहुत पछतायेगी.
क्रान्तिकारी लोगों में भी हिम्मत की बहुत कमी है और जनता की हमदर्दी अभी उनके साथ नहीं हैं. साथ ही इनमें भी प्रान्तीयता की भावना बहुत है. परस्पर पूरा विश्वास भी नहीं है. इन बातों के कारण हमारी हसरतें दिल में ही रह गई. मौखिक रूप से इनकार करने से ही मुझे 5000 रूपये नकद और बिलायत भेज बैरिस्टर बनने का वायदा मिल रहा था. लेकिन इस बात को घोर पाप समझ कर मैंने इसकी ओर ध्यान भी नहीं दिया लेकिन अफसोस इस बात का है कि बड़े-बड़े विश्वसनीय कहे जाने वाले साथियों ने अपने सुख के लिए छिप-छिपकर पार्टी को धोखा दिया और हमारे साथ दगा कमाया.’
राम प्रसाद बिस्मिल की आखिरी इच्छा यही थी कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें. यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है. मैंने मुसलमानों में से एक नौजवान निकालकर हिन्दुस्तान को यह दिखा दिया कि मुस्लिम नौजवान भी हिन्दू नौजवानों से बढ़-चढ़ देश के लिए बलिदान दे सकता है और वह सभी परीक्षाओं में सफल हुआ. अब यह कहने कि हिम्मत किसी में नहीं होनी चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए.
क्या भारत के संघी शासकों की कानों में राम प्रसाद बिस्मिल की यह आखिरी इच्छा कभी गूंजेगी ?
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