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राष्ट्रवादी नशा की गहरी खुराक परोसता भारतीय फिल्म उद्योग

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राष्ट्रवादी नशा की गहरी खुराक परोसता भारतीय फिल्म उद्योग

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

खबर है कि संजय लीला भंसाली बालाकोट एयर स्ट्राइक पर फ़िल्म बनाने जा रहे हैं. नायक-नायिका कौन होंगे, अभी तय नहीं. कोई भी हों, क्या फर्क पड़ता है. सबको पता है कि फ़िल्म का वास्तविक नायक कौन होगा, भले फ़िल्म में उसे दिखाया जाए या न दिखाया जाए यानी, राष्ट्रवाद के एक और तगड़े डोज के लिये तैयार रहिये.

फिल्मी पर्दे पर भारतीय मिसाइलें गरजती हुई, आसमान के अंधेरों को चीरती हुई अपने टारगेट पर आक्रमण करेंगी, दाढ़ी वाले मुल्ले डरी हुई मुद्राओं में चीखेंगे, भागेंगे … फिर अल्लाह को प्यारे होते हुए दिखाए जाएंगे. आतंकी शिविर ध्वस्त होते हुए दिखेंगे. ईंट से ईंट बजेंगी. दर्शकों में उन्माद की लहरें उठेंगी.

बालाकोट में उस रात असल में हुआ क्या था, इससे किसी को कोई मतलब नहीं रह जाएगा, जो फ़िल्म में दिखाया जाएगा वही आम जनमानस में स्थापित हो जाएगा.

‘ … ये मारा … वो धो डाला … आतंकी मुल्लों को 72 हूरों के पास भेज दिया … पाकिस्तान को उसकी औकात दिखा दी …’.

‘ … भारत माता की जय … वन्दे मातरम …’.

और फिर … ‘मोदी … मोदी … मोदी … मोदी …’

बेरोजगारी से बेजार युवा देशभक्ति से ओतप्रोत हो सिनेमा हॉल में शोर मचाएंगे और गर्व की अनुभूतियों से लबालब हो हॉल से बाहर निकलेंगे. भारत महाशक्ति बन रहा है… इतिहास की कहानियों के नाम पर भव्यता के साथ रायता फैलाने में भंसाली को महारत हासिल है. विवाद उनकी पूंजी है, जिसका भरपूर लाभ वे अपनी पिछली फिल्मों में उठाते रहे हैं. बॉलीवुड इतना जनविरोधी अतीत के किसी दौर में नहीं रहा.

50 के दशक में, जब देश सपनों के साथ सो रहा था, जग रहा था, हिन्दी फिल्मों ने जन सापेक्ष मुद्दों पर कई यादगार प्रस्तुतियां दी. राज कपूर, दिलीप कुमार, नरगिस, राजकुमार जैसे मुख्य धारा के सितारों ने इन फिल्मों में काम किया था. कलात्मक उत्कर्ष के साथ ही व्यावसायिक रूप से भी इन फिल्मों ने सफलता के नए मानदण्ड स्थापित किये.

60 का दशक मोहभंग का था और अवाम में फैलती निराशा को कई फिल्मों ने अपना मुद्दा बनाया. 70 का दशक सिस्टम से हताश, आक्रोशित युवाओं की छवि फिल्मी पर्दे पर उकेरता रहा. इधर, 70 के दशक में समांतर फिल्मों की धारा भी सशक्त हुई जिसमें वंचित, पीड़ित समुदायों की पीड़ा को सामने लाया जाता रहा.

80 के दशक से हिन्दी फिल्में जन से दूर होने लगी. लेकिन, उसका जनविरोधी होना अभी बाकी था. नई शताब्दी में फिल्मों में कारपोरेट फंडिंग का नया अध्याय शुरू हुआ. अब यह फ़िल्म इंडस्ट्री को अपनी गिरफ्त में ले चुका है. तो … कारपोरेट हितों की प्राथमिकताएं अहम हो गईं. कारपोरेट हित … मतलब सत्ता-संरचना के हित … मतलब सत्ताधीशों के हित … मतलब जन विरोधी.

बीते कुछ वर्षों में राष्ट्रवाद की अलख जगाती फिल्मों का सिलसिला रहा है. ये 60 और 70 के दशकों की मनोज कुमार टाइप राष्ट्रवादी फिल्मों से अलग तेवर और कंटेंट के साथ सामने आई हैं. अप्रत्यक्ष रूप से किसी खास समुदाय को टारगेट करती फिल्में, किसी खास देश से दुश्मनी को अपने खास तरीके से परिभाषित करती फिल्में.

कौन कह सकता है कि ऐसी फिल्मों को असल फंडिंग कहां से मिल रही है, लेकिन, कौन नहीं जानता कि ये फंडिंग कहां से आ रही होंगी  ? जाहिर है, बालाकोट पर फ़िल्म बनाने के लिये भंसाली को फंड के बारे में सोचना नहीं पड़ेगा. कंटेंट क्या होगा, यह अभी से पता है.

पुलवामा हमले को आप बालाकोट से अलग नहीं कर सकते. लेकिन, यकीन मानिये, पुलवामा में सुरक्षा तंत्र की नाकामी पर भंसाली फ़िल्म में कुछ नहीं दिखाएंगे. मीडिया ने तंत्र की इस भयानक नाकामी पर पहले से ही मिट्टी डालने का काम बखूबी कर दिया है.

मीडिया की तरह ही भंसाली भी पुलवामा की नाकामी से इस्केप कर सीधे दुश्मन की छाती पर गिरती मिसाइलें दिखाएंगे.
बॉलीवुड सत्ता के चरणों पर इससे पहले इतना नतमस्तक कभी नहीं हुआ था. इमरजेंसी में भी नहीं. तो…भंसाली ब्रांड भव्यताओं से लबरेज राष्ट्रवाद के नए झूले में झूलने के लिये तैयार रहिये. आर्थिक संकेत बुरे से बुरे हालात को बयां कर रहे हैं. नशे में डूब जाने के लिये तैयार रहिये.

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ROHIT SHARMA

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