हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
किसी विश्वविद्यालय के छात्र अगर बेतहाशा फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं तो वे सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि उन तमाम बच्चों के लिये भी सड़कों पर उतरे हैं जिनसे उच्च शिक्षा को दूर करने की साजिशों में सत्ता-संरचना लगी है. कहने में बात तीखी लग सकती है, लेकिन सच यही है कि जेएनयू के छात्रों के इस आंदोलन पर तंज कसने वाले लोग मानसिक दिवालियेपन के शिकार हैं. हां, अगर वे करोड़पति हैं या कम से कम उच्च मध्यम वर्ग से हैं तो उन्हें पूरा अधिकार है कि वे इस आंदोलन का मखौल उड़ाएं क्योंकि आज की तारीख में उनमें से अधिकतर लोग मनुष्य नहीं रह गए हैं. जब आप मनुष्य नहीं रह जाते तो…जाहिर है, मनुष्यता आपकी सोच के दायरे से बाहर हो जाती है. जो वर्ग वंचितों का रक्त पीकर अपना हीमोग्लोबिन बढा रहा है, वह मनुष्य तो नहीं ही रह जाता. तभी तो, न जाने किस विधि की अपनी कमाई से औसत प्रतिभा वाली अपनी संतानों को भी महंगे से महंगे संस्थानों में दाखिला दिला कर ऐसे लोग महंगी होती शिक्षा के खिलाफ होने वाले संघर्षों का मजाक उड़ाते हैं. लेकिन, जिनकी मासिक आमदनी 50-60 हजार रुपये या उससे कम है, वे अगर शिक्षा को महंगी करने की साजिशों का समर्थन करते हैं तो वे और कुछ नहीं कर रहे, अपने बच्चों का भविष्य नष्ट करने की साजिशों को ही बल दे रहे हैं. ऐसे ही लोगों को मानसिक रूप से दिवालिया कहा जाता है.
दरअसल, संघर्षों के मायने बदलने की जरूरत है. अब सरकार बनाम वंचितों का संघर्ष नहीं, खाए-पिये अघाए लोगों और वंचितों के बीच हितों के संघर्षों का दौर है. भले ही यह अभी परवान नहीं चढ़ पा रहा, लेकिन अगर अवसरों की समानता के लिये, अपने बच्चों के भविष्य के लिये लड़ना है तो सरकारों से ही नहीं, उन लोगों से भी लड़ना होगा जो ऐसे कदम उठाती सरकारों के साथ हैं. इतिहास फिर एक दोराहे पर खड़ा है जहां बड़ी आबादी से मनुष्य होने का अधिकार छीना जा रहा है. उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ही नहीं, चिकित्सा और यात्रा सुविधाएं भी छीनी जा रही हैं. हालात तेजी से बदल रहे हैं और आने वाले समय की पदचाप सुनने की जरूरत है. यह इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जिन्हें आने वाले समय की पदचापों को सुनना चाहिये उनके मस्तिष्क व्यर्थ के कोलाहलों से भ्रमित हैं.
गुणवत्तापूर्ण ऊंची शिक्षा से सामान्य परिवारों के बच्चों को महरूम करने का सीधा सा मतलब है, उन्हें ऊंची नौकरियों के अवसरों से महरूम करना. और, यह हो रहा है, बल्कि पूरी ठसक के साथ हो रहा है. स्कालरशिप की अवधारणा पीछे छूटती जा रही है और ‘एडुकेशन लोन’ की परंपरा जड़ें जमाती जा रही है. ख्यातिप्राप्त संस्थानों की फीस इतनी बढ़ती जा रही है कि आने वाले समय में सामान्य लोग वहां तक पहुंचने की कल्पना करना भी छोड़ देंगे.
इस देश में विश्वविद्यालयों की स्थापना के पीछे जो सोच थी, अब वह सिरे से बदल रही है. आपके पास पैसा है तो आप इनमें बतौर छात्र प्रवेश करें वरना इसके गेट पर स्टाल लगा कर इठलाती छात्राओं और मगरूर छात्रों को पानी-पूड़ी सर्व करते रहें. विश्वविद्यालय कमाई का जरिया नहीं, सभ्यता की विकास यात्रा के अनिवार्य सोपान हैं. अगर इनमें प्रवेश की कसौटी आर्थिक आधार पर तय होगी तो सभ्यता पंगु हो जाएगी. जो अमीर होंगे वे ही, सिर्फ वे ही राज करेंगे क्योंकि राज करने की योग्यता उनके बच्चों में ही विकसित की जाएगी.
उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की योग्यता सिर्फ और सिर्फ प्रतिभा और इच्छा शक्ति से ही निर्धारित हो सकती है. कोई अन्य पैमाना नहीं हो सकता. जो भी सरकार, जो भी व्यवस्था इन मानकों से खिलवाड़ कर उच्च शिक्षा परिसरों में सामान्य लोगों के प्रवेश को बाधित करती है, उसे तो सत्ता से उखाड़ फेंकने की जरूरत है ही, उससे भी अधिक उन लोगों की पहचान और उनके राजनीतिक विरोध की भी जरूरत है, जो सरकारों की इन साजिशों के साथ खड़े हैं.
किसी अखबार में पढ़ा कि बिहार में 7 प्राइवेट विश्वविद्यालय खुल चुके हैं. 20 और खुलने की प्रक्रिया में हैं. जल्दी ही वे बिहार की शिक्षा को समृद्ध करने में अपनी भूमिका निभाने लगेंगे. अब तो बिहार सरकार ने किराये के भवनों में भी प्राइवेट युनिवर्सिटी खोलने की अनुमति दे दी है, इसलिये सिर्फ पूंजी चाहिये, आनन-फानन में आप अपने स्वर्गीय दादा जी या नाना जी या फिर किसी भी जी के नाम से बाकायदा एक युनिवर्सिटी खोल सकते हैं या फिर चाहें तो कोई अबूझ-सा अंग्रेजी नाम ही रख सकते हैं. कुलपति, कुलसचिव बनाना तो आपकी मर्जी है, जिसे बनाएं.
पूंजी आपकी तो मर्जी आपकी, किसे किस पद पर रखते हैं, अपनी जागीर में कौन-कौन से कोर्स चलवाते हैं. प्राध्यापकों की नियुक्ति कैसे करते हैं, उनसे कितने वेतन पर साइन करवाते हैं, कितना असल में देते हैं. इतना तो तय है कि आप ह्यूमैनिटीज और सोशल साइंस आदि के कोर्सेज को फालतू टाइप समझेंगे. कितने लोग आपकी ऊंची फीस देकर इतिहास या हिन्दी पढ़ने आएंगे ?
जाहिर है, आप ऐसे ही कोर्स चलवाएंगे जिनसे पैसों की बरसात हो. ये मैनेजमेंट, वो मैनेजमेंट टाइप के न जाने कितने कोर्सेज हैं, जिनमें अपने बच्चों को दाखिला दिलाने के लिये किसान अपनी जमीनें बेचेंगे, नौकरीपेशा पीएफ से लोन लेंगे. अब तो एडुकेशन लोन का जमाना भी है. तो, आपको ग्राहकों की कमी नहीं रहेगी. आखिर, आप बिहार का ही तो उद्धार करने आए हैं. सुनते-सुनते कान पक गए कि बिहार का पैसा कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों में जा रहा है क्योंकि वहां प्राइवेट संस्थानों की भरमार है और बिहार-यूपी में उन संस्थानों का कोर्स करने को उत्कंठित बच्चों की भरमार है. अब घर का पैसा घर में रहेगा. बिहार का पैसा बिहार में ही खर्च होगा. अच्छी बात है. कुछ बुराइयां ऐसी भी होती हैं, जिनमें कुछ न कुछ अच्छाइयां भी छिपी होती हैं. आपके संस्थान के गेट पर चाय-समोसे की दुकानें खुलेंगी, पान-सिगरेट के भी. बिहारियों को रोजगार मिलेगा. ऊंची फीस के कारण बाबू ग्रेड के परिवारों के ही अधिकतर बच्चे होंगे, तो दुकानें भी खूब चलेंगी. शहर की रौनक बढ़ेगी.
जाहिर है, आप इसके लिये बिल्कुल चिंतित नहीं होंगे कि आपके यहाँ से पढ़ कर निकलने के बाद बच्चे करेंगे क्या. जिनकी जैसी नियति. कुछ तो जरूर अच्छी उपलब्धि के साथ अच्छे पैकेज पर जाएंगे. आप उनकी फोटो का विज्ञापनों में इस्तेमाल कर ग्राहक जुटा सकते हैं. जुटाएंगे ही. बाकी बच्चों का क्या हुआ, क्यों हुआ, यह आपकी चिन्ता नहीं. आपने तो डिग्री दे दी. आखिर, पटना या दरभंगा के सरकारी विश्वविद्यालयों से डिग्री लेकर ही कितने बच्चे कौन-सा तीर मार रहे हैं, जो आप अपने पढ़ाए बच्चों की दुर्दशा से अपराध बोध से ग्रस्त हों.
अपराध बोध से ग्रस्त होने की बिल्कुल जरूरत नहीं कि हमने बेहद कम वेतन पर मीडियाकर फैकल्टी रखे, क्वालिटी एडुकेशन के नाम पर दिखावा किया, प्रायोगिक कक्षाओं की नियमितता के बदले बच्चों को प्रायोगिक परीक्षाओं में झोली भर-भर कर नम्बर दिए, दिलवाए और हमारे कैम्पस से निकलने के बाद 75-80 प्रतिशत छात्र किसी काम के नहीं हो पाए. अपराध बोध कैसा ? आप भी ‘एसोचैम’ के सुर के साथ अपना सुर मिला लेना कि इस देश के 75 प्रतिशत तकनीकी ग्रेजुएट नौकरी पाने के लायक नहीं.
नहीं पता, जो सात प्राइवेट विश्वविद्यालय चल रहे हैं बिहार में, उनमें फैकल्टीज या अन्य पदों पर बहाली के लिये कब वैकेंसी निकली, कैसे बहाली हुई. मानकों के अनुसार फैकल्टीज की संख्या है या नहीं. यह भी नहीं पता कि सरकार उन संस्थानों की अकादमिक गुणवत्ता के सत्यापन के लिये कोई तरीका अपनाती भी है या नहीं. मतलब कि गुणवत्ता जांच का नाटक ही सही. यह नाटक भी होता है या नहीं, नहीं पता. बाकी, मामला जब शिक्षा रूपी माल बेचने का हो तो बाहरी चमक-दमक तो होगी ही. मतलब कि शानदार क्लास रूम, एसी लगा हुआ. सुसज्जित लैब भी होंगे ही. अब, अगर वहां शिक्षा की आत्मा कराह भी रही होगी तो सुनने वाला कौन है ?
सबसे पुराने पटना विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद बिहार में अब तक बीते सौ वर्षों में 12-14 अन्य सरकारी विश्वविद्यालय ही स्थापित हो पाए हैं लेकिन, जल्दी ही प्राइवेट विश्वविद्यालयों की संख्या सरकारी से दोगुनी-चौगुनी हो जाएगी. उनके फलने-फूलने के लिये हर स्तर पर माहौल निर्मित हो रहा है, किया भी जा रहा है. अच्छा है. इस बहाने भी बिहार में पूंजी निवेश आ तो रहा है. कुछ तो हलचल होगी, कुछ तो रोजगार मिलेगा. दिहाड़ी टाइप ही सही. जो ढेर सारे पैसे लेकर घर से बहुत दूर बंगलोर, नागपुर जाते थे पढ़ने, उनमें से बहुत सारे बच्चे अब अपने गांव से बस की घण्टे-दो घण्टे की यात्रा के बाद ही अपने हॉस्टल पहुंच जाएंगे. बाकी…नौकरी ??? हमारे दौर के युगपुरुष तो कहते हैं कि युवाओं को नौकरी मांगने वाला नहीं, नौकरी देने वाला बनना चाहिये. तो, नौकरी की बात क्या करनी … !
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