मेरे पिता की पीढ़ी ने आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव जैसे लेखकों की किताबों से इतिहास की पढ़ाई की. 1950 और 60 के दशक तक जो इतिहास पढाया जाता रहा, उसमें वैदिक काल को लेकर अतिरिक्त आग्रह थे तो मध्यकालीन तथ्यों को लेकर अतिरिक्त दुराग्रह.
इतिहास के अध्याय किसी पीढ़ी के सांस्कृतिक मानस का निर्माण करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. तो उस पीढ़ी ने बाकायदा कोर्स की किताबों में पढ़ा था कि प्राचीन भारत गौरव के किस शिखर पर आरूढ़ था और मध्यकाल में उन गौरवशाली पूर्वजों की संतानों पर कितने अत्याचार हुए.
हमारे देश में इतिहास लेखन की कोई समृद्ध परम्परा नहीं रही है, न पुरातात्विक शोधों की कोई खास उपलब्धियां. हम तो अपने ‘अशोक महान’ को भी जेम्स प्रिंसेप के माध्यम से जान-समझ पाए. उसके अति प्रतापी दादा चंद्रगुप्त मौर्य के बारे में जानने के लिये भी विदेशी मेगास्थनीज की ‘इंडिका’ ही हमारे पास सबसे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक आधार है.
19वीं, 20वीं शताब्दी में मुख्यतः अंग्रेजों ने ही हमें हमारा इतिहास समझाया. जाहिर है, उपनिवेशवाद के उस दौर में उन अंग्रेज इतिहास लेखकों के अपने आग्रह भी थे, जो उन्होंने हम पर लादे.
स्वतंत्रता के बाद भी पाठ्यक्रम के लिये लिखी जा रही इतिहास की किताबों में कहीं न कहीं एकांगी नजरिया ही हावी रहा. उसका असर आम आबादी के इतिहास बोध पर पड़ना ही था.
शिवाजी हीरो थे तो थे, औरंगजेब विलेन था तो था.
इतिहास शिक्षण में संतुलित और सुसंगत विश्लेषण का जो अभाव था, उसने पीढ़ियों के इतिहास बोध को प्रभावित किया. भले ही कई किताबों में लिखा हो, भले ही इसके ऐतिहासिक साक्ष्य हों, लेकिन आम जनमानस के लिये यह स्वीकार करना मुश्किल था कि शिवाजी किसी शहर को लूट भी सकते हैं. उसी तरह, यह समझाना बहुत कठिन था कि औरंगजेब के व्यक्तित्व और उसकी राजनीति के अनेक सकारात्मक पहलू भी थे.
1970 के दशक में, विशेष कर विश्वविद्यालयों में, इतिहास शिक्षण के नए दौर का आग़ाज़ हुआ. परिश्रम साध्य शोध, तथ्यों का वैज्ञानिक अध्ययन और परीक्षण आदि ने प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इतिहास को लेकर एक व्यापक नजरिये को बढावा दिया.
यद्यपि, 70 के दशक तक ऊंची कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में नए दौर और व्यापक सोच के इतिहास लेखकों की किताबों का बोलबाला हो चुका था, लेकिन, निचली कक्षाओं की किताबों के कंटेंट में अधिक बदलाव नहीं आ पाए थे. जो कंटेंट थे वे ऊंची कक्षाओं में पढ़ाए जा रहे इतिहास से अब मेल नहीं खा रहे थे.
मसलन, पृथ्वीराज चौहान कई राज्यों की स्कूली किताबों में अब भी गोरी को लगातार सत्रह बार हरा कर माफ कर रहे थे और अंत में हार कर बन्दी अवस्था में भी गोरी को उसी के दरबार में उसके किये की सजा दे रहे थे. ‘मत चूको चौहान’ का मिथक अभी भी बच्चों के मस्तिष्क में इतिहास के रूप में स्थापित किया जा रहा था. हमारी पीढ़ी के बच्चों ने जब ऊंची कक्षाओं में जा कर पढा कि पृथ्वीराज के अवसान के 13 वर्षों बाद तक गोरी राज करता रहा था तो अजीब सा असमंजस घेर गया था हमें.
एनसीईआरटी की स्कूली किताबों ने इतिहास के पाठ्यक्रम और अध्ययन को एक नई दिशा दी. धीरे-धीरे इसका असर राज्यों की टेक्स्ट बुक कमेटियों पर भी पड़ा और पढ़ाए जाने वाले तथ्यों में अपेक्षाकृत एकरूपता आई.
इतिहास चीज ही ऐसी है जिसमें सुधार की और विवादों की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है. तो, वैज्ञानिक कहे जाने वाले नजरिये से लिखी किताबों पर भी आपत्तियां सामने आने लगीं.
सबसे अधिक आपत्ति यह सामने आई कि ‘तथाकथित’ वैज्ञानिक तरीके से इतिहास लिखने वाले अधिकतर प्रोफेसरान वामपंथी वैचारिक समूहों से आते हैं और इन्होंने जान बूझ कर भारत की प्राचीन गौरव गाथाओं पर मिट्टी डालने की कोशिशें की हैं, कि उनके इतिहास लेखन का उद्देश्य अकादमिक सीमाओं के आगे राजनीतिक परिसरों तक जाता है.
आपत्तियों की अपनी नैसर्गिकता भी थी, क्योंकि पीढ़ियों से स्वीकृत तथ्यों को चुनौतियां मिलने लगी थीं.
दादा और पिता की पीढ़ी के लिये “गुप्तकाल भारत के इतिहास का स्वर्णयुग है, कैसे?” वाले सवाल बहुत महत्वपूर्ण थे और अक्सर परीक्षाओं में पूछे जाते थे, जिनमें अगर अच्छे अंक लाने हैं तो उत्तर लिखने में निष्कर्षतः यह सिद्ध करना होता था कि इन इन कारणों से और इस इस प्रकार से गुप्त युग स्वर्णयुग था.
लेकिन, जब पोता परीक्षाओं की तैयारी करने सामने आया तो उसके सामने सवाल थे…”गुप्तकाल का स्वर्णयुगत्व मिथ या हकीकत…?”
तो…ऐसे बहुत सारे तथ्य, जिन्हें इतिहास मान कर लोग गौरव की अनुभूति से लबालब हो उठते थे, उन्हें मिथ की श्रेणी में डाल कर नए दौर के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास लेखन का दार्शनिक, वैचारिक आधार ही बदल डाला.
रही-सही कसर इतिहास लेखन की ‘सबाल्टर्न थ्योरी’ ने पूरी करनी शुरू की. अब तो पारंपरिक इतिहास दर्शन की चूलें हिलने लगीं और हर वह चीज बहसों के दायरे में आने लगी जिसे बहस से ऊपर मान कर चला जाता था.
इतिहास के अपने अंतर्विरोध होते हैं और इतिहास लेखन की अपनी सीमाएं. तो, विवादों का इतिहास से चोली-दामन का साथ है.
जब आप इतिहास को लेकर बहस करते हैं तो तथ्यों की प्रामाणिकता मायने रखती है लेकिन, जिन मुद्दों पर प्रामाणिक तथ्यों तक पहुंचना असंभव प्राय हो तो वहां बहसें अंतहीन हो जाती हैं और विवाद अक्सर कोलाहल का रूप ले लेते हैं.
प्राचीन भारत के इतिहास को लेकर यही समस्या रही है और इसने पुनरुत्थानवादी शक्तियों को वैज्ञानिक नजरिये पर कई सवाल उठाने का अवसर दिया है. मसलन, आर्य बाहर से आए या यहीं कन्द मूल खा कर बड़े हुए, इसको लेकर इतने सिद्धांत, इतने विचार हैं और हो रहे शोधों के इतने नित नए निष्कर्ष आते रहते हैं कि इनसे सत्य का अचूक संधान कर पाना असंभव-सा लगता है. अयोध्या, द्वारिका आदि भी ऐसे ही अध्याय हैं जिनमें कोई भी निष्कर्ष विवाद रहित नहीं.
1990 के दशक में, जब दुनिया के कई देश वैचारिक बदलावों की अंगड़ाई ले रहे थे, भारत ने भी मंदिर, मंडल और आर्थिक सुधारों के नए कोलाहल भरे दौर में कदम रखा. मंडल की प्रगतिशीलता जल्दी ही प्रतिगामी मूल्यों के दायरों में सिमटने लगी और मंदिर नवउदारवाद का सहयात्री बन गया.
इस कोलाहल में इतिहास ही सबसे अधिक पिसा जिसे सब अपने-अपने राजनीतिक हितों के अनुसार परिभाषित और विश्लेषित करने लगे। सोशल मीडिया की नकारात्मकताओं ने कम पढ़े-लिखे लोगों के इतिहास बोध को विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नतीजा…बहुत कुछ गड्डमड्ड लगने लगा है.
हम अभी ऐसे दौर में हैं जब सत्तासीन शक्तियां हमारी युनिवर्सिटीज में पढ़ाए जाने वाले इतिहास को चुनौती दे रही हैं लेकिन, खुद उनके पास कहने को कुछ ऐसा नहीं है जो उनकी चुनौतियों को अकादमिक आभा दे.
तो…एकेडमिक्स की ऐसी की तैसी. मिथकों के सहारे होने वाली राजनीति जानती है कि एकेडमिक्स उसका विरोधी होगा ही होगा. तो, अकादमिक दुनिया को यथासम्भव विवादित और पंगु बना कर ही सत्ता इतिहास की अपनी व्याख्याओं के साथ आगे बढ़ सकती है.
लेकिन, इतिहास तो वही कहा जाएगा जिसे एकेडमिक्स की दुनिया स्वीकार करेगी. वही इतिहास आने वाली पीढियों को राह दिखाएगी. सत्ता की व्याख्याओं का क्या है…? आज आपकी सत्ता , कल उनकी सत्ता. सत्ता के नैरेटिव्स बदलते भला कितनी देर लगती है ?
- हेमन्त कुमार झा (एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना)
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