पिछले दशक में जब स्कूली शिक्षकों को पारा, नियोजित, शिक्षा मित्र, बाल मित्र आदि अजीबोगरीब विशेषण दे कर पूरे देश में अपमानित करने की परंपरा चल पड़ी थी तो विश्वविद्यालयों के परिसर इससे नितांत असंपृक्त रहे. कुछ तो अर्थशास्त्री बन कर सरकार की आर्थिक विवशताओं का हवाला भी देने लगे थे कि इतनी भारी संख्या में मास्टर लोगों को बहाल करने के बाद अगर वाजिब वेतनमान दिया जाए तो सारे पैसे उसी में खर्च हो जाएंगे और विकास की गाड़ी रुक जाएगी. नीचे फैलता जहर ऊपर चढ़ता ही है.
तो, अब पूरी ठसक के साथ तमाम विश्वविद्यालय स्थायी की जगह अधिकतर अतिथि प्रोफेसरों की ही वैकेंसी निकालने लगे हैं. योग्यता वही, प्रक्रिया वही, लेकिन पदनाम में ‘अतिथि’ का विशेषण. पारिश्रमिक स्थायी की तुलना में एक तिहाई. सेवा का स्थायित्व तो भूल ही जाइये. अब, अतिथि शब्द की प्रकृति में ही अस्थायित्व समाहित है तो कोई कैसे स्थायी हो.
आज दिल्ली विश्वविद्यालय अशांत है. वहां लगभग 5 हजार एडहॉक शिक्षकों को एक लेटर से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. वर्षों से पढ़ाते आ रहे लोगों के लिये कॉलेज के दरवाजे बंद हो गए. कुछ तो दस-पंद्रह वर्षों से लगातार एडहॉक ही पढ़ाते आ रहे थे. अब वे वीसी का दरवाजा पीट रहे हैं.
अगर सरकारें स्कूली संवर्ग के शिक्षकों का मान-मर्दन कर सकती हैं, उन्हें उचित के आधे से भी कम पर काम करने को विवश कर सकती हैं तो विश्वविद्यालय संवर्ग के शिक्षकों की चुटिया उखाड़ने में उन्हें कितनी हिचक होगी.
आप समझते रहिये खुद को ज्ञान का प्रकाश स्तंभ, सरकारों को आपकी जरूरत नही. वे प्राइवेट विश्वविद्यालयों के लिये राह आसान करती जा रही हैं, स्वायत्तता की आड़ में विश्वविद्यालयों के कारपोरेटीकरण की योजनाओं में लगी हैं. समय बीतने दीजिये, परिसरों का मंजर बदल जाने वाला है.
जो पैसा दे सकता है वही पढ़ेगा. स्वायत्त संस्थान अपनी फीस खुद निर्धारित कर सकते हैं और, जाहिर है, इसे बेतहाशा बढा कर ही वे अपनी स्वायत्तता का जश्न मना सकते हैं जैसे, पटना वीमेंस कॉलेज. स्वायत्तता मिली नहीं कि फीस हद से ज्यादा बढा दी गई. त्राहि-त्राहि मच गई.
जैसे कि होता है अक्सर. हर त्राहि-त्राहि के बाद एक मुर्दा शांति छाती है. तो, पटना वीमेंस कॉलेज में भी ऐसा ही हुआ. अब शांति है. लोग बाग भी शांत हैं और मान कर चल रहे हैं कि यहां अपनी बेटियों को पढ़ाना है तो जो फीस स्ट्रक्चर है उसे मानना होगा. त्राहि-त्राहि दिल्ली विश्वविद्यालय में भी मची हुई है आजकल. आखिर, हजारों एडहॉक शिक्षकों की रोजी-रोटी का सवाल है.
अब, ऐसा है दिल्ली का मामला है. कहते हैं, दिल्ली में देश का दिल है तो, मामला जल्दी भी सुलझ सकता है. यह भी हो सकता है कि सरकार मान जाए और एडहॉक शिक्षकों को फिर से काम पर वापस ले ले. लेकिन, इससे क्या होगा ? क्या उच्च शिक्षा तंत्र में आसन्न बदलावों के प्रति सत्ता संरचना की सोच बदल जाएगी ?
जिस रास्ते देश चल पड़ा है, उसमें दीवार पर लिखी इबारतों में साफ-साफ पढा जा सकता है कि स्थायी नियुक्तियों के दिन लद रहे हैं. जैसे, पेंशन के दिन लद गए और रो धो कर बाबू लोगों ने इसे स्वीकार भी कर लिया. लोकतांत्रिक सत्ता में जनाकांक्षाओं का अक्स होता है, लेकिन, अब का लोकतंत्र ऐसा नहीं है. यह जनता की आकांक्षाओं के प्रति उत्तरदायी नहीं. लोकतांत्रिक सत्ता की प्राथमिकताएं अब कारपोरेट की गलियों से हो कर गुजरती हैं.
नरेंद्र मोदी ने तो साबित भी कर दिया कि लोकतंत्र को भेड़ तंत्र में कैसे बदला जा सकता है और कैसे जनता की आकांक्षाओं को भौतिक नहीं, रूहानी राह पकड़ाई जा सकती है, कैसे पूरे देश को कारपोरेट के हवाले करने पर भी जनता के द्वारा अपना और अपनी सरकार का जयकारा करवाया जा सकता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में अपने नारों से आसमान सिर पर उठा रहे लोगों से पूछा जाए कि बीते आम चुनाव में आपने किसे वोट दिया और क्यों वोट दिया ? ‘… हर जोर-जुलुम के टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है…’ टाइप के गगनभेदी शोर के पीछे छिपी हकीकत सामने आ जाएगी.
चरित्र का दोहरापन हमारी पीढ़ी के अधिकतर पढ़े-लिखे लोगों का स्पेशल फीचर है. सड़कों पर प्रदर्शन करते, पुलिस की लाठियां खाते देश भर के पारा टीचरों, नियोजित टीचरों के प्रति जब सहानुभूति और संघर्ष का कोई जज्बा नहीं जगा तो अब अपने घर में लगी आग बुझाने के लिये पैर पटकने से क्या हासिल होगा. हितों के अलग-अलग द्वीपों पर टुकड़ों में लड़ी जा रही लड़ाइयां किस तरह के नतीजे दे सकती हैं ?
फौरी राहत मिल सकती है, लेकिन यह महज़ झुनझुना साबित होगा. कारपोरेटवाद की प्रकृति ही शिक्षकों की गरिमा और उनके अधिकारों के खिलाफ है. आने वाले वर्ष इससे अधिक दर्द देने वाले साबित हो सकते हैं.
- हेमन्त कुमार झा (एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना)
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