फ्रांस में सरकार की पेंशन सुधार की योजनाओं के खिलाफ आंदोलन इतना आगे बढ़ गया है कि जन जीवन ठहर-सा गया है. शिक्षा संस्थान बंद हैं और परिवहन प्रणाली ठप है.
बीते कई महीनों से फ्रांस में आंदोलनों का सिलसिला चल रहा है. मुद्दे कई हैं, लेकिन सभी के सूत्र नवउदारवादी व्यवस्था के विरोध से जुड़ते हैं. वही व्यवस्था, जो भारत में तेजी से आकार ले रही है लेकिन विरोध के नाम पर यहां सन्नाटा है. इस सन्नाटे को तोड़ती हैं जयजयकार की वे आवाजें, जो वही लगा रहे हैं जिनके खिलाफ व्यवस्था साजिशें रच रही है.
फ्रांस के मुकाबले भारत बेहद गरीब देश है. दोनों देशों की प्रति व्यक्ति आय के स्तर में कोई तुलना नहीं. जाहिर है, फ्रांस के लोगों का जीवन स्तर भारतीयों के मुकाबले बहुत ऊंचा है. पेंशन की जरूरत फ्रांस के नौकरीपेशा वर्ग से अधिक भारत के कामकाजी वर्ग को है लेकिन, पेंशन के मुद्दे पर फ्रांस में बवाल है, भारत में सन्नाटा.
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भारतीय नौकरी पेशा वर्ग से पेंशन की सुविधा छीन ली. यह वही वर्ग था जिसने अपने कंधों पर लाद कर अटल जी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया था. पुरस्कार में उन्हें पेंशन का खात्मा मिला. इस निर्णय के विरोध में थोड़ी चिल्ल-पों मची, फिर सब सामान्य हो गया. रो धो कर बाबू लोग फिर अपने काम पर लगे जबकि मीडिया उन खर्चों के आंकड़े दिखाता रहा जो पेंशन के नाम पर सरकार को उठाने पड़ते थे. मीडिया ने अटल जी के पेंशन सुधार को अप्रत्यक्ष समर्थन दिया जबकि, फ्रांस के मीडिया का बड़ा तबका पेंशन सुधार की योजनाओं का विरोध कर रहा है.
ये ‘सुधार’ और ‘उदार’ जैसे शब्द आजकल बहुत भ्रम फैला रहे हैं. अपने मौलिक अर्थों में ये शब्द सकारात्मकता का संकेत देते हैं लेकिन जब नवउदारवादी व्यवस्थाएं इन शब्दों का प्रयोग करती हैं तो मामला पूरी तरह गरीब विरोधी, कामकाजी वर्ग विरोधी साबित होता है. तो, अपनी ‘सुधार योजनाओं’ को लेकर फ्रांस सहित अनेक यूरोपीय देशों की सरकारों को जनता के व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन भारत में सरकार के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं है.
आर्थिक ‘सुधार’ के नाम पर भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को औने-पौने दामों पर कारपोरेट प्रभुओं के हवाले करती जा रही है, श्रम ‘सुधार’ के नाम पर कामगार तबकों के अधिकारों का हनन करती जा रही है और भारतीय जनता अपनी सरकार की जयजयकार में लगी है. इस जय जय के मूल में कई मुद्दे हैं जो आर्थिक मुद्दों को नेपथ्य में धकेल देते हैं और सत्ता संरचना के कामगार वर्ग विरोधी कदमों को ऊर्जा देते हैं.
सत्ता पर काबिज तत्व ऐसे मुद्दों को हवा देते हैं जिनमें जनता की भावनाओं को भुनाया जा सके और अपनी जयजयकार करवाई जा सके. मीडिया इस प्रक्रिया में सरकार को पूरा सहयोग देता है. जयकारे के इस शोर गुल में जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे कहीं गुम हो जाते हैं और सत्ता-कारपोरेट गठजोड़ का काम आसान हो जाता है.
फ्रांस के लोग जागरूक हैं. वे अपने हितों के लिये सड़कों पर उतर चुके हैं और पूरी दुनिया को नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होने का संदेश दे रहे हैं. भारत के लोगों को अपने हितों से जुड़े मुद्दों से अधिक मतलब नहीं. देश की अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिरती जा रही है, बेरोजगारी नियंत्रण के बाहर हो चुकी है, बैंक बर्बादी के कगार पर हैं, शिक्षा कारपोरेट के हवाले की जा रही है, रेलवे टुकड़ों टुकड़ों में बिकने की प्रतीक्षा में है, लेकिन, भारत में ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ के पवित्र उच्चारणों से वातावरण गुंजायमान है.
पेंशन छीन लिये जाने के बावजूद भारतीय कामकाजी वर्ग में सक्रिय विरोध के कोई स्पष्ट लक्षण नजर नहीं आए. टुकड़ों-टुकड़ों में विरोध हुआ, नारे लगे, फिर सब कुछ सामान्य. जिनकी पेंशन छीनी गई वे छीनने वालों को राजनीतिक रूप से मजबूती देते रहे.
वैचारिक रूप से हीन और खोखली पीढ़ी अपना अहित तो करती ही है, अपने बच्चों की पीढ़ी के लिये अभिशाप छोड़ कर जाती है. निस्संदेह, वर्त्तमान पीढ़ी के मनोविज्ञान और उसकी राजनीतिक अभिव्यक्तियों पर भविष्य में बहुत सारे शोध होंगे. इतिहास ने ऐसी आत्महंता पीढ़ी को शायद ही कभी देखा होगा. आगे भी नहीं देखेगा, क्योंकि ऐसी विचारहीनता युगों-युगों में कभी एक बार किसी पीढ़ी में सामने आती है. भावी कई पीढियां तो अपने बाप-दादाओं के द्वारा जमा की गई काई को साफ करने में ही खप जाएंगी.
- हेमन्त कुमार झा (एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना)
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