कन्हैया कुमार (पूर्व छात्र नेता, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय)
जेएनयू की फ़ीस बढ़ाकर और लोन लेकर पढ़ने का मॉडल सामने रखकर सरकार ने एक बार फिर साफ़ कर दिया है कि विकास की उसकी परिभाषा में हमारे गांव-कस्बों के लोग शामिल ही नहीं हैं. जिन किसान-मजदूरों के टैक्स के पैसे से विश्वविद्यालय बना, उनके ही बच्चों को बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा तो देश के युवा चुप बैठेंगे, ऐसा हो ही नहीं सकता.
सरकार अभी सब कुछ बेच देने के मूड में है. देश के लोगों के टैक्स के पैसे से बने सरकारी उपागम लगातार निजी क्षेत्र के हवाले किए जा रहे हैं. हर साल दिल खोलकर अमीरों के करोड़ों अरबों रूपये के लोन माफ़ करने वाली ये सरकार सरकारी शिक्षण संस्थानों के बजट में लगातार कटौती कर रही है और शिक्षा को बाज़ार के हवाले कर रही है. सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छुपी नहीं है और निजी स्कूल देश की बहुसंख्यक आबादी के बजट से बाहर हो चुके हैं. दम तोड़ते इन्ही सरकारी स्कूलों से पढ़कर अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा पास करके जब गरीबों के बच्चे देश के सर्वश्रेठ विश्वविद्यालय में पहुच रहे हैं तो ये बात भी देश के करोडपति सांसदों और सरकार के राग-दरबारियों को अखर रही है. शिक्षा के जेएनयू मॉडल पर लगातार हमला इसलिए किया जा रहा है ताकि जिओ यूनिवर्सिटी के मॉडल को देश में स्थापित किया जा सके जहाँ सिर्फ अमीरों के बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें. फूको ने कहा है कि ‘नॉलेज इज पॉवर.’ देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके रखने वाले लोग गरीबों को ज्ञान प्राप्ति से भी दूर कर देना चाहते हैं और इसीलिए इन्हें जेएनयू मॉडल से इतनी नफरत है.
अजीब बात है कि देश के प्रधानमंत्री लगातार 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने की बात कह रहे हैं लेकिन 5000 बच्चों को पढ़ाने के लिए देश की सरकार के पास पैसा नहीं है. सरकार एक मूर्ति पर 3 हज़ार करोड़ रुपये खर्च कर सकती है, नेताओं के लिए 200 करोड़ के प्राइवेट जेट खरीद सकती है, लेकिन विश्वविद्यालयों के लिए उसके पास बजट नहीं हैं. विश्वविद्यालय कोई मॉल नहीं है जहां आप 50% डिस्काउंट का बोर्ड लटका दें. एक प्रगतिशील समाज को शिक्षा को निवेश के नज़रिये से देखना चाहिए न कि खर्च के.
असल में मामला पैसे का है ही नहीं, बल्कि ग़रीब किसान-मज़दूरों के बच्चों और लड़कियों को कैंपसों से दूर रखने की साज़िश का है. सरकार ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा दिया और काम किया ‘फ़ीस बढ़ाओ, बेटी हटाओ’ का. जिस जेएनयू में लगातार कई सालों से लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक रही है, वहां फ़ीस बढ़ने से न जाने कितनी लड़कियों के बेहतर कल के सपने चकनाचूर हो गए हैं. पिछले कुछ सालों में प्रवेश परीक्षा का मॉडल बदलकर वंचित समुदायों के बच्चों को जेएनयू से दूर रखने की तमाम साजिशों के बावजूद आज भी जेएनयू में 40% विद्यार्थी उन परिवारों से आते हैं जिनकी मासिक आय 12000 रु से कम है. सरकार फीस बढाकर इन तबकों से आने वाले विद्यार्थियों के हौसलों और उम्मीदों को तोड़ देना चाहती है.
सत्ता में काबिज ताकतों ने हमेशा से वंचित लोगों को ज्ञान से दूर रखने के लिए तमाम तरह के षड़यंत्र रचें हैं. द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा इसलिए कटवा दिया ताकि राजा का बेटा अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बना रहे. आज भी सरकार ज्ञान पर मुट्ठी भर लोगों का कब्ज़ा बनाए रखना चाहती है, क्योंकि ज्ञान में वो ताकत है जिसके बलबूते गरीब लोगों के बच्चे अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं. फ़ीस इतनी अधिक हो कि ग़रीब का बच्चा पीएचडी करके किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर न बने. वह या तो दसवी पास करके ढाबा पर काम करे या बीए करके घर-घर जाकर सामान डिलीवरी करे. अमीर के बच्चे निश्चिंत होकर पढ़ें और ग़रीब के बच्चे पार्ट टाइम जॉब करके फ़ीस चुकाएं, यह असमानता बढ़ाने वाली बात है या नहीं ?
सरकार चाहती है कि किसानों को उनकी फसल पर सब्सिडी न मिले लेकिन उसी किसान की फसल पर बने खाने पर संसद की कैंटीन में देश को करोडपति सांसदों को सब्सिडी मिलती रहनी चाहिए. यूनिवर्सिटी में गरीब बच्चों को रहने के लिए फ्री में हॉस्टल न मिले लेकिन सरकार से लाखों रूपये तन्खाव्ह पाने वाले इन्ही करोडपति सांसदों को लुटियंस में फ्री में रहने के लिए बंगला मिलता रहना चाहिए. राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले अरबपति उद्योगपतिओं के बैंक के लोन माफ़ हो जाने चाहिए और गरीब बच्चों को लोन के जाल में फसने पर मजबूर किया जाना चाहिए.
सरकार युवाओं की ऐसी पीढ़ी बनाना चाहती है जो लोन लेकर पढ़ाई करे और बाद में कर्ज़ चुकाने में ही उसकी हालत इतनी ज़्यादा ख़राब हो जाए कि उसके पास बुनियादी सवाल उठाने का न ही समय हो न ही ताकत. साज़िश करके जेएनयू के बारे में ग़लत बातें फैलाई जा रही हैं. जैसे, यह कहा जा रहा है कि यहां हॉस्टल फ़ीस बस 10 रुपये महीना है, जबकि सच तो यह है कि यहां के हॉस्टल में विद्यार्थी पहले से ही लगभग तीन हज़ार रुपये महीने मेस बिल देते आए हैं. यही नहीं, जो लोग जेएनयू में पांच साल में पीएचडी करने की बात कहते हैं, उन्हें असल में यह पूछना चाहिए कि यूपी-बिहार के सरकारी कॉलेजों में आज भी तीन साल का बीए पांच साल में क्यों हो रहा है ? लेकिन उन्हें दिक्कत इस बात से है कि सब्जी का ठेला लगाने वाले का बच्चा रशियन या फ्रेंच भाषा पढके टूरिज्म के क्षेत्र में अपनी कंपनी क्यूं खोल रहा है, या फिर अफ्रीकन या लेटिन अमेरिकन स्टडीज में पीएचडी करके फोरेन पॉलिसी एक्सपर्ट कैसे बन रहा है ?
आज उन तमाम लोगों को सामने आकर जेएनयू के संघर्ष में शामिल होना चाहिए जो सरकारी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई करने के बाद सरकार को इनकम टैक्स और जीएसटी दोनों दे रहे हैं. अगर आज वे चुप रहे तो कल उनके बच्चों को लोन लेकर या पार्ट टाइम जॉब करके पढ़ाई करनी पड़ेगी. पूरे देश में सरकारी कॉलेजों की फीस लगातार बढाई जा रही है और जेएनयू ने हर बार इसके खिलाफ आवाज़ उठाई है. आज जेएनयू को बचाने का संघर्ष किसी एक विश्वविद्यालय को बचाने का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह समानता और न्याय के उन मूल्यों को बचाने का संघर्ष है जिनकी बुनियाद पर हमारे लोकतंत्र की स्थापना की गई है. याद रखिए, आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छा जाएगा.
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