भारतीय पुलिस गुंडों का सबसे संगठित गिरोह है – जस्टिस ए. एन. मुल्ला, इलाहाबाद हाईकोर्ट (1974)
भारतीय पुलिस के चरित्र पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी सब कुछ बयां कर देती है. भारतीय पुलिस बेहद नृशंस और धोखेधड़ी से भरी हुई गुंडों का समूह है, जिसका काम अपने धन्नासेठ आकाओं के हुक्म पर गरीब, असहायों पर नृशंस हमला करना होता है, उसकी हत्या करनी होती है. पुलिसों केवल आम आदमी को पीटता है. उस आम आदमी को कुत्ते की तरह पीटता है. छत से टांग कर पीटता है. पिलास से नाखून खींच कर पीटता है. उसके गुदा मार्ग में पेट्रोल डाल कर पीटता है. उस आम आदमी को बिजली का करेंट लगा-लगा कर तब तक पीटना चाहिए जब तक वह मौत को गले न लगा ले. यह नृशंस-क्रूर पुलिस अपनी नृशंसता को दिखाने के लिए उस आम आदमी के बहू-बेटियों को उठाकर सामूहिक बलात्कार करता है, उसके स्तनों में करेंट लगाता है, उसका अंग-भंग कर यातनाओं का सिलसिला शुरू करता है. उनकी योनियों में पत्थर भरता है.
छोटी-छोटी बच्चियों को उठाकर थाने के लाॅकअप में डालकर अपनी हवस पूर्ति करने वाला यह नृशंस पुलिया तंत्र के नृशंसता की पोल तब खुल जाता है जब दिल्ली में कोर्ट परिसर के अंदर वकीलों द्वारा पीटा जाता है. इसकी नृशंसता की पोल तब खुल जाती है जब विधायक-सांसद-मंत्री वगैरह के सामने उसके जूते साफ करता है, उसकी लताड़ खाता है, फिर भी उसकी बलाईयां लेने, उसके जूते चाटने से बाज नहीं आता है.
आम आदमी के साथ नृशंसता का घिनौना खेल खेलने वाला यह पुलिस का चरित्र तब भी बेनकाब हो जाता है, जब आम आदमी के ऊपर जुल्म ढ़ाने के कारण वह माओवादियों के हाथों मौत के घाट उतार डाला जाता है और तब उसका रोता-बिलखता परिवार सरकार के सामने हाथ पसारता है, लेकिन उसे वहां से भी दुत्कार दिया जाता है क्योंकि सरकारी अमलों – जो असल में दलाल पूंजीपतियों का तलबा चाटता है – अब उसका परिवार कोई महत्व नहीं रखता है. असल में गुंडों का भविष्य ही यही होता है. वह आम आदमी के बीच भी घृणा की दृष्टि से देखा जाता है और सरकारी अमला के लिए अब उसका कोई वजूद ही नहीं होता है.
दक्षिण भारत की एक फिल्म में दिखाया गया है कि पुलिस अपराध रोकने के लिए नहीं, बल्कि अपराध पैदा करने और समाज में अशांति लाने के लिए बनाई जाती है क्योंकि अपराधी और अशांत समाज ही पूजीपतियों के शोषण के लिए मुफीद जगह मुहैय्या कराती है. अपराधी और अशांत समाज टुकड़ों में बंटी होती है, उसका संगठित स्वरूप नहीं बन पाता और जब संगठित समूह ही नहीं होता तो संगठित प्रतिरोध भी नहीं हो पाता और वह उस चंद पूंजीपतियों के मुनाफा की चक्की अनवरत् चलती रहती है.
अगर किसी कारण समाज का कोई हिस्सा संगठित होकर किसी भी रूप में प्रतिरोध करने की कोशिश करती है, तब पूंजीपतियों के ये भाड़े के गुंडे पुलिस अपनी नृशंसता पर उतर आती है. उस संगठित समूह या समूहों को नष्ठ कर डालने का हर संभव यत्न करती है. बेहिसाब क्रूर दमन का दौर चलाती है, बलात्कारों और हत्याओं का क्रूर दौर शुरू हो जाता है. उसकी क्रूरता तब तक चलती है जब तक कि वह संगठित समूह को पूरी तरह खत्म नहीं हो जाता है.
परन्तु कई प्रतिरोध समूह पुलिसिया क्रूरता के वाबजूद अपना प्रतिरोध खत्म नहीं होने देती है. उसके प्रतिरोध के स्तर भी उसी तरह दृढ़ होता जाता है, जिस हिसाब से दमन चक्र चलता है. वह भी जवाबी पलटबार करने में माहिर होने लगता है. ऐसा ही एक प्रतिरोध समूह है माओवादियों का दृढ़ प्रतिरोध. भारत सरकार और उसके पालतू सिपाहियों के हजारों तरह के क्रूर दमन के बाद भी जब वह माओवादियों के प्रतिरोध को रोक नहीं पा रहा है, जो पूंजीपतियों के लूट के राह में रोड़ा बन गया है, तब यह सरकार किसी भी प्रतिरोध को चाहे वह कितना ही कानूनी और संवैधानिक क्यों न हो, उसे माओवादियों का नाम देकर खत्म कर डालने का यत्न कर रही है. इसके लिए वह हर प्रतिगतिशील व्यक्ति, यह व्यक्तियों के समूहों को सीधे मौत के घात उतार रही है.
प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार लिखते हैं कि ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब बस्तर गए तो उन्होंने आदिवासियों को सलाह दी कि वह हिंसा का रास्ता छोड़कर लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी लड़ाई लड़ें. नीचे के वीडियो में देखिए, आदिवासी स्त्री-पुरुष शांतिप्रिय रैली कर रहे हैं और पुलिस उन पर बर्बर हमला कर रही है. यह आदिवासी अपने गांव में सीआरपीएफ कैंप खोलने का विरोध कर रहे हैं.
‘हर आदिवासी जानता है कि उसके गांव में कैंप खोलने का मतलब है सिपाहियों द्वारा महिलाओं से बलात्कार किया जाएगा. नौजवानों की हत्या की जायेंगी. हम में से कौन नहीं जानता है कि जंगलों में सुरक्षाबलों को आदिवासियों की रक्षा के लिए नहीं भेजा गया है. हम में से कौन यह मानता है कि जंगलों में सुरक्षा बलों को जंगलों की रक्षा करने भेजा गया है ? हम सब जानते हैं कि जंगलों में सुरक्षा बल खदानों पर कब्जा करने गए हैं ताकि उसे अंबानी-अदानी जैसे धन-पशुओं को सौंपा जा सके.
‘जो आदिवासी जंगलों को बचा रहे हैं, जो आदिवासी समाज पेड़ों को बचा रहा है, जो आदिवासी पर्यावरण को बचा रहे हैं, आपके बच्चों की सांस के लिए ऑक्सीजन को बचा रहे हैं, जो आपके बच्चों के भविष्य को बचा रहे हैं, उनके ऊपर पुलिस और सुरक्षा बल कैसा बर्बर हमला कर रहे हैं, अपनी आंखों से देखिए और एक क्षण के लिये मंदिर मस्जिद की लड़ाई से अलग हट कर अपने बच्चों की जिंदगी के बारे में सोचिए.
‘आज ही मूर्खता छोड़ दीजिए और इन आदिवासियों का साथ दीजिए. यह वीडियो आज का छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के पोटाली गांव का है. इस पूरे संघर्ष का नेतृत्व कवासी हिड़मे नाम की एक आदिवासी युवती कर रही है. पुलिस इस युवती को मारना चाहती है और उसे खोज रही है.’
वहीं ऐसी दुर्दांत हत्यारी पुलिस पर जब पीड़ित समूह – मसलन वकीलों का समूह – इस पुलिस पर जब हमला करता है तब यही हत्यारी पुलिस, जिसे आम जनता पर जुल्म ढ़ाने और हत्या-बलात्कार जैसी क्रूरता करने में मजा आता है, वह न्याय और इंसाफ की मांग को लेकर प्रदर्शन करने लगता है. परन्तु हत्यारों और बलात्कारियों के क्रूर गिरोह, जिसने आम आदमी का विश्वास खो दिया है, आम आदमी उससे घृणा की हद तक घृणा करती है, अपने ही बुने जाल में फंस जाता है.
बेहतर हो अब भी पुलिस को अपने चरित्र में बदलाव लाना चाहिए, वरना वह दिन दूर नहीं जब आम आदमी की घृणा का विशाल समुद्र उसे तहस-नहस कर डाले, क्योंकि आम आदमी ही शक्ति का स्त्रोत है, और जब कोई संस्था आम आदमी का ही विश्वास खो दे, आम आदमी उससे घृणा करने लगे, तब उस संस्था को खत्म होते देर नही लगती है. तब वह खुद अपने ही भार से ढ़हने लगता है.
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