Home कविताएं 9.15 की बोरिवली चर्चगेट लोकल

9.15 की बोरिवली चर्चगेट लोकल

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अक्सर मिलता हूं उनसे
वे जो हाथों में रंगों के विभिन्न शेड्स के अल्बम लिए
दौड़ कर चढ़ते हैं ट्रेन में बिना टिकट

वैसे उनकी फटी हुई जीन्स के दाहिने पॉकेट में
एक्सपायरी डेट का मंथली पास
अब तक अपनी जगह बनाए हुए है

मुंबई लोकल में टिकट चेकर नहीं होता है
न ही लोकल के स्टेशन पर

एक अलिखित समझौते के तहत
मुसाफ़िर चलते रहते हैं
ट्रेनें भी और स्टेशन भी

मान लो कि ए बी सी एक त्रिभुज है का
इससे बेहतरीन मुज़ाहिरा आपको दुनिया में
कहीं भी नहीं दिखाई देगा

ख़ैर
इन सबसे परे
मेरी नज़र सामने बैठे
रंगीन अल्बम पलटते हुए
उन हाथों की बदरंग नाखूनों पर जातीं हैं

जरखेज ज़मीन पर
बरसात की ज़रूरत
इससे ज़्यादा शिद्दत से
कभी नहीं महसूस हुई है मुझे

सोचते हुए मुस्कुरा देता हूं

मेरे सपनों के घर की दीवारों पर
कौन सा रंग
किस शेड में फबेगा और क्यों
इसके बारे उसे पूरी जानकारी है
जिसके पास अपना कोई घर नहीं है

वैसे
मेरे पास भी नहीं है कोई घर
चार दीवारें
एक छत
और एक फ़र्श के सिवा

त्रिभुज जब चतुर्भुज बन जाता है
एक कोण को तोड़ मरोड़ कर
ज़रूरी नहीं है कि वह चौकोर सा
दिखने वाला बक्सा घर बन जाए

वह बक्सा
किसी जादूगर की पेटी भी हो सकता है
जिसके अंदर से कभी निकल सकता है
कोई कबूतर
या कोई कटा हुआ हाथ

जो भी हो
मुझे उन एनेमिक नाखूनों में
ताजे खून सा बहने की प्रचंड इच्छा हुई

तेज गति से चलते हुए ट्रेन की तरह
निर्विकार पटरियों पर

थर्राहट पटरियों की
इंजन के गुर्राहट के साथ घुल कर
ताज बैंक स्टैंड के पीछे बहते हुए समुद्र का
पथरीले तटबंधों पर सर पटकने की आवाज़ से ज़्यादा
और कुछ भी नहीं है
जानता हूं

जैसे बहुत कुछ और भी जानता हूं
जिसे कहने के लिए
कोई भाषा पर्याप्त नहीं है

ये रंग कैसा रहेगा
अचानक पूछता हूं उससे
काले चौकोर में क़ैद
सफ़ेद रंग के उपर
मेरी अपेक्षाकृत गुलाबी नाखून को रखते हुए
और ख़ुशी से उछल पड़ता है वो

क्या रंग चुना है आपने सर
दाद देनी होगी आपकी रुचि की
आज के दिन कहां मिलते हैं
ऐसे रुचि संपन्न लोग !

मैंने उस दिन
मुस्कुराते हुए चर्चगेट से पहले ही कहीं और
उतरने का निर्णय लिया था

क्योंकि
मेरे जैसा रुचिबोध का कोई भी व्यक्ति
उस ट्रेन में नहीं था.

  • सुब्रतो चटर्जी

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