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8 मार्च पर विशेष : सोफ़ी शोल – ‘व्हाइट रोज़’ नामक नाज़ी विरोधी भूमिगत प्रतिरोध समूह की वीर नायिका

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8 मार्च पर विशेष : सोफ़ी शोल - ‘व्हाइट रोज़’ नामक नाज़ी विरोधी भूमिगत प्रतिरोध समूह की वीर नायिका

“हमारी तरह तुम भी जानते हो कि युद्ध हारा जा चुका है. लेकिन तुम अपनी कायरता से इसे स्वीकार नहीं करना चाहते.’ तीनों को भारी राष्ट्रद्रोह का दोषी घोषित कर जज रोलैण्ड फ़्रेसलर ने मौत की सज़ा दी. उसी दिन तीनों को गिलोटिन द्वारा गर्दन काटकर मृत्युदण्ड दे दिया गया, जिसका तीनों ने बहादुरी से सामना किया. गिलोटिन का आरा जब गर्दन पर गिरने ही वाला था तब सोफ़ी ने कहा ‘सूर्य अभी भी प्रकाशमान है’ और हान्स ने नारा लगाया ‘आज़ादी ज़िन्दाबाद’.

जर्मन नाजियों ने लाखों की तादाद में यहूदियों का जनसंहार तो किया ही था, साथ ही 1933 से 1945 के दौरान हिटलर के फासिस्ट शासन का प्रतिरोध करते हुए 77 हज़ार अन्य जर्मन नागरिकों को भी कोर्ट मार्शल और नाज़ियों की तथाकथित विशेष या ‘जन अदालतों’ द्वारा मौत की सज़ा दी गयी थी. इनमें से ज़्यादातर को हम नहीं जानते, लेकिन म्यूनिख़ विश्वविद्यालय के छात्रों के ‘व्हाइट रोज़’ नामक नाज़ी विरोधी भूमिगत प्रतिरोध समूह और उसकी अप्रतिम वीर नायिका सोफ़ी शोल और उसके सहयोद्धाओं के संघर्ष और बलिदान से दुनिया परिचित है. जीवविज्ञान और दर्शन की 21 वर्षीय छात्र सोफ़ी और उसके भाई हान्स द्वारा विश्विद्यालय में हिटलर और युद्ध के खि़लाफ़ पर्चे बांटने, गिरफ़्तारी, लम्बी तफ़्तीश, मुक़दमे और तीसरे साथी क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट सहित मौत की सज़ा की कहानी है 2005 की जर्मन फ़िल्म- ‘सोफ़ी शोल – द फ़ाइनल डेज़’ में जो न्याय के लिए उनके बहादुर संघर्ष की भी गाथा दर्शाती है. यह फ़िल्म गेस्टापो और नाज़ी अदालत की फ़ाइलों में इस मामले की पूछताछ और मुक़दमे के रिकॉर्ड के आधार पर इस सोफ़ी शोल और साथियों द्वारा फासिस्टों के विरुद्ध जर्मन जनता को जगाने के प्रयास की इस शौर्यपूर्ण ऐतिहासिक घटना का चित्रण बहुत सुन्दर ढंग से करती है.




सोफ़ी और उसके भाई हान्स की तरह ‘व्हाइट रोज़’ ग्रुप के अधिकांश नौजवान सदस्य जनवादी, उदार, मानवतावादी परिवारों से आये थे, लेकिन इन्होंने भी शुरू में जोश के साथ हिटलर के नाज़ी युवा संगठन में काम किया था. उस समय के जर्मन समाज का वर्णन इस समूह के ही एक जीवित बचे सदस्य ने ऐसे किया था, “हर चीज़ पर हुकूमत का नियन्त्रण था – मीडिया, शस्त्र, पुलिस, सेना, अदालत, संचार, यात्रा, हर स्तर की शिक्षा, सब सांस्कृतिक-धार्मिक संगठन. कम उम्र से ही नाज़ी विचार सिखाने का काम शुरू हो जाता था, और ‘हिटलर युवा’ के ज़रिये पूर्ण दिमाग़ी जकड़ हासिल करने के लक्ष्य तक जारी रहता था.” लेकिन मेडिकल छात्र हान्स और दो अन्य दोस्तों ने सोवियत संघ में पूर्वी मोर्चे पर फ़ौजी अस्पताल में काम करते हुए युद्ध की असली विभीषिका को देखा था और उन्हें पोलैण्ड और सोवियत संघ आदि में किये गये यहूदियों तथा अन्यों के निर्मम जनसंहार की ख़बरें भी पता चली थीं. इस सबने उन्हें युद्ध और नाज़ीवाद के खि़लाफ़ जर्मन जनता में प्रचार करने और प्रतिरोध संगठित करने की प्रेरणा दी.

जून, 1942 में उन्होंने पर्चे छापकर और दीवारों पर लिखकर अपना काम शुरू किया. ये लोग पर्चों को हाथ से चलने वाली साइक्लोस्टाइल मशीन पर छापते थे और डाक से म्यूनिख़ और उसके आस-पास के क्षेत्र में छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों को भेजकर, पब्लिक टेलीफ़ोन बूथ और ऐसी जगह किताबों में रखकर, आदि तरीक़ों से बांटते थे. इनमें वे नाज़ी शासन के अपराधों और अत्याचारों के बारे में बताते थे और प्रतिरोध की अपील करते थे. अपने दूसरे पर्चे में इन्होंने यहूदियों पर भयंकर अत्याचार-उत्पीड़न की निन्दा की थी, “पोलैण्ड पर विजय से 3 लाख यहूदियों को पाशविक ढंग से क़त्ल किया गया है. जर्मन लोगों की मूर्ख, बेवक़ूफ़ाना नींद फासीवादियों के जुर्मों को प्रोत्साहन दे रही है. हममें से हरेक इस जुर्म के दोष से मुक्त रहना चाहता है, अपने ज़मीर में ज़रा भी चुभन महसूस किये बगै़र चैन से अपना जीवन जी रहा है लेकिन हम इस गुनाह से दोषमुक्त नहीं हो सकते; हम सब दोषी हैं, दोषी हैं, दोषी हैं !”




जनवरी, 1943 में ‘व्हाइट रोज़’ के पांचवें पर्चे ‘जर्मन जनता से अपील’ की 6 हज़ार प्रतियां छापी गयीं और इन्हें समूह के सदस्यों-समर्थकों ने म्यूनिख़ ही नहीं पूरे दक्षिण जर्मनी के शहरों में वितरित किया. गेस्टापो द्वारा पूछताछ के दौरान सोफ़ी ने बाद में बताया था कि 1942 की गर्मियों से ही समूह का मक़सद व्यापक जर्मन जनता तक पहुंचना था, इसलिए इस पर्चे में समूह ने अपना नाम बदलकर ‘जर्मन प्रतिरोध आन्दोलन’ कर लिया था. इस वक़्त तक वे निश्चित थे कि जर्मनी युद्ध नहीं जीत सकता था; इसलिए उन्होंने कहा कि ‘हिटलर युद्ध जीत नहीं सकता, सिर्फ़ लम्बा खींच सकता है.’ उन्होंने नाज़ी अमानवीयता, साम्राज्यवाद और प्रशियाई सैन्यवाद पर प्रहार किया और अभिव्यक्ति की आज़ादी तथा अपराधी तानाशाही राजसत्ता से नागरिकों की हिफ़ाज़त के लिए जर्मन प्रतिरोध आन्दोलन में शामिल होने का आह्वान किया.

जनवरी, 1943 के अन्त में स्टालिनग्राड की लड़ाई में जर्मन फ़ौज की विनाशक हार और आत्मसमर्पण ने युद्ध की दिशा बदल दी थी और जर्मनों के क़ब्ज़े वाले सब देशों में प्रतिरोध आन्दोलन खड़े होने लगे थे. 13 जनवरी, 1943 को म्यूनिख़ के नाज़ी पार्टी नेता द्वारा छात्रों को क़ायर कहे जाने पर छात्र उपद्रव तक कर चुके थे. इसने ‘व्हाइट रोज़’ के सदस्यों का जोश बढ़ा दिया था. स्टालिनग्राद की हार की ख़बर आने पर इन्होंने अपना अन्तिम, छठा पर्चा निकाला – ‘छात्र साथियो’. इसमें ऐलान किया गया कि ‘हमारी जनता के लिए सबसे घृणित आततायी शासक’ के लिए ‘फ़ैसले की घड़ी’ आ पहुंची थी और ‘हमें स्टालिनग्राद के मृतकों की सौगन्ध है’! 3, 8 और 15 फ़रवरी को इन लोगों ने म्यूनिख़ विश्वविद्यालय और अन्य इमारतों पर टिन के स्टेंसिल से ‘डाउन विद हिटलर’ और ‘आज़ादी’ जैसे नारे भी लिखे.




इस बार इनके पास डाक से भेजने के बाद पर्चे बच गये थे और लिफ़ाफे़ ख़त्म हो गये थे और कागज़ की कमी से और मिल भी नहीं रहे थे. इसलिए और सदस्यों के मना करने के बावजूद सोफ़ी और हान्स शोल ने 18 फ़रवरी को अपनी ज़िम्मेदारी पर इन्हें विश्वविद्यालय में बांटने का फ़ैसला किया. उस दिन सुबह दोनों एक सूटकेस में पर्चे लेकर गये और क्लास के दौरान कमरों के बन्द दरवाज़ों के सामने पर्चे रख दिये. लेकिन कुछ पर्चे बच जाने पर इसे ऊपर की मंजिल पर बांटने गये। वहां अचानक कुछ आखि़री पर्चों को सोफ़ी ने ऊपर से हॉल में फेंक दिया, जिसे एक कर्मचारी ने देख लिया और इन्हें बाहर जाते हुए रोककर गेस्टापो द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया.

सातवें पर्चे का मजमून भी उस समय हान्स के पास था जिसे उसने नष्ट करने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुआ, हालांकि सोफ़ी अपने पास के सारे सबूत नष्ट करने में कामयाब हो गयी थी. गेस्टापो में इस मामले की तफ़्तीश रॉबर्ट मोर नाम के जांचकर्ता ने की थी और शुरू में उसने सोफ़ी को निर्दोष मानकर रिहा करने का आदेश दिया था. लेकिन हान्स द्वारा सब कबूल कर लेने और अन्य सबूत मिलने के बाद सोफ़ी ने भी कबूल कर लिया और अपने समूह के अन्य सदस्यों को बचाने के लिए सारी ज़िम्मेदारी ख़ुद लेने की कोशिश की.




22 फ़रवरी, 1943 को सोफ़ी और हान्स शोल तथा प्रोब्स्ट पर नाज़ियों की राजनीतिक मुक़दमों में नाइंसाफ़ी के लिए बदनाम ‘जन अदालत’ में मुक़दमा चलाया गया. गहन पूछताछ और मुक़दमे में जज फ़्रेसलर की धमकियों के बावजूद सोफ़ी दृढ़ता और वीरता से डटी रही और जवाब दिया, “हमारी तरह तुम भी जानते हो कि युद्ध हारा जा चुका है. लेकिन तुम अपनी कायरता से इसे स्वीकार नहीं करना चाहते.’ तीनों को भारी राष्ट्रद्रोह का दोषी घोषित कर जज रोलैण्ड फ़्रेसलर ने मौत की सज़ा दी. उसी दिन तीनों को गिलोटिन द्वारा गर्दन काटकर मृत्युदण्ड दे दिया गया, जिसका तीनों ने बहादुरी से सामना किया. गिलोटिन का आरा जब गर्दन पर गिरने ही वाला था तब सोफ़ी ने कहा ‘सूर्य अभी भी प्रकाशमान है’ और हान्स ने नारा लगाया ‘आज़ादी ज़िन्दाबाद’.




‘व्हाइट रोज़’ समूह के अन्य बहुत से सदस्यों को भी गिरफ़्तार कर अलग-अलग मुक़दमों में कई को मृत्युदण्ड और आजन्म कारावास आदि की सज़ाएं दी गयीं. यद्यपि इन लोगों को ग़द्दार और दुष्ट कहकर सज़ाएं दी गयी थीं और जर्मन अख़बारों में ऐसी ही रिपोर्टें छपी थीं लेकिन इनके समर्थकों की संख्या इतनी हो चुकी थी कि जर्मन नाज़ी अधिकारी इसके बारे में ख़बरों-अफ़वाहों को दबाने में कामयाब न हो सकी और ये और भी जर्मनों को प्रतिरोध के लिए प्रेरित करते रहे. इनके प्रतिरोध और सज़ा की ख़बरें जर्मनी से बाहर आने पर सोवियत लाल सेना ने व्हाइट रोज़ के आज़ादी के संघर्ष के सम्मान में जर्मन लोगों में प्रचार के लिए एक पर्चा प्रकशित किया और इनके छठे पर्चे को ‘म्यूनिख़ के छात्रों का घोषणापत्र’ के नाम से प्रकाशित कर मित्र राष्ट्रों के विमानों द्वारा पूरे जर्मनी में गिराया गया. फ़िल्म आकाश से गिरते पर्चों के इस दृश्य के साथ समाप्त होती है.

  • मुकेश त्यागी





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