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8 जनवरी को होने वाले मजदूरों के ‘आम हड़ताल’ एवं ‘ग्रामीण भारत बंद’ के समर्थन में अपील

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8 जनवरी, 2020 को होने वाले मजदूरों के ‘आम हड़ताल’ एवं अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के आह्वान पर ‘ग्रामीण भारत बंद’ के समर्थन में बिहार के दो संगठन ‘जनवादी लोक मंच’ एवं ‘नागरिक अधिकार रक्षा मंच’ ने अपने समर्थन का अपील किया है. विदित हो कि 8 जनवरी को भारत सरकार के द्वारा लगातार अपनाये जा रहे जनविरोधी नीतियों, जिसके कारण देश के अधिकांश नागरिक उजड़ चुके हैं या उजड़ने की कागार पर पहुंच गये हैं, के विरोध में देश की करोड़ों अमन पसंद नागरिकों की ओर से आम हड़ताल व ग्रामीण भारत बंद का आह्वान किया गया है. इस आम हड़ताल और ‘राष्ट्रीय ग्रामीण बंद’ के समर्थन में दिन के 12 बजे रेडियो स्टेशन, फ्रेजर रोड, पटना में प्रतिरोध मार्च का अयोजन किया है. इसी बंद के समर्थन में बिहार की ओर से दो नागरिक संगठनों ने भी एक पर्चा जारी किया है, जिस पर्चे को हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं.

8 जनवरी को होने वाले मजदूरों के ‘आम हड़ताल’ एवं ‘ग्रामीण भारत बंद’ के समर्थन में अपील

आज देश की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है. केन्द्र में आसीन भाजपा गठबंधन सरकार की जनविरोधी नीतियां आम जनता को तबाही एवं बर्बादी की ओर ढकेलने का काम कर रही हैं. 1991 में कांगे्रसी शासन के दौरान अपनायी गई नई आर्थिक नीति यानी निजीकरण, उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की साम्राज्यवाद-परस्त एवं बड़े पूंजीपतियों के स्वार्थों की पूर्ति करने वाली जनविरोधी नीतियों को ही मोदी सरकार तेजी से आगे बढ़ा रही है. सरकार एवं व्यवस्था के विरोध में उठने वाली हर जायज आवाज को जबरन कुचला जा रहा है. जनवादी अधिकारों एवं नागरिक स्वतंत्रताओं पर हमले तेज किये जा रहे हैं. मजदूरों, किसानों, छात्र-नौजवानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों व शोषित-उत्पीड़ित तबके के जुझारू संघर्षों एवं आन्दोलनों के तेज होने की आशंका से भयभीत केन्द्र सरकार ने पहले से मौजूद काले कानूनों को और ज्यादा दमनकारी बना दिया है.

एन0आर0सी0 तथा धर्म आधारित ‘नागरिकता संशोधन कानून साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का एक नया हथियार बन गया है और संविधान की मूल भावना ‘धर्मनिरपेक्षता एवं समता’ पर कुठाराघात किया जा रहा है. इसके विरोध में उतरे छात्र, प्रबुद्ध नागरिक, लेखक, फिल्मी हस्तियों, पत्रकारों समेत देश के नागरिकों पर बहशियाना पुलिसिया हमला किया जा रहा है. एक तरफ डूबती हुई अर्थव्यवस्था, मंहगाई से मचा त्राहिमाम, निजीकरण के विरूद्ध और सस्ती शिक्षा के लिये छिड़े देशव्यापी आन्दोलन से जनता का ध्यान भटकाना मोदी सरकार का नया औजार है. आए दिन मजदूरों, किसानों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों पर हमले किये जा रहे हैं. विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता में बेजा हस्तक्षेप किये जा रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं प्रतिरोध के स्वर को कुचला जा रहा है. एक घोर दक्षिणपंथी, दकियानूसी एवं प्रतिगामी अंध-राष्ट्रवाद के विचारों को जनमानस के दिमाग में जबरन घुसेड़ने की मुहिम चल रही है. हर प्रगतिशील, जनवादी एवं क्रांतिकारी विचारों के विरूद्ध कुत्सा प्रचार अभियान चलाया जा रहा है. देश आज सच में एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है. देश के नागरिकों को एक भय के माहौल में गुजरना पड़ रहा है.

देश के सैकड़ों सांस्कृतिक समुदाय व प्रतिष्ठित नागरिकों द्वारा मुस्लिमों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों की हो रही लिचिंग पर तत्काल रोक लगाने की मांग तक की जा चुकी है. सरकार की आर्थिक नीतियों और कामकाज पर नोबेल बिजेता अमत्र्य सेन, रोमिला थापर, राम चन्द्र गुहा और सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्केंडेय काटजू सहित अनेक गणमान्य बुद्धिजीवी तक सवाल उठा चुके हैं. ए.डी.आर. की रिपोर्ट के मुताबिक नवनिर्वाचित 542 सांसदों में से 159 सांसदों (29 फीसदी) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं. देश के विभिन्न भागों में महिलाओं और बच्चियों के ऊपर जघन्य हिंसा, बलात्कार और हत्या की घटनाएं लगातार घट रही हैं.

देश में मंहगाई की मार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है. जरूरतमंद चीजें लगातार आम जनता की पहुंच से दूर हो रही हैं. दैनिक उपभोग की चीजें चाहे प्याज हो, गैस सिलेंडर हो, पेट्रोल-डीजल हो या ब्रेड, दूध और अनाज हो, के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और मोदी सरकार आम जनता की चिन्ता को छोड़ चंद पूंजीपतियों के तलबे चाट रही है.

राजकीय दमन और अभिव्यक्ति की आजादी का हाल देखिए कि 2012 में सारकेगुडा में 17 आदिवासियों को ‘नक्सलवादी’ के नाम पर गोली से उड़ा दिया गया. इस घटना के खिलाफ देशव्यापी विरोध शुरू हुआ, तब सरकारी जांच आयोग बैठा, जिसने जांच के बाद अब स्पष्ट किया कि ‘मारे गए आदिवासी निर्दोष थे और वहां कोई माओवादी मौजूद ही नहीं थे.’ सन 2008 में सुकमा जिले के सिंगरम गांव में पुलिस ने 19 आदिवासी लड़के-लड़कियों को लाईन में खड़ा करके गोली से उड़ा दिया था, इनमें 4 लड़कियां थी जिनके साथ पुलिसवालों ने सामूहिक बलात्कार करके उनके पेट में चाकू घोंप कर चीर दिया था. बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले की जांच की और रिपोर्ट दी कि ‘वह फर्जी गुठभेड़ थी और पुलिस ने निर्दोष आदिवासियों की हत्या की थी. आज भी यह सिलसिला सरकारी संरक्षण में जारी है. अर्बन नक्सल के नये नारे के साथ बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, शिक्षाविदों एवं प्रगतिशील तबकों पर विभिन्न प्रकार से कहर ढाया जा रहा है. हमें हर तरह के फर्जी मुकदमों एवं ‘फर्जी मुठभेड़’ का विरोध करना चाहिए.

5 अगस्त के बाद तो कश्मीरी जनता हमसे बहुत दूर चली गई है. कश्मीरी जनता के जीवन, स्वतंत्रता एवं गरिमा पर प्रहार राजकीय दमन का क्रूरतम उदाहरण है. पूर्व आईएएस अधिकारी श्री गोपीनाथन कन्नन तक कह रहे हैं कि ‘कश्मीर सहित देश के कई भागों में अघोषित आपातकाल लागू है. विगत 4 माह से विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं अन्य प्रबुद्धजनों को कैदकर रखा गया है और कहा जा रहा है कि सब कुछ ठीक है. सरकार के खिलाफ बोलने पर देश के खिलाफ बोलना सिद्ध किया जाता है. आज जनता को यह पता नहीं है कि हम भारत के नागरिक रहेंगे कि नहीं जबकि लोकतंत्र में हम सरकार से सवाल इसलिए पूछते हैं कि हमारा देश व लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत रहे.’

आज मीडिया, न्यायपालिका, नियामक प्राधिकरण और जांच एजेंसियां जैसे स्वतंत्र संस्थानों पर जनता का भरोसा बुरी तरह से टूट चुका है. आज अधिकांश मीडिया समूह सरकार के इशारे पर नाच रहा है और जनता तक सच पहुंचने नहीं दिया जा रहा है, इसलिए लोग मीडिया के बड़े हिस्से को ‘गोदी मीडिया’ तक कह रहे हैं.

नोटबंदी तथा जीएसटी को लागू करने से छोटे और मंझौले उद्यम बुरी तरह प्रभावित हैं, जिससे विकास और रोजगार के अवसरों पर बेहद खराब असर पड़ा है. भारत में कृषि संकट की स्थिति अभूतपूर्व बनी हुई है. तेलंगाना, महाराष्ट्र, बुंदेलखंड, पंजाब, बिहार और मध्य भारत के कुछ हिस्सों सहित देश के विभिन्न भागों में किसानों के आत्महत्या का क्रम जारी है. एक तरफ देश की आर्थिक हालात दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है. जीडीपी वृद्धि दर धीमी पड़ गई है और अब सरकारी आंकड़े के अनुसार यह 4.5 प्रतिशत तक पहुंच गया है, हालांकि अनेक अर्थशास्त्री इससे भी कम होने की बात कह रहे हैं. औद्यौगिक उत्पादन में गिरावट जारी है, खेती का संकट लाखों लोगों की रोजगार छीन चुका है और संकट गंभीर से गंभीरतम होता जा रहा है. संकट और घोटालों से वित्तीय संस्थाएं चरमरा रही है, बेरोजगारी विकराल रूप में आ चुकी है और नौजवानों की बड़ी फौज दर-दर भटकने को मजबूर है. देश की एक बड़ी आबादी खाने-पीने की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रही है. कुपोषण भंयकर स्तर पर है, वैश्विक भूख सूचकांक के अनुसार भारत का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है, देश की 50 प्रतिशत स्त्रियां खून की कमी से पीड़ित हैं, गरीब किसान, मजदूर और युवा आत्महत्याएं कर रहे हैं और आम लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं और स्कूल-काॅलेजों की हालत दयनीय बनी हुई है. जेएनयू समेत देश के 38 प्रमुख शिक्षण संस्थानें अभूतपूर्व शासकीय दमन झेल रहे हैं और आने वाले दिनों में इससे उबरने के कोई आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं. वास्तव में मौजूदा सरकार ने हिन्दुस्तान के लोकतंत्र (जैसी भी है), को अपना रखैल बना लिया है. यही वजह है कि आज किसानों, छात्रों, शहरी और ग्रामीण गरीबों, संगठित व असंगठित क्षेत्रों के कामगारों, छोटे व्यापारियों, आदिवासियों, दलितों सहित तमाम लोगों को सड़कों पर आन्दोलन में उतरना पड़ रहा है.

मोदी सरकार श्रम के लचीलेपन की आड़ में मजदूरों के तमाम अधिकारों, जो जनता के लम्बे संघर्ष और बलिदान के बाद हासिल हुआ था, को छीन रही है. इधर अपने 100 दिन के कार्यकाल में मोदी सरकार ने सिक्योरिटी व स्वास्थ्य सुरक्षा कोड बिल पास किया है, जो मजदूरों के सुरक्षा और स्वास्थ्य के साथ सीधा खिलवाड़ है. सरकार अपने घाटे को पूरा करने के लिए सार्वजनिक उद्योगों का विनिवेश कर रही है, या उसे बेच रही है. इसके खिलाफ सुरक्षा, आयुध, रेलवे, भारत पेट्रोलियम, बीएसएनएल इत्यादि के कामगारों ने संघर्ष का रास्ता अपनाया है. इन नीतियों के खिलाफ तेलंगाना राज्य के रोड-वेज कर्मचारी व हरियाणा राज्य के मोटरवाहन कर्मचारियों ने बहादुराना संघर्ष किया है. इतना ही नहीं पांच अन्य लाभ कमाने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को भी बेचा जा रहा है. पिछले 4-5 वर्षों में 35 लाख लोग रोजगार खो चुके हैं और 11 कम्पनियां बंद हो चुकी हैं.

देश के लगभग सभी केन्द्रीय और स्वतंत्र मजदूर यूनियनों ने नये इंडस्ट्रियल कोड बिल और बेज-कोड एवं वेज-रूल के खिलाफ 8 जनवरी को हड़ताल करने का आह्वान किया है. इस बिल के माध्यम से सरकार श्रमिकों को बंधुआ मजदूर बनाना चाहती है. इस बिल के माध्यम से नरेन्द्र मोदी सरकार ने फैक्ट्रियों और कम्पनियों के लिए रास्ता आसान करते हुए कर्मचारी यूनियनों के लिए हड़ताल पर जाना मुश्किल बना दिया है. इसके अलावा हाल ही में जारी वेज-रूल में सरकार ने 8 घंटे ड्यूटी की जगह 9 घंटे व 12 घंटे (ओवर टाइम समेत) की जगह 16 घंटे का प्रस्ताव रखा है. इस बिल में प्रस्ताव ये भी है कि ‘मालिक किसी मजदूर को किसी भी मौके पर नौकरी दे सकता है और नौकरी ले भी सकता है.’ मोदी सरकार 5 सरकारी कम्पनियों के विनिवेश को मंजूरी दे दी है और आगे 46 कम्पनियों में विनिवेश की योजना है. निजीकरण और विनिवेश को अक्सर एक साथ इस्तेमाल किया जाता है लेकिन निजीकरण इससे अलग है. इसमें सरकार अगर अपनी कंपनी में 51 फीसदी या उससे ज्यादा का हिस्सा किसी कम्पनी को बेचती है, तो मैनेजमेंट सरकार से हटकर खरीदार के पास चला जाता है.

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की ओर से वन अधिकार कानून, एल.ए.आर.आर., 2013 के सख्ती के साथ आम आवाम, आदिवासियों और किसानों के जबरन विस्थापन के विरूद्ध, मुक्त व्यापार संधियों को रद्द करने, फसल डम्पिंग और विदेशी कम्पनियों द्वारा खेती में हस्तक्षेप बढ़ाने व नियंत्रण करने, कृषि मजदूरों व बटाईदार किसानों के हक के लिए एक समग्र कानून बनाने, काॅरपोरेट की लूट के खिलाफ, सभी ग्रामीण लोगों के लिए 10,000 रुपये मासिक पेंशन देने, फसल बीमा योजना तथा आपदा मुआवजा को सुधारने तथा जम्मू-कश्मीर के किसानों के नुकसान की भरपाई, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने आदि के सवाल पर देश भर में 8 जनवरी को ‘राष्ट्रीय ग्रामीण बंद’ का आह्वान किया गया है.

लगातार घट रही परिघटनायें निश्चित तौर पर हमें एक राष्ट्रीय आन्दोलन की आहट दे रही हैं. ऐसी स्थिति में हम सभी का दायित्व बनता है कि मोदी सरकार द्वारा जनता को तबाह करने वाली नीतियों का पर्दाफाश करें. साथ ही मजदूर-किसान, छात्र-नौजवानों के पक्ष में खड़े होकर छंटनी, तालाबंदी, उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की पूंजीपरस्त नीति और ठेका प्रथा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व आम आदमी को तबाह करने वाली नीतियों की खिलाफत हेतु देशव्यापी जनान्दोलनों की लहर पैदा करें और सड़क पर उतरें.

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