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चुनाव नतीजे, भक्त गवर्नर, और वामपंथी

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चुनाव नतीजे, भक्त गवर्नर, और वामपंथी

2019 के चुनाव के बाद, सरकार बीजेपी की रहे या कांग्रेस गठबंधन की, वित्तीय स्थिति भयंकर बदतर होने वाली है. दोनों की ही आर्थिक नीतियां समान हैं. रोजगार, किसानों की बदहाली का समाधान दोनों के पास नहीं, निजीकरण दोनों को करना ही है. इसका तकलीफदेह बोझ आम मेहनतकश जनता पर ही डाला जाएगा. स्वाभाविक है कि जनता में हताशा व रोष भी पैदा होगा. फासिस्ट गुंडादलों और सरकारी तंत्र में बैठे अपराधियों के खिलाफ भी कांग्रेस सरकारों से कार्रवाई की उम्मीद भी अति भोलापन ही है. बीजेपी-कांग्रेस जबानी लड़ाई के अलावा एक दूसरे के जुर्मों पर कुछ नहीं करने वाले. दोनों असल में पूंजीपति वर्ग के लिए गुड-कॉप, बैड-कॉप वाली भूमिका ही निभाने वाली हैं.

नोटबंदी और जीएसटी में ‘महान’ सेवाओं के ईनाम और ऐसी ही और सेवायें देने हेतु शक्तिकांत दास को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया है. उधर चुनाव नतीजे कहते हैं कि मोदी के कारनामों से असंतुष्ट जनता बेचैन तो है पर कांग्रेस के पुराने कारनामों को भी पूरी तरह भुला नहीं पाई है- आमने-सामने के मुकाबलों में वोट लगभग बराबर ही है.

सरकार अभी भारी वित्तीय संकट से जूझ रही है. इस साल आयकर के रिफ़ंड लगभग दिये ही नहीं जा रहे, लगभग 1 लाख करोड़ के रिफ़ंड रोक रखे गए हैं. जीएसटी की भी यही स्थिति है. फिर भी पहले 7 महीनों में वित्तीय घाटा पूरे वित्तीय वर्ष के बजट का 104% हो चुका है.

इस स्थिति में भक्त गवर्नर के सहारे किसी भी तरह चुनाव जीतने को बेताब मोदी सरकार वित्तीय-आर्थिक क्षेत्र में जो भी करना चाहती है. उसके विस्तार में जाये बगैर भी हम यह निष्कर्ष तो निकाल ही सकते हैं कि इससे पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोध और भी तीव्र, गहन व सघन होने वाले हैं. ऐसे तीव्र कि तमाम मौकापरस्त पूंजीवादी अर्थशास्त्री भी उसके लिए अपनी सेवायें देने में हिचक रहे हैं लेकिन इससे भी बीजेपी चुनाव जीत ही पाएगी, यह निश्चित नहीं. नहीं जीते तो मौजूदा स्थिति में देश के लिए बेहतर.

पर यह भी साफ है कि 2019 के चुनाव के बाद, सरकार बीजेपी की रहे या कांग्रेस गठबंधन की, वित्तीय स्थिति भयंकर बदतर होने वाली है. दोनों की ही आर्थिक नीतियां समान हैं. रोजगार, किसानों की बदहाली का समाधान दोनों के पास नहीं, निजीकरण दोनों को करना ही है. इसका तकलीफदेह बोझ आम मेहनतकश जनता पर ही डाला जाएगा. स्वाभाविक है कि जनता में हताशा व रोष भी पैदा होगा. फासिस्ट गुंडादलों और सरकारी तंत्र में बैठे अपराधियों के खिलाफ भी कांग्रेस सरकारों से कार्रवाई की उम्मीद भी अति भोलापन ही है. बीजेपी-कांग्रेस जबानी लड़ाई के अलावा एक दूसरे के जुर्मों पर कुछ नहीं करने वाले. दोनों असल में पूंजीपति वर्ग के लिए गुड-कॉप, बैड-कॉप वाली भूमिका ही निभाने वाली हैं.

अगर वामपंथी ताक़तें सिद्धांत व वस्तुगत स्थिति आधारित कार्यक्रम लेकर इस सच्चाई के साथ जनता के बीच जाती हैं, उसके जीवन से जुड़े सवालों पर संघर्षों को आगे बढ़ाती हैं, सांप्रदायिकता-जातिवाद के खिलाफ दृढ़ता से खड़ी होती हैं, तो देर-सबेर इस रोष को पूंजीवाद विरोधी दिशा दे सकती हैं. किंतु, अगर वे अवसरवादी अवस्थिति लेती हैं, कांग्रेस की जीतों को ही फासीवाद की हार मानकर चुनावी जोड़-तोड़ व जहां मुमकिन हो कांग्रेस के सहारे सरकारी-अर्धसरकारी संस्थाओं में ओहदों की दौड़ में लगते हैं तो जनता का बड़ा हिस्सा निश्चय ही फासीवादी ताकतों की ओर जाएगा, फासीवादी ताक़तें और भी मजबूत होकर उभरेंगी, मोदी-शाह से भी घृणित नेतृत्व के साथ.

सभी वामपंथियों को इस स्थिति में खुद की भूमिका तय करनी होगी – बुर्जुआ चुनावी राजनीति में मौकापरस्त जोड़-तोड़ या गहराते पूंजीवादी अंतर्विरोधों व संकट के दौर में जनसंघर्षों की अगुवाई.

  • मुकेश असीम

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