कुछ दिन पहले मैंने टीवी पर एक समाचार देखा था. चाइना ने एक रोबोट बनाया जो आदमी की जगह न्यूज एंकरिंग करेगा.
इस न्यूज को देखने के बाद मुझे बहुत हंसी आई कि चाइना एक रोबोटिक न्यूज़ एंकर बनाकर इतना खुश क्यों हो रहा है ? हमारे यहां तो सरकार, पूंजीपति और तथाकथित धर्मगुरूओं ने मिलकर हाड़-मांस, खून वाले लोगों को ही रोबोटिक बना दिया है. हमने कहीं हल्ला या प्रचार किया क्या ?
शायद चीन में सोचने-विचारने या सोच-विचार कर काम करने वाले, सवाल उठाने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है इसलिए वह रोबोट बनाने पर इतना खुश हो रहा है.
हम आज चीन से कितना आगे चल रहे हैं. हमारे यहां रोबोटिक बुद्धिजीवी, रोबोटिक मीडिया, रोबोटिक जन-संस्थाएं, रोबोटिक जनप्रतिनिधि, रोबोटिक नौकरशाह, रोबोटिक कलाकार सभी हाड़-मांस वाले आसानी से हर जगह उपलब्ध रहते हैं.
हमारे देश मे तो “प्रधान“ से लेकर “महान“ तक रोबोटिक होते हैं, जिनका रिमोट पूंजीपतियों के साथ-साथ धर्म के नाम पर संगठित लूट मचाने वाले संस्थाओं या व्यक्तियों के हाथों में होता है. और तो और हमारे यहां तो कोर्ट-कचहरी तक में रोबोटिक हैं. जैसे एक रोबोट के खराब हो जाने पर दूसरे रोबोट पर कोई फर्क नहीं पड़ता, उसी तरह एक-दो जज तक के हत्या हो जाने पर कोर्ट में बैठे अन्य जजों पर कोई फर्क नहीं पड़ता.
कभी-कभी मैं सोचता हूं. आप सवाल कर सकते हैं कि मैं सोचता भी हूं ! जी ! मैं भी कभी-कभी सोचता हूं. असल में होश संभालने के बाद से मैं खेतो में अंदाज़ से बीज-खाद डाल कर फसल उगाते, फैक्टरी में अंदाज़ से कच्चे मैटेरियल को मिलाकर उससे अन्य जरूरत की वस्तुओं को बनाते हुए लोगों को देखता आया हूं. उस समय तक मशीन या जमीन पर मशीन से काम करते हुए लोग मशीन नहीं बने थे क्योंकि समय, वातावरण जरूरत को देखते हुए जब अंदाज़ से, अनुभव से काम करना पड़ता है तो उसमें दिमाग लगाना पड़ता है अन्यथा सारा का सारा काम चौपट हो जाने का डर रहता है. उन्हीं लोगों को देखते हुए मुझे भी कुछ-कुछ सोचने की आदत लग गयी है. हां तो मैं कह रहा था, कभी-कभी मैं सोचता हूं कि सरकार खुद न्यूनतम मजदूरी, न्यूनतम दाम, न्यूनतम सुविधायें जैसे शिक्षा, चिकित्सा, आवास देने के लिए जो कानून बनाती है, उसे भी लागू नहीं करती.
बाल मजदूरी का विरोध करने, कानून बनाने, इसे लागू करने, इन सब पर निगरानी करने वाले बहुत कम लोग या उनका घर होगा, जहां नौकर के रूप में नाबालिक बच्चों को रखकर उनका शोषण और उन पर अत्याचार नहीं किया जाता. पर्यावरण पर देश-विदेश में लंबा-लंबा फेकने व नीति-निर्धारण की बातें करने वाले “प्रधान“, सरकारी अमला बराहील समेत अन्य लोग विकास की आड़ लेकर अंधाधुंध जंगल काट रहे हैं, प्रकृति का दोहन कर रहे हैं, वहां रहने वाले लोगों को उजाड़ रहें हैं. लेकिन अगर इनके द्वारा बनाये गए नीतियों को ही लागू करने, कटते-उजड़ते जंगल व लोगों के लिए अगर किसी ने आवाज़ उठाई तो उन्हें नक्सली, उग्रवादी या माओवादी (कुछ अपवाद को छोड़कर) कहकर जेलों में बंद कर दिया जाता है या नकली मुठभेड़ के नाम पर उनकी हत्या कर दी जाती हैं.
रही हमारी बात ! क्या हम भी इन सब चीजों को देखते हुए भी सुतुरमुर्ग की तरह आंखें बंद नहीं कर लेते हैं ? रोबोट की तरह ही व्यवहार नहीं करते हैं ? भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, बलात्कार, भ्रष्टाचार, किसानों की खुदकुशी आदि जैसे सामूहिक व सामाजिक आर्थिक मुद्दे हमारे दिलों में कोई हलचल पैदा कर पाते हैं क्या ? शायद नहीं ! लेकिन धर्म के नाम पर, जो हमारे लिए नितांत व्यक्तिगत पसंद का मुद्दा होना चाहिए, रोबोट की तरह ही चंद स्वार्थी लोगों के रिमोट पर नंगा नाचने लगते हैं. दंगाई बन कर खुद को ही सामूहिक, सामाजिक, आर्थिक ? क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते !
अरे ! मैं भी इतना सोचता हूं ! लगता है मैं रोबोट नहीं बना हुं, लेकिन आप …?
- सुमन
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