इसे त्रासदी माना जाए या प्रहसन कि कल से न जाने कितने खुद को ‘मार्क्सवादी’ कहने वाले विश्व बैंक और रघुराम राजन के हवाले से अर्थव्यवस्था पर मोदी सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे हैं. मुझे नहीं मालूम कि इन्होंने विश्व बैंक या रघुराम राजन के बयानों को पूरा पढ़ने या समझने की कोशिश की भी या नहीं, या बस मीडिया में आये अपने पसंद के एक जुमले को पकड़कर ही इन्होंने मस्जिद तक मुल्ला वाली दौड़ शुरू कर दी. वैसे भी आजकल बहुत से ‘मार्क्सवादी’ पढ़ने-जानने तर्क करने को व्यर्थ का काम मानते हैं जो ‘विशुद्धतावादी’ करते हैं ! नहीं तो क्या विश्व बैंक या आईएमएफ़ के पूर्व प्रधान अर्थशास्त्री राजन द्वारा मोदी की आलोचना का नजरिया या वे क्या नीतियां चाहते हैं यह समझना इतना ही मुश्किल है ?
इन दोनों ने ही मोदी की आलोचना इसलिए नहीं की है कि उन्होंने नोटबंदी या जीएसटी लागू किया बल्कि इसलिए कि इन्हें अन्य और ‘सुधारों’ को लागू किए बगैर किया. ये सुधार क्या हैं ? तेजी से निजीकरण, श्रमिकों के अधिकारों में कटौती, मालिकों को जब चाहे श्रमिकों को बगैर मुआवजा निकाल बाहर करने की छूट, उद्योग-व्यापार को और भी नियंत्रण मुक्त करना, पूंजी की निर्बाध गति, आदि.
उनका कहना है कि इन अन्य ‘सुधारों’ के अभाव में नोटबंदी और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था की गति पर ब्रेक लगाया. राजन साफ कहते हैं कि 7% की वृद्धि बहुत अच्छी है मगर इसे और तेज होना था जिसके लिए मोदी को और बहुत कुछ ‘सुधार’ करना था जो नहीं किया गया.
दूसरे, रघुराम राजन कहते हैं कि जीडीपी वृद्धि तेज होने से रोजगार सृजन होगा. पहले तो तथ्य बताते हैं कि पिछले 30 साल के नव उदारवादी नीतियों के दौर में जीडीपी वृद्धि से रोजगार सृजन वृद्धि का कोई प्रमाण नहीं है, बल्कि जीडीपी वृद्धि से रोजगार सृजन में निरंतर कमी होती है.
1990 के दशक में जीडीपी में 1% वृद्धि होने से जहां रोज़गार में लगभग 0.4% वृद्धि होती थी वह 2013-14 आते-आते 0.08% रह गई थी और अब तो खुद RBI-CLEMS या CMIE के आंकड़े बता रहे हैं कि जीडीपी बढ्ने के बावजूद भी कुल रोज़गार घट रहे हैं क्योंकि जीडीपी में वृद्धि का कारण पूंजीपतियों द्वारा अचल पूंजी (मशीनों, तकनीक आदि) में भारी निवेश है, जिसका मकसद ही चल पूंजी अर्थात प्रति इकाई उत्पादन में प्रयुक्त श्रम शक्ति की मात्रा में कमी करना है. इस स्थिति में सिर्फ जीडीपी वृद्धि की बात समाज के लिए ऐसी ही है जैसे शरीर के लिए कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि होती है अर्थात असह्य कष्ट का कारण.
इसलिए रघुराम राजन या विश्व बैंक द्वारा मोदी की नीति विशेष का विरोध पूंजीपति वर्ग के नजरिए से और भी अधिक नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को पर्याप्त तेजी से लागू न कर पाने के लिए किया गया है; इसमें भारत की मेहनतकश जनता के पक्ष में कुछ नहीं.
तब क्या ये माना जाए कि ये सब ‘मार्क्सवादी’ भी इन ‘सुधारों’ के पक्ष में हैं ? लगता तो ऐसा ही है। वैसे भी इन में से बहुतेरे ‘मार्क्सवादियों’ ने हमेशा जीएसटी का समर्थन किया है. वर्तमान जीएसटी पर भी अब तक इन्होंने आज तक एक भी बिंदु पर संसद या जीएसटी काउंसिल में विरोध में मत नहीं दिया है. फिर इस अंदर हिमायत, बाहर विरोध को क्या कहा जाए ?
- मुकेश असीम
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