बीते कल भारत सरकार ने दो अहम फैसले लिए, पहला, रशिया के साथ S 400 खरीद समझौता, दूसरा ईरानी crude खरीदने का फैसला. कहा जा रहा है कि अमरिकी दवाब के वावज़ूद लिए गए इन फैसलों से मोदी की इच्छाशक्ति ( क्योंकि 2014 के बाद भारत सरकार मोदी सरकार बन गई) जाहिर होती है. दरअसल, तथ्य इसके ठीक विपरीत है.
2014 के चुनाव प्रचार से लेकर आज तक, सभी सम्भावित मौकों पर, मोदी नेहरु, कांग्रेस और उनकी आर्थिक और विदेश नीति को पानी पी-पी कर कोसते रहे और मूर्ख भक्त, भांड मीडिया और तलवा चाट बुद्धिजीवी (?) ने ताली पीट-पीट कर जो बंदर नाच किया, वो अभूतपूर्व था.
चापलूसी के इस माहौल में वे ये भूल गए कि नेहरू जैसे लोग जब किसी देश की बागडोर विकट परिस्थितियों में संभालते हैं तब उनकी राजनितीक, अर्थिक प्राथमिकतायें कॉरपोरेट गुलामी, हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष और दंगा-फसाद की मानसिकता से तय न होकर विशुद्ध देश हित, निस्वार्थ समाज सेवा से प्रेरित होती है.
शीत युद्ध के कठिनतम समय में दोनों ध्रुवों में एक को चुनते हुए भी non- aligned movement को खड़ा करना और देश के अर्थिक ढांचे की बुनियाद रखना किसी मूर्ख दंगाबाज़ के बूते की बात नहीं है.
आज के एक ध्रुवीय परिदृश्य में देश की अवधारणा के साथ ही देश की सम्प्रभुता की अवधारणा सन्निहित है. आप एक की बलि देकर दूसरे को अक्छुण्ण नहीं रख सकते. खासकर तब जब कि आप उसी संवैधानिक प्रक्रिया से सत्ता-नशीन हुए हैं जिसने इस अवधारणा को जन्म और बल दिया
Exclusive politics भारत के लिए नहीं है, इस तथ्य को समझने के लिए मोदी जी को entire political science में MA करने के पहले metric पास करना होगा, जो अब सम्भव नहीं है.
- सुब्रतो चटर्जी
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