यह मुहावरा बोनलेस चिकनचिली की तरह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि ‘शिक्षक राष्ट्र निर्माता हैं.‘ क्या राष्ट्र बन भी रहा है ? प्रतिनिधि, विधायिका में कैसे कैसे करतब दिखाते हैं ? पाठ्यक्रम बनाने, शिक्षकों का चयन करने, उनके कामों पर निगरानी रखने और उन्हें गुणवत्ता के प्रमाणपत्र देने के लिए मीडिल फेल उच्च शिक्षा मंत्री, सेवानिवृत्त संदिग्ध चरित्र के आईपीएस. अधिकारी कुलपति बनकर उपलब्ध रहते हैं, जिन्होंने इम्तहान में शर्तिया नकल मारी होती है या रस्टिकेट भी हुए होते हैं, वे मंत्री फूलमालाएं गले में लादे शिक्षकों की भूमिका पर तकरीर करते नजर आते हैं. शिक्षक दिवस का कार्यक्रम श्रद्धा का नहीं श्राद्ध का है.
5 सितंबर को विख्यात दार्शनिक तथा पूर्व राष्ट्रपति डाॅक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन शिक्षक दिवस होता है. क्या उन्हें औसत शिक्षकों का प्रतिनिधि समझा जा सकता है ? बेटी के ब्याह में उलझनें हों, पिता की असाध्य बीमारियों का इलाज नहीं करवा पाता हो और मां इस वजह से विधवा हो जाए. पत्नी की आंखों में सपनों से ज़्यादा आंसू हों. बेटा मोहल्ले के शोहदों के हत्थे चढ़ गया हो, पड़ोसी से सदैव घबराते हों कहीं उधार न मांग बैठें. शिक्षक उसको भी कहते हैं.
शिक्षक दिवस पर राष्ट्रपति से सम्मानित होने की परंपरा त्रुटिपूर्ण है. जो शिक्षक खामोश रहकर बुनियादी भूमिका का निर्वाह करते हैं, इतिहास उनका नाम नहीं लेता. सरकारी फाइलों में दर्ज़ सिफारिशें अच्छे शिक्षक होने का प्रमाणपत्र नहीं हैं. शिक्षकों को समाज में वास्तविक सम्मान दिलाने के लिए भूतपूर्व छात्रों से वोट क्यों नहीं लिए जाते ? शिक्षक तो अज्ञान के अंधेरे से लड़ता दीपक है. ज्ञान का सूरज पौ के साथ उगता है, तब तक वह बुझा हुआ दीपक भूमिका से बेदखल हो जाता है.
राज्य इस बात का उत्तरदायित्व नहीं लेता कि वह अकादेमिक प्रशासन में उसकी भागीदारी सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य होगा. राज्य शिक्षकों को बेहतर शिक्षक बनाता हुआ ऐसे उपक्रम नहीं करता जिससे पूरे विद्यार्थी जगत को बेहतर शिक्षा स्तर में पढ़ने का अवसर मिले. ज्ञान के इलाके में शोध करना शिक्षक का निजी उत्साह होता है. उसे सरकार का सामाजिक दायित्व क्यों नहीं समझा जाना चाहिए ?
राजसत्ता अमर बेल है. वह शिक्षक की देह पर चढ़कर खून चूस लेती है. आर्थिक नीतियां बाजार को नियंत्रित करने, विधायकों को टिकट दिए जाने, प्रशासनिक परंपराओं का संशोधन करने में कहां है शिक्षक की भूमिका ? सेवानिवृत्ति के बाद शिक्षक ट्यूशन या कोचिंग जैसे अनुष्ठानों से जुड़ जाते हैं. तमाम विषयों के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के भारतीय शिक्षक सरकार की केन्द्रीय भूमिका से संलग्न क्यों नहीं किए जा सकते ? शिक्षकों के अंतिम निर्णयों के ऊपर उनसे आधी उम्र के पुलिस, जंगल या वाणिज्यिक कर वगैरह विषयों के छात्र रहे आइएएस थोप दिए जाते हैं.
शिक्षक पहले समाज की बौद्धिक, नैतिक बल्कि पूरी सामाजिक उन्नति की महत्वपूर्ण भूमिका में होता था. उसे रामचरित मानस की चौपाई या दोहा समझा जाता था. अब वह भारतीय मानस का क्षेपक बनकर रह गया है.
कुछ शिक्षक राजनेताओं के पिछलग्गू, मुंहलगे और खुशामदखोर भी हैं. स्कूल नहीं जाते. पढ़ाते नहीं. नैतिक चरित्र पुलिसिया जांच में होता है. सरकारी और राजनीतिक सभाओं में खुलकर भाषण देते हैं. परीक्षा की काॅपियां नहीं जांचते. नंबर बढ़ाते हैं. प्रश्नपत्र लीक करते हैं. राज्य व्यवस्था उन्हें चुनाव के काम में लगाती है.
मर्दुमशुमारी भी करते हैं. घर-घर जाकर एड्स के रोगियों के बारे में पूछते हैं. राशन कार्ड बनाने में मदद करते हैं. वह समाज के फलक का ध्रुवतारा नहीं है. एक त्रिशंकु है.
शिक्षक समाज के रचनात्मक इंफ्रास्टरक्चर का सबसे बुनियादी तत्व है. ऋषि मुनि, शंकराचार्य, धार्मिक साधु, संत, सूफी और औलिया गुरुओं के रूप में एकल मानव विश्वविद्यालय रहे हैं. तब भारत एक राजनीतिक इकाई के रूप में पैदा नहीं हुआ था. उसके पास जनता द्वारा रचित संविधान की बुनियादी पोथी भी नहीं थी. आज शिक्षक एक आनुषंगिक इकाई या राजनीतिक प्रक्रिया से अलग थलग हाशिये का उत्पाद है.
शिक्षक वह माली है जो एक-एक पौधे और फूल पत्तियों की सुरक्षा और विकास करता है. वह बढ़ई है जो रंदा चलाकर विद्यार्थी के व्यक्तित्व में उग आए नुकीलेपन और खुरदुरेपन को सपाट और चिकना करता है. वह प्लंबर है जो ज्ञान की शिराओं में अटक गए कचरे को अलग कर जल के प्रवाह को गति प्रदान करता है. वह बिजली मैकेनिक है जो शिष्य के दिमाग में फ्यूज़ हो गए संवाहक तारों को ठीक कर ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करता चलता है. शिक्षक के जीवन का मकसद होता है कि वह विद्यार्थी को बताए कि ‘साविद्या या विमुक्तये‘ का निहितार्थ क्या होता है. शिक्षक लेकिन मटुकनाथ जैसे लोग भी होते हैं, जिनकी बिरादरी बहुत फलनी-फूलनी नहीं चाहिए.
कैलेन्डर का हर एक दिन किसी गतिविधि के लिए कैद कर लिया गया है, मसलन स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती और पुण्यतिथि, वैलेन्टाइन डे, मदर्स, फादर्स और डाॅटर्स डे, बड़ा दिन और नए साल का आगाज़ तयशुदा अंगरेजी तारीखों पर हलचल करने की कोशिश करते हैं. पांच सितंबर भी ढूंढ़ा गया है. वह भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति रहे प्रसिद्ध दार्शनिक डाॅक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन है. दरअसल शिक्षक और शिक्षा की मूलक्रांति का श्रेय मदनमोहन मालवीय और सर सैयद अहमद खान का भी बनता है. उन्होंने बनारस हिन्दू और अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय की स्थापना की.
क्या डाॅक्टर राधाकृष्णन को औसत शिक्षक का समानार्थी या प्रेरक माना जा सकता है ? हिंदुस्तान के लाखों शिक्षक प्राथमिक पाठशालाओं से विश्वविद्यालयों तक गफलत, जलालत, अपमान और आर्थिक बदहाली में जी रहे हैं. वेतन आयोग और सुधार आयोगों के मकड़जाल में मक्खी की तरह फंस जाते हैं. सरकारी शिक्षण संस्थानों में तो पहले से बेहतर वेतन हैं, पर सरकारी संस्थाओं को तो उस तरह मारा जा रहा है जैसे विष्णुगुप्त चाणक्य ने कांटे के पौधे की जड़ में मठा डाला था.
शिक्षा का निजी रोजगार कैंसर की तरह फैल चुका है. बेशर्मी और षड़यंत्र के साथ सेठियों के बड़े-बड़े तिजारती कालाबाजारी, जमाखोरी और मुनाफाखोरी से कमाए गए धन को सुरक्षित व्यापार में लगाने की गरज से शिक्षादाता बन गए हैं. इस धंधे में राइस मिल, आइल मिल, खनिकर्म, पेट्रोल पंपों की तरह पुलिस और इंस्पेक्टरों के छापों और लाइसेंस की परेशानियां नहीं झेलनी पड़तीं. कमाने की खुली छूट है. सुप्रीम कोर्ट ने ग्यारह सदस्यीय बेंच के फैसले में यहां तक कह दिया है यदि अच्छी शिक्षा पाना है तो मुनासिब फीस देनी पड़ेगी. यह भी कि अच्छी और ऊंची शिक्षा पाने का किसी विद्यार्थी को मौलिक अधिकार नहीं है लेकिन शिक्षा का व्यवसाय करना मूल अधिकार है.
अधिकांश निजी संस्थाओं के शिक्षक पूरी तनख्वाह नहीं पाते. झूठी पावती देने मजबूर हैं. मालिकों की गैर-शिक्षकीय चाकरी बजानी पड़ती है. प्रधानमंत्री से लेकर विधायक तक की परेडों में बच्चों सहित शामिल होना पड़ता है. मर्दुमशुमारी, अकाल, बाढ़, महामारी मतदाता सूची और तरह-तरह के सरकारी शतरंजों का प्यादा बनाया जाता है.
समाज में भी उनकी अहमियत नहीं होती. मुख्यमंत्री का बेटा विधायक, सांसद से लेकर मुख्यमंत्री तक बने. कलेक्टर का बेटा किसी तरह कलेक्टर बन ही जाए. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद तक बाप बेटों की तिकड़म है. शिक्षक का बेटा बहुत कुछ बन जाने के बदले शिक्षक ही बन पाता है. बेटियां ब्याह के बाद बेहतर घर परिवार नहीं पाती. मां बाप का इलाज नहीं होता.
शिक्षकों की कौम भी पूरी तरह दोषमुक्त भी नहीं है. गांव और आदिवासी इलाकों के शिक्षक नौकरी पर नहीं जाते. मासूूम बच्चियों के साथ उनके द्वारा अनाचार की शिकायतें भी होती हैं. विधायकों और मंत्रियों सहित पंचों, सरपंचों की ड्योढ़ी पर कोर्निश बजाते हैं. चुनाव प्रचार करते हैं. भूमियां हड़पते हैं. धंधों में पैसा फंसाते हैं. शिक्षक दिवस की किस तरह याद की जाए.
प्राथमिक पाठशाला में हम ‘गुरु जी गुरु जी चामचटिया, गुरु जी मर गए उठाओ खटिया’ जैसा दोहा मासूमियत के साथ ताली बजा बजाकर गाते थे. गुमान नहीं था कि शिक्षा की स्थिति का भविष्यवाचन कर रहे हैं. गुरु हमारे लिए माता पिता से ज्यादा बड़ा संरक्षक, तानाशाह या जिन्न होता था. हमारे भविष्य को अपनी समझ की मुट्ठी या संभावनाओं की बोतल में कैद कर सकता था. हम अपने शिक्षक या मास्टरजी के बिना पानी पीने या पेशाब करने का मौलिक अधिकार भी नहीं रखते थे.
भारतीय शिक्षा नीति को लाॅर्ड मैकाले ने लंदन के हाउस ऑफ काॅमन्स में बर्बाद करने का षड़यंत्र सुनाया था. विवेकानन्द ने सबसे पहले केवल शिक्षा को भारतीय जीवन की नैतिकता की इस्पाती बुनियाद कहा था. शिक्षित, अशिक्षित, अल्पशिक्षित, अर्धशिक्षित राजनेता जिद्दी हैं. विधायिका में लगभग आधे सदस्य अपराधीवृत्ति के हैं। नकल मारने के कारण बर्खास्त छात्र, विधायक और मंत्री बनकर अपने ही गुरुओं से सम्मान कराते हैं.
अभद्र भाषण, गलत उच्चारण और व्याकरणहीन संबोधन के जरिए शगल में बच्चों को पढ़ाने जाते हैं. शिक्षक दिवस पर झूठे कार्यकमों की बाढ़ आती है. किसी के मन में सम्मान या सद्भावना नहीं होती. उत्कृष्टता का शिक्षा से जनाजा ही उठता जा रहा है. दुनिया के पहले दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत नहीं है. पता नहीं शिक्षक दिवस पर स्तुतिनुमा झूठे वाचन कब तक नासमझी की प्रतिध्वनि बनते रहेंगे ?
- कनक तिवारी
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