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हिंदुत्व के वसुधैवकुटुम्बकम की अग्नि परीक्षा

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सडकों पर नंगा कर के निर्दयता से पीटना (ऊना-गुजरात), संदिग्ध परिस्थितियों में मौत (रोहित बेमुला) और उच्च शिक्षण कर रहे छात्रों का सामूहिक अपमान एवं मानसिक उत्पीडन (पुणे-महाराष्ट्र), जिन्दा जला देना (सुनपड़े गांंव-फरीदाबाद-हरियाणा), दलित बस्तियों दुकानों को जलाकर राख के ढेर में तब्दील कर देना, जान बचाकर भागतों को पीटना, स्त्रियों के साथ अश्लील हरकत करना, उनके साथ बलात्कार करना, विरोध-प्रदर्शन करने पर आमादा होने पर दंगा भड़काने जैसी गम्भीर आरोपों के मुकदमें लाद देना (शब्बिरपुर गाँव-सहारनपुर-उत्तरप्रदेश), दलित दूल्हे की बारात घोड़े/घोड़ी पर बैठकर ऊंची जात वाले बाहुबलियों के मुहल्लों से न निकलने देने की धमकी देना (कासगंज/सिकन्द्रराऊ-उत्तरप्रदेश) वगैरह-वगैरह जैसी अनगिनत घटनाएं आये दिन अखबारों, सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सुर्खियांं बनती रहती है. ये घटनाएंं, आरएसएस के सामाजिक समरसताके सारे प्रयासों पर पानी भी फेरती रहती हैं.

कुछ घटनाएंं हैंं जो सरकारी गलियारों में घटती रहती है, मीड़िया जानता है, पर देश और समाज हित में उन्हें परोसता नही है. क्या दो अप्रैल को सड़कों पर उमड़े  जनसैलाब के पीछे ऐसी घटनाएंं जिम्मेदार हैं ? क्या अधीनस्थ दलित कर्मचारियों में, गैर-दलित अधिकारियों द्वारा नियमित प्रशासनिक कार्यवाहियों को लेकर पनप रहा असंतोष था ? सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका से तो कुछ ऐसे ही संकेत मिलते हैं. सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार की स्वीकारोक्ति कि—’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 का दुरूपयोग होता हैं’; सरकार की मशीनरी इस बात की थाह लेने में पूरी तरह नाकाम रही कि उसकी इस स्वीकारोक्ति की दलित समाज में क्या प्रतिक्रिया होगी ? सरकार की इस नाकायाबी ने आग में घी डालने का काम किया.

एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीमकोर्ट के 20 मार्च के फैसले के बाद, 02 अप्रैल को अचानक “भारत बंद” के आवाहन ने, पूरी हिंदुत्ववादी राजनीति के रणनीतिकारों को सकते में डाल दिया है. बाबा साहेब के नाम के साथ “राम” को जोड़ कर उनको महिमामण्डित करने का हिमालयी प्रयास चारो खाने चित्त हो गया सा लगता है. चार साल से ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के बावजूद, जो तामीर अभी खड़ी भी नहीं हो पायी थी; उस पर ये कहर क्यों टूट पड़ा ? ऐसे तमाम प्रश्न हवा में तैर रहे हैं. बीजेपी, आरएसएस के किसी शीर्ष नेता को ये समझ नहीं आ रहा कि तत्काल क्या प्रतिक्रिया दें ? एक तरफ कुंआं तो दूसरी तरफ खायी. अगले वर्ष लोक सभा के चुनाव से पहले देश के चार राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, और कर्नाटक में चुनाव होने हैंं. दलितों को पुचकारें तो सवर्णों के हाथ से खिसक जाने का खतरा, न पुचकारें तो चारों राज्यों में “गोरखपुर-फूलपुर” की पुनरावृत्ति (सवर्णों में मताधिकार के प्रयोग को लेकर घोर निराशा और उत्साहीनता) की आशंका से हिंदुत्ववादी राजनीति की धमनियों में बहने वाला खून जमने लगता है. प्रतिक्रिया देने से पहले गम्भीर विचार करने में  पूरा एक दिन गुजर गया. यहांं यह उल्लेखनीय है कि 2014 और उसके बाद हुए अधिकांंश चुनावों में दलितों ने भारी मात्रा में बीजेपी को अपना समर्थन दिया था, परिणाम सबके सामने हैं.

राष्ट्रीय क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरों की रिपोर्ट बताती है कि देश में राज्यवार दलित उत्पीडन की घटनाओं की संख्या के गिरते क्रम में जो शीर्ष पांच राज्य आते हैंं, वे सभी या तो बीजेपी शासित हैं या उसकी सहयोगी पार्टियों द्वारा शासित है, यानि एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा. इसके उलट हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री जी दावा करते हैं कि (पूज्य) बाबा साहब को उनकी सरकार ने जितना “मान” दिया उतना किसी अन्य सरकार ने नहीं दिया. दलित युवा पूंछता है “बाबा साहब को मान और उनमें आस्था रखने वालों का अपमान ?” बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तो प्रधानमन्त्री से और दस कदम आगे बढ़ कर बोलते हैंं कि – “आरक्षण ख़तम नहीं करेंगे, न करने देंगे”. हिंदुत्व की प्रकाश-स्तम्भ आरएसएस के सरकार्यवाह सुरेश भैया जी जोशी को बयान जारी करना पड़ा कि – “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दलित उत्पीडन रोकथाम को बने क़ानून का कडाई से पालन कराने के पक्ष में है”.

ये वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हैं जिसके सरकार्यवाहक मोहन भागवत ने कभी कहा था-“आरक्षण व्यवस्था सामाजिक न हो कर राजनैतिक है, आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की जरूरत है. एक समुदाय के हित को पूरा करने के लिए दूसरे समुदाय की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. आयोग की तरह गैर-सरकारी, गैर-राजनैतिक समिति बनाकर वर्तमान व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए”.

सत्ता की कुर्सियों पर वर्तमान में, पार्टी के वैचारिक प्रकाश-स्तम्भ की ओर से समय बे-समय दिए जाने वाले इन बयानों से दलित वर्ग का विश्वास सत्ताधारी पार्टी पर जमने के बजाये उखडने लगा है. दलितों के सामने उनकी अस्मिता और आजीविका के मसले हैं. रोजगार के सवाल उफन रहे हैं. सामाजिक न्याय की आवाजों को अनसुना किया जा रहा है. दो अप्रैल को भारत बंद के दौरान, स्वतःस्फूर्त सड़कों पर उतरे युवाओं के तेवरों से सरकार भयभीत हो गई जान पड रही है. सुप्रीमकोर्ट में 20 मार्च को दलित उत्पीडन क़ानून के दुरूपयोग किये जाने की पुष्टि करने वाली सरकार, अब अपनी भूमिका के ठीक उलट; एक पखवाड़ा भी नहीं बीता, यू-टर्न ले लिया है. अब सरकार दलित उत्पीडन क़ानून में हर बदलाव पर ब्रेक लगाने की बात कर रही है. सरकार के इस यू-टर्न को सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह नकारते हुए उसकी पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया. उसके बाद, सरकार, बीजेपी संगठन और हिंदुत्व की प्रकाश-स्तम्भ संस्था भी दलित उत्पीडन क़ानून का कडाई से पालन कराये जाने के समर्थन में मजबूती से खड़े दिखने में ही अपनी खैर समझ रही हैं.

रोहित वेमुला का पत्र

दो साल पहले इसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े – छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के एक सदस्य ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी के 28 वर्षीय शोध (Phd) छात्र रोहित बेमुला और उसके चार अन्य साथियों पर मारपीट करने का आरोप लगाया, जो यूनिवर्सिटी की प्राथमिक जांच में सिद्ध नहीं हुआ. ये शिकायत तो महज बहना था. रोहित अम्बेडकर स्टुडेंट्स एसोसिएशन का सदस्य था. इस संगठन ने फिल्म “मुजफ्फरनगर बाकी है” के प्रदर्शन के दौरान हुए हमले के विरोध में एक जुलूस निकाला था. उससे पहले याकूब मेनन की फांसी के मामले में बहस छेड़ी, जिसमें मृत्यु दण्ड का विरोध किया गया था. जिस कुलपति के कार्यकाल में मारपीट का आरोप सिद्ध नहींं हुआ, उनके जाने और नये कुलपति के आने के बाद, बिना किसी नई जांच, बिना किसी नई वजह बताये, उस फैसले को उलट दिया गया. रोहित और उसके साथियों को होस्टल से निकाल दिया गया. अब पांंचों को अपनी पढाई जारी रखने के लिए, सर पर खुले आसमान का ही साया रह गया था. होस्टल और अन्य सार्वजनिक जगह इनके लिए प्रतिबंधित कर दी गई. पढाई के नुकसान की भरपाई तो किसी तरह कर भी ली जाती लेकिन जो जलालत, मानसिक प्रताड़ना और हास्यास्पद स्थिति मानो ईंट-ईंट उपहास उडा रही हो और कह रही हो  – “दलित हो अपनी औकात पहचानो.”

रोहित बेमुला आत्महत्या प्रकरण ताजा नहीं है. वर्ष 2016 की 17 जनवरी का है. इतना विस्तार से देने की जरूरत नहींं थी, लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि जब किसी ख़ास राजनैतिक विचारधारा को सत्ता का संरक्षण मिलने लगता है; तो जुल्म करने वाला अपने को न्यायाधीश समझने लगता है. क्या कलबुर्गी, पंसारे, दाभोलकर, गौरीलंकेश आदि-आदि ऐसे ही “न्यायाधीशों” का शिकार नहींं हुए ?

हिन्दू” शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दुत्ववादी संस्था की अपनी नितांत निजी गढ़ी हुयी है, जिसमें समय के साथ, उसके संचालक, उसकी परिभाषा को व्यापक बनाने में अपना योगदान देते रहे हैं. आप यदि उनके सांंचें में ढली परिभाषा के उद्भव के प्रमाण, यदि इतिहास की विश्व में मान्य किसी पुस्तक या वर्तमान में विश्व में ख्यात इतिहासकार से विमर्श कर पड़ताल करना चाहें तो, प्रमाण की परछाईं भी आपके हाथ नहींं लगेगी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्तमान सर संघ चालाक मोहन भगवत तक पहुंंचते पहुंंचते “हिन्दू” शब्द की व्यापकता का एक नमूना उन्हींं के शब्दों में-

“ये हिन्दू शब्द किसी भाषा को लेकर नहीं बना है, किसी पूजा को लेकर नहीं बना है, किसी विशिष्ट जाति को लेकर नहींं बना है, सम्पूर्ण विश्व की सारी विविधताओं को स्वीकार और सम्मान करके, सबको अपना मानकर वसुधैवकुटुम्बकम कहते हुए सबका भला करने के लिए जीवन जीने की जो पद्धति है, उसको शब्द मिला है, दुनियांं ने दिया है … हिन्दू शब्द से जाना जाने वाला देश अखंड भारत है.”

कर्णप्रीय, उपरोक्त परिभाषा से, आप अपना सर खपा के कुछ “नवनीत” निकाल सके; इस भावना से यहांं दी है. मेरे कानों में जयपुर के चित्रकूट स्टेडियम में स्वर गोविन्दमगोविन्दम् की ऑडियो-वीडियो क्लिप जो गूगल पर उपलब्ध है, के स्वर कानों में गूँजते रहते हैं.

ऊना (गुजरात), सब्बीरपुर (सहारनपुर, उ०प्र०), सुनपड़े (फरीदाबाद, हरियाणा), महार जाति शौर्य दिवस (कोरेगाँव भीमा, पुणे, महाराष्ट्र) वगैरह-वगैरह में जो घटा उसने चन्द्र शेखर आजाद उर्फ़ रावण को जन्म दिया. रावण एक व्यक्ति नहींं, किसी उत्पीडित, अपमानित, तिरस्कृत समाज के भीतर ही भीतर उबल रहा वो लावा है, जो अभी फूटा तो नहींं है, पर फूटने से पहले भू-गर्भ में पल रहे लावा की ज्वाला का संकेत अवश्य है. सम्पूर्ण विश्व की सारी विविधताओं वाला हिंदुत्व “दि ग्रेट चमार” को  अपने में समाहित क्यों नहीं कर पा रहा ? कमी किसकी है ?भीम आर्मी के प्रमुख और पेशे से वकील चन्द्रशेखर रावण की या हिन्दू की इस परिभाषा को गढ़ने वालों की ? रावण कहते हैंं- “हमें तो ‘ये’ हिन्दू ही नहीं मानते. रावण ही जाने, उन्होंने ‘ये’ शब्द किसके लिए इस्त्तेमाल किया हैै ?

इटावा से बीजेपी के दलित सांसद अशोक कुमार दोहरे ने प्रधानमन्त्री को लिखे पत्र में कहा है, ”अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के द्वारा बुलाये गए 2 अप्रैल 2018 बंद के बाद अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों पर पूरे भारतवर्ष में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में प्रदेश सरकार एवं स्थानीय पुलिस द्वारा इन वर्गों के लोगों पर चुन-चुन कर अत्याचार एवं झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है. पुलिस निर्दोष लोगों को घरों से निकाल-निकाल कर  जातिसूचक शब्दों, मारपीट व अपमानित करके उनको गिरफ्तार कर रही है. जिससे भारत वर्ष में इन वर्गों (के लोगों) में रोष और असुरक्षा की भावना बढती जा रही है. मामले की गंभीरता को देखते हुए आपसे अनुरोध है कि आप इस बेहद गम्भीर मामले में हस्तक्षेप करें तथा दोषी अधिकारियों के खिलाफ कानूनी तौर पर त्वरित निर्देश जारी करें.”

रोबर्ट्सगंज से बीजेपी के दलित सांसद छोटेलाल खरवार जो खुद उ०प्र० अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष हैंं, कहते हैं कि ”वे खुद अनुसूचित जाति अधिनियम के अंतर्गत थाने में कोई मामला दर्ज नहीं करा पा रहे. एसपी, डीएम, संगठनमन्त्री और भी अनेकोंं देह्रियों पर दस्तक दे दी कोई नहींं सुन रहा. हमने तो सपा सरकार में भी संघर्ष किया था अब अपनी सरकार में भी कर रहे हैं.” मुख्यमन्त्री योगी का व्यवहार उनके प्रति अपमानजनक है. अब उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है.

बहराइच से भाजपा की एक साध्वी सांसद तो काफी दिनों से अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है. उ०प्र० के नगीना क्षेत्र से भाजपा के दलित सांसद डा0 यशवंत सिंह ने प्रधानमन्त्री को पत्र लिख कर कहा है कि “चार साल में सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया.”

ये हालात दर्शाते हैंं कि सरकार और संगठन में सब कुछ ठीक नहींं चल रहा. हो सकता है, दलितों को रिझाने के लिए देर सबेर उ०प्र० में सरकार का नेतृत्व किसी दलित नेता को सौंप दिया जाए.

प्रदेश के उप मुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य ने अपने ताजा बयान में असंतुष्ट गैर भाजपाई दलितों को बाबा साहब के नाम पर दलित हितों के लिए सड़क पर उतर कर सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन करने को गुंडागर्दी करार दिया है. दलित पूछते हैंं बाबा साहब क्या किसी राजनैतिक पार्टी की धरोहर हैं?

-विनय ओसवाल

वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक मामलों के जानकार

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