जन्म | 12 अगस्त 1959 |
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जन्म स्थान | हिमाचल प्रदेश, भारत |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
वे जो लकड़हारे नहीं हैं (2010) | |
विविध | |
प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान (2008) | |
जीवन परिचय | |
सुरेश सेन निशांत / परिचय |
हिन्दी में लोक स्वर कुछ मौकापरस्त पाखंडियों के हाथों कैद होती दिखी, पर प्रतिरोधी स्वरों ने अपनी पुरजोर कोशिशों से लगभग इसे बचा ही लिया. यह सुखद बात है कि अकादमिक निष्फल कवि, आलोचक इसमें असफल हुए और मुख्यधारा की कविता अपनी जीवटता में जीती रही.
वैश्विक साहित्य के पन्नों में उकेरे जितने भी लोकधर्मी कवि हुए हैं, उनमें से – अमरीकन कवि वाल्ट ह्विटमैन, जर्मन कवि बर्टोल्ट ब्रेख्त, रसियन कवि मायकोवस्की, अर्जेन्टीनियाई पाब्लो नेरूदा, स्पेनिश कवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का तथा टर्की के नाज़िम हिकमत की बात करें तो ठीक उन्हीं के परस्पर हिन्दी कविता में भी एक विशाल लोकधर्मी कवियों की परंपरा रही है, जो छायावाद के घोर रूदन और प्रलाप को ध्वस्त कर आए आधुनिक हिन्दी कविता के कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से प्रारंभ होकर केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल, राजेश जोशी व विजेन्द्र तक की परंपरा में ख्याति अर्जित करता दिखता है.
यह संयोग है कि इनका लोक दिल्ली की तरह न वायावी ही हुआ और न बातूनी ही. यहां तक इनका प्रतिरोध भी बनिस्बत इनके अपने कार्यव्यवहार से मानवीय संवेदना को, जीवन व मूल्यों को संरक्षित करता गया. यानी यह आदमी और उसकी आदमियत को जिंदा रख पाने की एक बड़ी कोशिश के रूप में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराते गई.
कहना न होगा इस परंपरा को पोषित करने वाले कवियों के यहां मार-धाड़, छल-प्रपंच से भरा विद्रोह कम; बल्कि ये कवि असीम विश्वास से लबालब भर लौटते रहे जीवन की संभावनाओं का पता लगाते खेत-खलिहान, गंवई-गांव, मिल-मजूरों के संग. ये कवि पार करते रहे तमाम और बमुश्किल अवरोधों को.
हिन्दी कविता का लोकधर्म मुझे दो तरह का दिखलाई पड़ता है. एक वे हैं जो प्रतिरोध की आग को हवा दे रहे हैं और दूसरे वे हैं जो संवेदनागत हैं. इन दूसरे तरह के कवियों के साथ मैं उतना ही खड़ा हो पाता हूं जितना कि पहले तरह के कवियों के साथ होता हूं. बल्कि मैं तो कहना चाहूंगा कि मुझे कविता में यह दूसरे तरह का लोकधर्म कहीं ज्यादा उत्प्रेरित करते हैं, प्रभावित करते हैं.
लोकधर्मी कवियों की इस परंपरा को कुछ महत्वपूर्ण नामों में मैं निराला, केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर तथा विजेन्द्र के अलावा उस परम्परा के कवियों में सुरेश सेन निशांत का नाम इसलिए जोड़ना चाहूंगा कि मैं देख रहा हूं एक तेज़ प्रतिरोधी है, तो दूसरा अपने यथार्थ के असमान्य दबावों, संकटों से जूझ लेने का दुस्साहस से भरा साहसी मनुष्य है. यह कोई कम बात नहीं है.
ये वो कवि हैं तथा इनकी खासियत यह रही कि ये अपने समय के संकटों उसकी जटिलता तथा यथार्थ को यथावत् और सदृश रख प्रश्नाकुल हो स्पेस का रचाव कर रहे होते हैं. समकालीन हिन्दी कविता में सुरेश सेन निशांत का सरोकार यही से बिम्बित होता है –
गेहूं उगेगी
तो लौटेगी
पिता के गुतों में लय
मां की आवाज़ में रस
भाई के चेहरे पर खुशी
गेहूं उगेगी
तो हिन्दी की समकालीन कविता में ऐसा पारदर्शी विश्वास शायद ही और कहीं-कहीं है, यह कहते मुझे तनिक संकोच नहीं है. सुरेश सेन निशांत में जो संवेदनशीलता है वह विरल और यथार्थवाद के काफी निकट का है. उनमें जो उत्साह है अथवा भरोसा है, वह अवश्यंभावी है. एक किसान अथवा उनका परिवार और उनकी निर्भरता उनके द्वारा ऊपजाये जाने वाले फसल पर ही सन्निहित है. कहना न होगा देश के सकल घरेलू उत्पाद में एक बड़ा हिस्सा उनका है पर आंकड़ों के इस देश में सबसे बड़ा शक्तिशाली होकर भी वह निरीह-सा है. सबसे अधिक संकटग्रस्त वही है. सबसे अधिक आत्महत्या वही कर रहा है और तथाकथित जनतांत्रिक सरकारें इस दशा पर निस्पृह हैं. यह कहना लाजिमी होगा कि सरकारें मरी हुई हैं. पर सुरेश सेन निशांत यहां शोर शराबे कर रहे हैं न छाती पीट रहे हैं बल्कि वे विश्वास से भर-उठ कहते हैं –
गेहूं जब अंगुल भर चढ़ेगी
तो पिता को याद आयेगे
पुरखों से सुने हूए गीत
वह उन्हें गुनगुनायेंगे
मां को बादलों और सूरज में
दिखेगा ईश्वर
वह उन्हें पूजेगी
भाई का अपने श्रम पर
बढ़ेगा विश्वास
वह देर तक खडा रहेगा
मुंडेरों पर उनकी चौकीदारी करता हुआ
गेहूं जब अंगुल भर बढ़ेगी
सुरेश सेन की इस कविता में न कोई चमत्कृत फैंटेसी है और न कृत्रिमता, बस केवल एक कृषक परिवार का यथार्थ है. न कोई लब्बो-लुआब छल है न कोई ढकोसला है, है तो सिर्फ एक अपरिमित सत्य. एक ऐसा सत्य जो झकझोरता है, हिलोरता है. मानवीय संभावनाओं को ग्राह्य बनाता है. सुरेश के यहां सब कुछ मानव के सहज वृत्तियों का प्रतिफल है. उनके यहां मां को बहिन का कद बुरा नहीं लगेगा कि पिता लेनदारो के सामने तनकर तभी खड़ा हो पाऐंगे, कि भाई के लाठी में ताकत तभी आ पाएगी जब –
गेहूं की बालियों में
भरने लगेगा जब रस
बहिन का बढ़ता कद
बुरा नहीं लगेगा मां को
तन कर खडे हो जायेंगे
पिता लेनदारों के सामने
भाई की लाठी में
लौट आएगी ताकत
गेहूं की बालियों में
भरने लगेगा रस
सुरेश के यहां सामूहिक चेतना का हौसलाई समाज है. एक-दूसरे में आबद्ध और वही उनकी ताकत भी हैं. आवाज है और लाउड नहीं है कि सुरेश कहते हैं –
गेहूं के बीजों तुम सभी उगना
एक दूसरे को हौसला देते हुए
गेहूं के पौधों
बेधड़क बढना हर दिन अंगुल भर तुम
हंसना खूब
पहरेदारी मे खडा मिलेगा तुम्हें भाई
पुरखों के गीतों को
लोरी की तरह गुनगुनाते हुए
गुज़रेंगे तुम्हारे सामने से पिता
मां तुम्हारी ही कुशलता के लिए
मांगेगी दुआ
गेहूं की बालियां
खूब लहराना तुम
अपने ही भार से इस तरह झुकना
कि लेनदार खिसियाते गुजरे
हमारे आंगन के पास से
सुरेश सेन पर यदि विजेद्र जी लिखते हैं निशान्त हमारे समय के महत्वपूर्ण लोक धर्मी कवि है तो हिन्दी के समीक्षकों का उधर ध्यान जाना जरूरी है. असहमति का तो प्रश्न ही नहीं उठता. निशान्त हमारे समय के व नवें दशक के उत्तरार्ध के महत्वपूर्ण लोकधर्मी कवि हैं. ‘गेहूं’ कविता उनके कविता संग्रह ‘कुछ थे जो कवि थे’ से है वह अन्य के लिए –
गेहूं
गेहूं उगेगी
तो लौटेगी
पिता के गुतो में लय
मां की आवाज़ में रस
भाई के चेहरे पर खुशी
गेहूं उगेगी तो
गेहूं जब अंगुल भर चढ़ेगी
तो पिता को याद आयेंगे
पुरखो से सुने हूए गीत
वह उन्हें गुनगुनायेंगे
मां को बादलों और सूरज में
दिखेगा ईश्वर
वह उन्हें पूजेगी
भाई का अपने श्रम पर
बढ़ेगा विश्वास
वह देर तक खड़ा रहेगा
मुंडेरो पर उनकी चौकीदारी करता हुआ
गेहूं जब अंगुल भर बढ़ेगी
गेहूं की बालियो में
भरने लगेगा जब रस
बहिन का बढ़ता कद
बुरा नही लगेगा मां को
तन कर खडे हो जायेंगे
पिता लेनदारो के सामने
भाई की लाठी में
लौट आएगी ताकत
गेहूं की बालियो में
भरने लगेगा रस
गेहूं के बीजो तुम सभी उगना
एक दूसरे को हौसला देते हुऐ
गेहूं के पौधों
बेधड़क बढना हर दिन अंगुल भर तुम
हंसना खूब
पहरेदारी मे खड़ा मिलेगा तुम्हे भाई
पुरखो के गीतो को
लोरी की तरह गुनगुनाते हुए
गुजरेगे तुम्हारे सामने से पिता
मां तुम्हारी ही कुशलता के लिए
मांगेगी दुआ
गेहूं की बालियां
खूब लहराना तुम
अपने ही भार से इस तरह झुकना
कि लेनदार खिसियाते गुजरे
हमारे ऑगन के पास से
राम
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बहुत गहरे तक
मेरे अंतस में बैठी है
मानस की चौपाइयाँ गाती
रामलीला की वह नाटक-मंडली
कसकर पकड़े हुए हूं
दादी माँ की अँगुली
लबालब उत्साह से भरा
दिन ढले जा रहा हूं
रामलीला देखने
बहुत गहरे तक
दादी माँ की गोद में मैं धँसा हुआ हूं
नहा रहा हूं
दादी की आंखों से
झरते आंसुओं में
राम वनवास पर हैं
राम लड़ रहे हैं
राक्षसों से
राम लड़ रहे हैं
दरबार की लालची इच्छाओं से
राम लड़ रहे हैं अपने आप से
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूं मैं उस राम में
बचपन में पता नहीं
कितने ही अंधेरे भूतिया रास्ते
इसी राम को करते हुए याद
किए हैं पार
बचाई है इस जीवन की
यह कोमल-सी सांस वह
राम
जिसे ‘छोटे मुहम्मद’ निभाते रहे
लगातार ग्यारह साल
कस्बे की रामलीला में
छूती थीं औरतें श्रद्धा से जिसके पांव
अभिभूत थे हम बच्चे
उस राम के सौंदर्य पर
पता नहीं कब बंद हो गईं
वे रामलीलाएं
पता नहीं कब वह राम
मुसलमान में हो गया परिवर्तित
डरा-डरा गुज़रता है आजकल
रामसेवकों के सामने
उस रामलीला के पुराने
मंच के पास से वह राम
वैसे मेरा वह राम
मानव की चौपाइया
आज भी उतनी तन्मयता से गाता है
उतनी ही सौम्य है
अभी भी उसकी मुस्कान
उतना ही मधुर है
अभी भी उसका गला
पर दिख ही जाती है उदासी
उसकी आंखों में तिरते
उस प्यार-भरे जल में छुपी
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूं मैं उस शाम में
कागज़
इस काग़ज़ पर
एक बच्चा सीखेगा ककहरा
एक मां की उम्मीदें
इस काग़ज़ पर उतरेंगी
चिड़ियां की तरह
दाना चुगने के लिए
एक पिता देखेगा
अपने संग बच्चे का भविष्य
संवरता हुआ
इस काग़ज़ पर सचमुच
एक लड़का सीखेगा ककहरा
एक कवि लिखेगा कविताएं
इस काग़ज़ पर
एक-एक शब्द को लाएगा
गहन अंधेरों से ढूंढकर
हज़ारों प्रकाश-वर्ष की दूरी
तय करेगा इस छोटे से काग़ज़ पर
अपनी चेतना की
रौशनाई के सहारे
एक-एक पंक्ति को
कई-कई बार लिखेगा
तपेगा दुःख की भट्टी में
कितने ही रतजगे होंगे उसके
इस काग़ज़ के भीतर
सदियों बाद भी
किसी कबीर का
तपा-निखरा चेहरा झांकता मिलेगा
इसी तरह के किसी काग़ज़ पे
इस काग़ज़ पर
लिखे जाएंगे अध्यादेश भी
इस काग़ज़ पर
कोई न्यायाधीश
लिख देगा अपना निर्णय
क़ानून की किसी धारा के तहत
और सो जाएगा
मज़े से गहरी नींद
इस काग़ज़ पर
एक औरत लिखना चाहेगी
अपने मन और ज़िस्म पे हुए
अनाचार की कथा
इस काग़ज़ पर
एक दूरदर्शी संत लिखेगा उपदेश
जिन पे वह ख़ुद कभी भी
नहीं करेगा अमल
एक मज़दूर लिखेगा चिट्ठी
इस काग़ज़ पर
अपने घर अपनी कुशलता की
आधी सदी के बाद भी
किसी स्त्री के संदूक में
सुरक्षित मिलेगा यह काग़ज़
इस काग़ज़ से
एक बच्चा बनाएगा कश्ती
और सात समन्दर पार की
यात्रा पे निकल जाएगा
देश कोई रिक्शा तो है नहीं
देश कोई रिक्शा तो है नहीं
जो फेफड़ों की ताक़त की दम पे चले
वह चलता है पैसों से
सरकार के बस का नहीं
देना सस्ती और उच्च शिक्षा
मुफ़्त इलाज भी
सरकार का काम नहीं
कल को तो आप कहेंगे
गिलहरी के बच्चे का भी
रखे ख़याल सरकार
वे विलुप्त होने की कगार पे हैं
परिन्दों से ही पूछ लो
क्या उन्हें उड़ना
सरकार ने सिखाया है..?
क्या उनके दुनके में
रत्ती-भर भी योगदान है सरकार का
जंगल में
बिना सरकारी अस्पताल के
एक बाघिन ने
आज ही दिया जन्म
तीन बच्चों को
एक हाथी के बच्चे ने
आज ही सीखा है नदी में तैरना
बिना सरकारी योगदान के
पार कर गया नीलगायों का झुण्ड
एक खौफ़नाक बहती नदी
सरकार का काम नहीं है
कि वो रहे चिन्तित
उन जर्जर पुलों के लिए
जिन्हें लांघते हैं हर रोज़
ग़रीब गुरबा लोग
सरकार के पास नहीं है फुर्सत
हर ग़रीब आदमी की
चू रही छत का
रखती रहे वह ख़याल
और भी बहुत से काम है
जो करने हैं सरकार को
मसलन रोकनी है महंगाई
भेजनी है वहां सेना
जहां लोग बनने ही नहीं दे रहे हैं
सेज
सरकार को चलाना है देश
वह चलता है पैसों से
और पैसा है बेचारे अमीरों के पास
आज ही सरकार
करेगी गुज़ारिश अमीरों से
कि वे इस देश को
ग़रीबी में डूबने से बचाए
देश की भलाई के लिए
अमीर तस्करों तक के आगे
फैलाएगी अपनी झोली
बदले में देगी
उन्हें थोड़ी-सी रियायतें
क्योंकि देश कोई रिक्शा तो नहीं
जो फेफड़ों की ताक़त के दम पे चलें
वह तो चलता है पैसों से
सेब
सेब नहीं चिट्ठी है
पहाड़ों से भेजी है हमने
अपनी कुशलता की
सुदूर बैठे आप
जब भी चखते हैं यह फल
चिड़िया की चहचहाहट
पहाड़ों का संगीत
धरती की ख़ुशी और हमारा प्यार
अनायास ही पहुँच जाता है आप तक
भिगो देता है
ज़िस्म के पोर-पोर
कहती है इसकी मिठास
बहुत पुरानी और एक-सी है
इस जीवन को ख़ुशनुमा बनाने की
हमारी ललक.
बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी आँखों में बैठे इस जल में
झिलमिलाती प्यार भरी इच्छाएं.
पहाड़ों से हमने
अपने पसीने की स्याही से
ख़ुरदरे हाथों से
लिखी है यह चिट्ठी
कि बहुत पुराने और एक-से हैं
हमारे और आपके दुख
तथा दुश्मनों के चेहरे
बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी खुद्दारी और हठ
धरती के हल की फाल से नहीं
अपने मज़बूत इरादों की नोक से
बनाते हैं हम उर्वरा.
उकेरे हैं इस चिट्ठी में हमने
धरती के सबसे प्यारे रंग
भरी है सूरज की किरणों की मुस्कान
दुर्गम पहाड़ों से
हर बरस भेजते हैं हम चिट्ठी
संदेशा अपनी कुशलता का
सेब नहीं
पीठ
यह दस वर्ष के लड़के की पीठ है
पीठ कहां हरी दूब से सजा
खेल का मैदान है
जहां खेलते हैं दिन भर छोटे-छोटे बच्चे
इस पीठ पर
नहीं है क़िताबों से भरे
बस्ते का बोझ
इस पीठ को
नहीं करती मालिश माताएं
इस पीठ को नहीं थपथपाते हैं उनके पिता
इस दस बरस की नाज़ुक-सी पीठ पर है
विधवा मां और
दो छोटे भाइयों का भारी बोझ
रात गहरी नींद में
इस थकी पीठ को
अपने आंसुओं से देती है टकोर एक मां
एक छोटी बहिन
अपनी नन्हीं उंगलियों से
करती है मालिश
सुबह-सुबह भरी रहती है
उत्साह से पीठ
इस पीठ पर
कभी-कभी उपड़े होते हैं
बेत की मार के गहरे नीले निशान
इस पीठ पर
प्यार से हाथ फेरो
तो कोई भी सुन सकता है
दबी हुई सिसकियां
इतना सब कुछ होने के बावजूद
यह पीठ बड़ी हो रही है
यह पीठ चौड़ी हो रही है
यह पीठ ज़्यादा बोझा उठाना सीख रही है
उम्र के साथ-साथ
यह पीठ कमज़ोर भी होने लगेगी
टेढ़ी होने लगेगी ज़िन्दगी के बोझ से
एक दिन नहीं खेल पाएंगे इस पर बच्चे
एक दिन ठीक से घोड़ा नहीं बन पाएगी
होगी तकलीफ़ बच्चों को
इस पीठ पर सवारी करने में
वे प्यार से समझाएंगे इस पीठ को
कि घर जाओ और आराम करो
अब आराम करने की उम्र है तुम्हारी
और मंगवा लेंगे
उसके दस बरस के बेटे की पीठ
वह कोमल होगी
ख़ूब हरी होगी
जिस पर खेल सकेंगे
मज़े से उनके बच्चे
- आभार विजेन्द्र (कविता कोश)
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