रविश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
स्नातक की परीक्षा में कई छात्र प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देते हैं. उत्तर के नाम पर पन्ना भर देते हैं. घंटी बजने तक लिखते रहते हैं. पन्नों को भरते रहते हैं. इस तरह के छात्र कभी स्वीकार नहीं करते कि उन्हें प्रश्नों के उत्तर मालूम नहीं है. कई बार उन्हें प्रश्न भी समझ नहीं आता. बस ख़ाली पन्ना जहां तक दिखता है वहां तक लिखते चले जाते हैं.
यह उदाहरण इसलिए दिया ताकि आप संसद के दोनों सदनों में दिए गए प्रधानमंत्री के भाषण को ठीक से समझ पाएं. दोनों भाषणों में कृषि कानूनों के संदर्भ में उनकी बातों को एक जगह रखें तो आपको उन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं जो पिछले सात-आठ महीने से चले आ रहे किसान आंदोलन के दौरान उठाए गए हैं. लेकिन पहली नज़र में पूरा भाषण सुन कर और पढ़ कर ऐसा लगता है कि कृषि कानूनों के संदर्भ में सारे जवाब दे दिए गए हैं, उस विद्यार्थी की तरह जिसे या तो प्रश्न का उत्तर नहीं पता था या प्रश्न ही समझ नहीं आया, या फिर उत्तर ही नहीं देना था, बस पन्ना भर कर बाहर आ जाना था. प्रधानमंत्री ने आज वही किया.
दोनों भाषणों में कहीं भी आढ़ती या बिचौलिया शब्द का ज़िक्र नहीं है. लोकसभा के भाषण में एक जगह मिडलमैन का ज़िक्र आया मगर वो इस कानून के संदर्भ में फिट नहीं बैठता है. पूरे भाषण में प्रधानमंत्री अनुबंध कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) और उससे जुड़ी आशंकाओं पर कुछ नहीं बोलते हैं. पूरे भाषण में प्रधानमंत्री भंडारण को लेकर बने कानून और इस सेक्टर को चंद उद्योगपतियों के हाथ सौंप देने की आशंकाओं के बारे में नहीं कुछ नहीं बोलते हैं. पूरे भाषण में प्रधानमंत्री कहीं नहीं बोलते हैं कि प्राइवेट बाज़ार में उन्हें कीमत किस आधार पर मिलेगी ? बस कहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा. यह नहीं बताते कि मंडी के सामने खुलने वाली प्राइवेट मंडी में भी जारी रहेगा या नहीं ?
लोकसभा में प्रधानमंत्री ज़ोर देकर कहते हैं कि ज़बरन कानून नहीं थोपा है. एक और विकल्प दिया है. लेकिन इसका जवाब नहीं देते कि नए विकल्प में किसानों को दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक मिलेगा या मिल सकता है ?
सरकार और किसान नेताओं के बीच दस दौर से अधिक की बातचीत हो गई होगी. क्या इस बातचीत में किसानों ने कहीं भी कोई ऐसी आपत्ति या आशंका नहीं जताई होगी जिसका जवाब प्रधानमंत्री दे सकते थे ? प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं के भाषण के बारे में कहा कि उनमें मंशा अधिक थी, तत्व कम थे. इंटेट की बात हुई लेकिन कंटेंट नहीं था.
इस तरह से वे सारे भाषणों को सिरे से नकार देते हैं जिन भाषणों के बारे में शुरू करते हुए कहते हैं कि अच्छी चर्चा हुई. लोकसभा में राज्यसभा की तारीफ कर रहे थे तो वहां के किसी सांसद ने कोई विशिष्ट आपत्ति उठाई होगी, उसी का जवाब दे देते. प्रधानमंत्री विपक्ष के भाषणों को धारणा से ग्रसित बताते हैं और खुद धारणा से ग्रसित होकर विपक्ष पर जवाब देने लगते हैं.
दोनों भाषणों को सुन कर यही लगा कि प्रधानमंत्री कुछ नया नहीं कह रहे हैं. वही कह रहे हैं जो सरकार पहले दिन से इस आंदोलन के जवाब में कह रही है. वही कह रहे हैं जो सरकार किसानों के साथ बातचीत शुरू होने से पहले से कह रही थी और बातचीत के दौरान और बाद में कहती आई है। प्रधानमंत्री छोटे किसानों के लिए लाया गया कानून बताते हैं मगर कानून के बारे में बात नहीं करते हैं.
वे कानून का बचाव करते हैं लेकिन कानून की धाराओं की खूबियां बताते हुए नहीं बचाव नहीं करते हैं. सरकार के दूसरे फैसलों से पन्ना भरते हैं. मृदा स्वास्थ्य कार्ड, नीम जड़ित यूरिया, फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड सहित कई तरह की योजनाओं को गिनाने लगते हैं. जबकि इनमें से हरेक योजना पर अलग से बात हो सकती है और इनकी सीमाओं और कमियों के बारे में बात हो सकती है. इनमें से कुछ विवादित भी हैं और दावों में ही सफल नज़र आती हैं.
प्रधानमंत्री बेहद चतुराई से सभी योजनाओं की सफलता-असफलता को अपने भाषण से ढंक देते हैं. सफल भी हो जाते हैं क्योंकि किसी सामान्य पाठक या दर्शक के बस की बात नहीं है कि वह उन तथ्यों की जांच करे. प्रधानमंत्री स्नातक के उस परीक्षार्थी की तरह पन्ना भरे जा रहे थे. पूरा भाषण इस ढांचे पर आधारित था कि इतना बोल दो इतना बोल दो कि तथ्यों की जांच करने वाला भी हांफ जाए और ख़बर छापने और लिखने का समय निकल जाए. गोदी मीडिया के ज़माने में आप अगले दिन भी उन दावों की समीक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते हैं. प्रधानमंत्री जानते हैं कि वे जो भी कहते हैं कि एकतरफा और निर्विरोध छपता चला जाता है और दर्शकों के बीच पहुंच जाता है.
लोकसभा में प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण की ज़ोरदार वकालत की. बाबूशाही पर हमला करते हैं और कहते हैं कि बाबू अगर देश के हैं तो युवा भी तो देश के हैं. संपदा सृजन करने वालों की बात करते हैं जो नौकरियां दे सकें. इस काम में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां कैसे रुकावट बन रही हैं, यह नहीं बताते हैं.
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण से कितनों को रोज़गार मिलेगा यही बता देते और एक आंकड़ा रख देते कि उनकी सरकार में जितनी भी कंपनियों का निजीकरण हुआ है, उनमें नौकरियां बढ़ी हैं या घटी हैं ? रोज़गार के नाम पर निजीकरण के फैसले के बचाव में पन्ना भर कर निकल गए.
प्रधानमंत्री कुछ भी बोल कर निकल सकते हैं क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में उनके समर्थक आज भी निजीकरण के विरोधियों पर भारी पड़ जाएंगे. जिन कंपनियों में निजीकरण का विरोध हो रहा है, वहीं पर मतदान हो जाए तो प्रधानमंत्री मोदी जीत जाएंगे. ऐसा विरोध करने वाले ही कहते हैं कि उनकी कंपनी के भक्त समझ नहीं रहे हैं.
2014 से लेकर आज तक प्रधानमंत्री ने रोज़गार के आंकड़े नहीं दिए हैं. यह ठीक है कि बेरोज़गारों में वे लोकप्रिय हैं और नौकरी नहीं देने पर भी वोट उन्हीं को मिलेगा लेकिन तब भी यह सवाल तो है कि 2019 के चुनाव से पहले 40 साल में सबसे अधिक बेरोज़गारी के आंकड़े की रिपोर्ट के साथ क्या हुआ था ? रोज़गार के आंकड़े देने की नई व्यवस्था बनाने की बात की गई थी जिसका आज तक पता नहीं है.
प्रधानमंत्री के भाषण का लिखा हुआ हिस्सा आप राज्य सभा और लोकसभा की वेबसाइट से निकाल कर पढ़ें.आपको पता चलेगा कि कई मिनट तक वे भारत क्या है, भारत के बारे में क्या सोचा जाता है इन पर सब बोलते रहते हैं. ठीक उसी तरह जैसे विश्वविद्यालय की वाद विवाद प्रतियोगिताओं में भूमिका बांधी जाती है. भारत पर विचार से समां बांधते हैं ताकि लोगों को लगे कि किसी दार्शनिक का बयान आ रहा है.
प्रधानमंत्री राजनीतिक रुप से अजेय हो सकते हैं. चुनावी गणित में अपने भाषणों से विपक्ष और आलोचकों को हरा सकते हैं लेकिन जिन भाषणों से वे चक्रवर्ती हो कर निकले हैं ,उन्हीं भाषणों में वे पराजित भी नज़र आते हैं. अपने ही भाषणों में लड़खड़ाते नज़र आते हैं.
महफिल जीतने वाले वक्ता को पता होता है कि उसने घुमा-फिरा कर बातों से प्रभावित किया या सीधा साफ-साफ बोल कर किया. अगर कृषि कानूनों के प्रावधानों को लेकर ही जवाब देते तो कहा जाता कि साफ-साफ जवाब दिया. घुमावदार लच्छेदार बातों के बारे में श्रोता को पता होता है. ऐसी बातें कब कहीं जाती है ? क्यों कही जाती है ?
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