अमेरिका के 48 प्रतिशत वोटर्स ने ट्रम्प को वोट किया है और ट्रम्प की कोरोना के संबंध में क्या सोच है, यह हम सब अच्छी तरह से जानते हैं. इसका मतलब साफ है कि अमेरिका जिसे बेहद समझदार मुल्क माना जाता है जो तकनीक और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया को लीड करता है, वहांं की 48 फीसदी आबादी कोरोना को फर्जी महामारी मानती है, उसे हॉक्स मानती है, वो भी तब जब दुनिया मे सबसे अधिक कोरोना केस अमेरिका में ही पाए गए हैं और मौतें भी सबसे अधिक वही हुई है.
48 फीसदी अमेरिकी जनता का ट्रम्प का साथ देना एक बहुत बड़ी घटना है क्योंकि पश्चिमी मीडिया यहांं हमें अब तक यही बात बता रहा था कि ट्रम्प तो बुरी तरह से हारने वाले हैं जबकि सच्चाई अब हमारे सामने है और वो यह है कि वोट काउंटिंग को तीन दिन हो चुके हैं और आज भी वह मुकाबले में बने हुए हैं और डर है कि वह कहीं वापसी नहीं कर जाए. यहांं भारत में यह पढ़कर बहुत से लोग हंसेंगे लेकिन उस से सच्चाई नहीं बदल जाएगी. आप 48 फीसदी आबादी के समर्थन को खारिज नहीं कर सकते.
ऐसा नहीं है कि भारत का आम आदमी इस बात को नहीं समझता, लेकिन वह इस बारे में खुल कर अपने विचार व्यक्त नहीं करता. उसे लगता है कि उसने खुलकर अपनी बात रखी और जोर-शोर से कोरोना को हॉक्स कहा, लॉकडाउन जैसे मूर्खतापूर्ण उपायों का विरोध किया तो उसे पुलिस पकड़ कर ले जाएगी जबकि पूरे यूरोप में लॉकडाउन का प्रयोग करने के विरोध में जनता स्वत:स्फूर्त प्रदर्शन कर रही है. ऐसा क्यों है ? क्या आपने कभी जानने की कोशिश की ?
दरअसल आधुनिक युग में भारत में कोई महामारी की बात पहली बार ही सामने आयी है लेकिन यूरोप में महामारियों के नाम पर डराने का सिलसिला बहुत पुराना है. सबसे पहले पाश्चात्य जगत में एड्स का भय फैलाया गया. फिर 2002 में सार्स (SARS) आया जो तेजी से 29 देशों में फैल गया. कमाल की बात यह है कि ये भी कोरोना वायरस परिवार से ही संबंधित बीमारी थी लेकिन यह वायरस आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया. शायद तब विश्व की आर्थिक परिस्थितियां इस बीमारी का बोझ उठाने के काबिल नहीं थी.
2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद आयी स्वाइन फ्लू चर्चा में आया, 2009 में इस पैनडेमिक को बहुत बड़ी आपदा के रूप में देखा जा रहा था. इस बीमारी का भी यूरोप अमेरिका में बहुत हल्ला मचा. यूरोप की सरकारों ने हजारों करोड़ की डील दवा निर्माताओं कम्पनियों से वैक्सीन और दवाओं के लिए की. बाद में पता चला कि यह बीमारी उतनी बड़ी बिल्कुल भी नहीं थी जितना कि उसे बताया गया. बड़े पैमाने पर सरकारी भ्रष्टाचार के प्रकरण सामने आए. वहांं का आम आदमी समझ चुका था कि यह सिर्फ डराने की ही बात थी.
2012 में एक और जानलेवा कोरोना वायरस मर्स-कोव (मिडल ईस्ट रेसिपेरिटरी सिंड्रोम) का प्रकोप सामने आया. अब लोग वहांं ऐसे वायरस की सच्चाई के बारे में अवेयर हो चुके थे. फिर आया इबोला वायरस जिसके बारे में भी अनेक दुष्प्रचार किये गए लेकिन इतने सारे महामारियों के अनुमान से यूरोप अमेरिका की जनता में एक समझ विकसित हो गयी थी.
और जब 2020 में जब कोविड 19 का ख़ौफ़ फैलाया गया और कुछ बिके हुए पब्लिक हैल्थ एक्सपर्ट लॉकडाउन जैसे बेवकूफ़ाना उपायों की अनुशंसा की तो शुरुआत में तो कोई कुछ नहीं बोला लेकिन बाद में बड़ी संख्या में जनता ऐसे उपायों के खिलाफ हो गयी और अपने अनुभवों के आधार पर कोरोना को हॉक्स बताने लगी.
मुझे बस एक बात नहीं समझ में आ रही है. UN की संस्था यूनिसेफ़ ने एक संयुक्त अध्ययन में पाया कि दुनिया के लगभग तीन अरब लोग (वैश्विक आबादी का 40 फ़ीसद) विकासशील देशों में रह रहे हैं, जिनके पास ‘बुनियादी हाथ धोने की सुविधा’ तक नहीं है. तो आखिर ये लोग पिछले 8 महीने से कोरोना जैसे घातक वायरस से कैसे बचे हुए हैं ?
लेकिन भारत की जनता तो छोड़िए यहांं का बुद्धिजीवी वर्ग भी इसके बारे कोई स्पष्ट सोच विकसित नही कर पाया. इसलिए यहांं शुरुआत में हम सभी बिलकुल हक्के बक्के रह गए और अभी बहुत से लोग सारी सिचुएशन को जानते-बुझते भी चुप्पी साधे हुए हैं.
सरकारी कोरोना टेस्टिंग का गुजरात मॉडल. अब तक दसियों खबरें आ चुकी है कि कोरोना की जांंच में फर्जीवाड़ा हो रहा है. वैसे कोरोना टेस्टिंग का सच तो यह है अगर आप सरकारी लैब से कोरोना टेस्ट कराएंगे तो बहुत सम्भव है कि यदि आपका टेस्ट पॉजिटिव आया हो तो उसे निगेटिव बता दिया जाए. और यदि आपने प्राइवेट लैब से टेस्ट कराया हो तो आपका निगेटिव सैम्पल भी पॉजिटिव बतला दिया जाए. कोरोना में प्राइवेट वाले तो माथा देखकर तिलक कर रहे हैं लेकिन सरकारी फर्जीवाड़े भी कुछ कम नही है
दैनिक भास्कर ने गुजरात में एक बड़े कोरोना घोटाले को एक्सपोज किया है जहां पॉजिटिव मरीजों को सरकारी कागजों में निगेटिव करार दे दिया गया.
भास्कर ने राजकोट-जामनगर में रेपिड किट से किए एक 3.5 लाख टेस्ट के रिकॉर्ड को क्रॉस चेक किया और उसमें से कई मरीजों से फोन पर बात की तो फर्जीवाड़े का पता चला. राजकोट मनपा, राजकोट ग्राम्य और जामनगर इन तीनों जगहों पर कोरोना के मामले कम बताने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए गए.
जामनगर में 19 अक्टूबर को दोपहर 1.39 पर जिला आरोग्य कचहरी की ई-मेल आईडी dso.health.jamnagar gmailcom से जामनगर के सभी THO को ई-मेल किया था. इसमें लिखा था कि ‘इसके साथ अटैच लिस्ट के हिसाब से पोर्टल में एंटीजन निगेटिव की एंट्री करनी है और भूल से एक भी पॉजिटिव की एंट्री न हो. मेल के नीचे डॉ. बीपी मणवर का नाम है, जिसमें अटैच लिस्ट में 900 मरीजों के नाम हैं.
इसका मतलब साफ है कोरोना टेस्टिंग पूरी तरह से सरकार के कंट्रोल में है. जब चाहे रिकवरी रेट को बढ़ता हुआ बता दो, जब चाहे उसे गिरा दो, जब चाहे जिले में कोरोना कंट्रोल में बता दो, जब चाहे दूसरी-तीसरी लहर की घोषणा कर दो.
पिछले दिनों एक निजी कोरोना टेस्टिंग लैब ने जिसकी भारत भर में शाखाएं फैली हुई है, उसके MD ने स्पष्ट रूप से कहा था कि बहुत से जिलों में सरकारी अधिकारी उन पर मनचाहे रिजल्ट देने के लिये दबाव डालते हैं. मैं हमेशा यही कहता हूँ कि कोरोना एक बीमारी जरूर हो सकती है लेकिन महामारी यह राजनीतिक ही है.
लेकिन यूरोप अमेरिका में लोग जागरूक हैंं और ट्रम्प ऐसी ही जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. उन्हें इतना बड़ा जन समर्थन मिलना यह दिखाता है कि उनकी बात में भी दम हैं और भारत के बुध्दिजीवियों को कोरोना के बारे में दुबारा सोचना होगा.
- गिरीश मालवीय
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