कौन कहता है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती ? अगर सलीके से काम लिया जाये और भारतीय जनता पार्टी वाली दिमाग और कार्यशैली हो तो काठ की हांडी की कौन कहें, कागज की हांडी या यौं कहें हवा की हांडी भी न केवल बार-बार चढ़ती है बल्कि उसमें भ्रष्टाचार की खिचड़ी भी बेमिशाल पकती है.
आज से करीब 32 साल पहले महान व्यंगकार हरिशंकर परसाई द्वारा रचित एक व्यंग रचना की तुलना आज के वर्तमान हालात में की जाये तो आपको कोई अन्तर नहीं मिलेगा. इससे हरिशंकर परसाई की दूरदृष्टि और भाजपा की हवा की हांडी की करामात साफ हो जायेगी. आइये देखते हैं हरिशंकर परसाई ने आज से 32 साल पहले क्या कहा था.
‘‘ साधो, भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन करने वाली है. सबसे निरर्थक आन्दोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आन्दोलन होता है. भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से काई नहीं डरता. एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनैतिक पार्टी कभी-कभी खेल लेती है, जैसे कबड्डी का मैच. इससे न सरकार घबराती है, न भ्रष्टाचारी घबराते, न मुनाफाखोर, न कालाबाजारी. सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं.
‘‘ साधो, भारतीय जनता पार्टी के सामने भी यही भयंकर सवाल है-करें तो करें क्या ? पहले यह पार्टी जनसंघ थी और गोरक्षा-जैसे उत्तेजक आन्दोलन करती थी. मगर वह गया अब दूध नहीं देती, सिर्फ गोबर देती है. इसलिए वह विनोवा के आश्रम में पड़ी-पड़ी जुगाली करती है. भारतीय जनता पार्टी आन्दोलन न करें तो पार्टी की इमेज कैसे रहे ? विदेशनीति पर आन्दोलन कर नहीं सकती. धर्म-परिवर्तन पर आन्दोलन के लिए जोरदार वातावरण ही नहीं बना. मजदूर आन्दोलन कर नहीं सकती क्योंकि यह कम्युनिस्टों की हरकत है. मजबूर होकर उसे भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन करना पड़ रहा है.
‘‘ साधो, वैसे भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए सबसे काबिल पार्टी भारतीय जनता पार्टी ही है. इसमें कोई भ्रष्टाचारी नहीं है. इस पार्टी में व्यापारी बहुत हैं, मगर वे सब भ्रष्टाचारहीन लोग हैं. ठकेदार हैं, वे भी भ्रष्टाचारी नहीं हैं. सरकारी नौकर हैं, वे भी भ्रष्टाचार नहीं करते. जब भारतीय जनता पार्टी का जुलूस निकला है या सभी होती है, तो उसमें छंटे हुए सदाचारी और ईमानदार लोग होते हैं. तुम साधु, कभी-भी दुष्टों की तरह बात करते हो. कहते हो कि एक कालाबाजारी भी क्या भारतीय जनता पार्टी का सदस्य होने से ईमानदार बन जाता है ? मैं कहता हूं कि हो जाता है. यह एक आध्यात्मिक चमत्कार है. अब तुम कहोगे कि गुरू, जब यह पार्टी जनसंघ नाम से जनता सरकार में थी, तब क्या ये लोग भ्रष्टाचार नहीं करते थे. कितने कांडों की चर्चा तब चलती थी. साधो, वह सब भ्रष्टाचार नहीं था. एक नाटक था, लोक-शिक्षा के लिए. जनता को शिक्षित किया जा रहा था कि राजनैतिक पद पर रहकर भ्रष्टाचार कैसे होता है.
‘‘साधो, भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन कैसे होगा ? वैसे ही होगा जैसे आन्दोलन होते हैं. जुलूस निकालेंगे, जो नारा लगायेंगे-भ्रष्टाचार कौन बन्द करें जो हमारे जुलूस में है या बाहर ? दूसरे लोग भ्रष्टाचार बन्द कर दे. बाजार से जुलूस निकलेगा. नारे लगेंगे-कामाबाजारी बन्द करो. याने जो हमारे जुलूस में हैं, वे तो कालाबाजारी करेंगे. जो हमारे लोग दूकानों पर बैठे हैं, वे भी करेंगे. बाकी सब कालाबाजारी बन्द करो. सरकारी दफ्तरों के सामने नारा लगाते हुए धरना देंगे कि भ्रष्टाचार बन्द करो और भीतर मजे में लेन-देन चल रहा होगा.’’
‘‘साधो, इस देश में हर आदमी दूसरे को सदाचारी बनाना चाहता है कि मैं तो भ्रष्टाचार करूं पर दूसरा न करें, इसलिए नारे लगाउं. … सदाचार, ईमानदार, सद्गुण बड़े मूल्यवान हैं. पार्टियां इतनी स्वार्थी नहीं हैं कि ऐसे सद्गुण अपने पास रखें. वे दूसरों को बांट देती है. खुद दुर्गुणों से काम चला लेती है. तुम साधुओं में जो तस्करी करते हों, बच्चे चुराते हों, चोरी से अफीम बेचते हों, औरतें भगाते हों, वे सब भारतीय जनता पार्टी के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में शरीक हो जाओ.’’
तो फिर 32 साल पहले के हरिशंकर परसाई को आज संदर्भ में पढ़े और देखे क्या कहीं बदलाव की जरूरत है ?
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