बिहार के सूदूरतम इलाके के एक गांव की तस्वीर है. बात तब की है जब बिहार में मुखिया चुनाव का ऐलान किया गया था. उस गांव का एक दबंग था, जिससे अधिकांश लोग न केवल घृणा ही करते थे अपितु भगवान से उसे ‘उठा’ लेने का प्रार्थना भी करते थे. उस दबंग के अत्याचार जिसमें हत्या, अपहरण, बलात्कार, लूट-पाट, डकैती आदि जैसे कुकृत्य शामिल थे, से तमाम लोग त्रस्त थे. संभावित मुखिया चुनाव के लिए उस दबंग ने भी अपनी उम्मीदवारी का दावा किया और आश्चर्यजनक रूप से सर्वाधिक वोट हासिल कर मुखिया चुन लिया गया. एक ईमानदारी प्रत्याशी को गिनती के महज चंद वोट ही मिले. जब पड़ताल किया गया तब पता चला कि वोट गिरने के से तकरीबन दस दिन पहले उस दबंग प्रत्याशी ने भंडारा खोल दिया था, जिसके लिए पुरी, बुंदिया और सब्जी का भरपूर इंतजाम था. उसने पूरे गांव में ऐलान करवा दिया कि सभी लोग सुबह, दोपहर और शाम का खाना उसके यहां ही खायेंगे. बस फिर क्या था गांव के सारे लोग उसके अत्याचार को भूल गये और भारी बहुमत से उसे जीता दिया. वहीं जो ईमानदार प्रत्याशी उन गरीब लोगों के दुःख-सुख मंे भागीदार बनता था, न केवल बुरी तरह पराजित ही हुआ वरन् अपमानित भी किया गया.
उपरोक्त उदाहरण यह दर्शाने के लिए काफी है कि हमारे देश की जनता जो चुनाव के माध्यम से अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है, वह तत्कालीन कारणों से प्रेरित होती है. इसमें प्रत्याशियों की धूर्तता और दबंगई ही उसकी योग्यता होती है. आम लोग इतने भोले होते हैं कि उसके पुराने कुकर्म को भूल जाते हैं या फिर डर जाते हैं और उसे ही अपना प्रतिनिधि घोषित कर देते हैं, जिससे उसको अगले पांच साल तक लूटने और खून चूसने का लाईसेंस मिल जाता है. चुनाव के चंद रोज पहले ये दबंग व धूर्त प्रत्याशी साड़ी बांटने, भोज कराने, रूपये बांटने, दारू मुहैया कराने आदि जैसे हथकंडे अपना कर चुनाव जीत जाता है. इसके अलावे अक्सर मतदान केन्द्र को ही लूट लिया जाता था. यही कारण है कि नक्सलवादियों ने चुनाव का बहिष्कार अपने मुख्य एजेंडे पर रखा था.
परन्तु पहली बार जब मुख्य चुनाव आयुक्त टी0 एन0 शेषन के द्वारा इस तरह के हथकंडे के खिलाफ कुछ सुधारवादी मुहिम चलाया और कुछ हद तक इस पर प्रभाव भी पड़ा तब लोगों को पहली बार यह मालूम हुआ कि चुनाव आयोग जैसी कोई संस्था भी होती है, जो चुनाव कराती है. इसके साथ ही चुनाव आयोग आम लोगों के बीच एक प्रतिष्ठा भी पायी. परन्तु वर्तमान शासक वर्ग का सर्वाधिक भ्रष्ट व खूंख्वार खेमा भारतीय जनता पार्टी जब से सत्ता संभाली है, चुनाव आयोग जैसी संस्था महज एक दलाल बन कर रह गयी है. चुनाव आयोग को ही क्यों कहा जाय रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया सहित सुप्रीम कोर्ट जैसी स्वायत्त कही जाने वाली संस्था भी महज ढ़कोसला बन कर रह गयी है, जिसके खूंख्वार दांत साफ-साफ दिखने लगे है.
विगत विधानसभाओं के चुनाव ने चुनाव आयोग की निरर्थकता को पूरी तरह साबित कर दिया. नियम-कायदों को ताक पर रख कर ई0वी0एम0 जैसी वोटिंग मशीन के छेड़छाड़ के पुख्ता सबूत जारी होने के बाद भी बेशर्मी से चुनाव आयोग किसी भी छेड़छाड़ से न केवल इंकार कर रहा है वरन् दावे भी कर रहा है कि अगर कोई कर सकता है तो बताये.
आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल जो खुद इंजीनियर रह चुके हैं और वर्तमान में दिल्ली के मुख्यमंत्री भी हैं, ने जब दावा किया कि मुझे 72 घंटों के लिए ई0वी0एम0 मशीन दे दें, साबित कर दूंगा कि ई0वी0एम0 मशीन के छेड़छाड़ कैसे होती है. पर बेशर्म चुनाव आयोग बार-बार टेपरिकार्डर की तरह यही दोहराते जा रहा है कि ई0वी0एम0 वोटिंग मशीन के साथ कोई छेड़छाड़ संभव ही नहीं है. ऐसे में चुनाव आयोग जहां खुद की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला रही है, वहीं खुद को जनता की नजर में भी हास्यास्पद बना रहा है. भ्र्रष्ट और दलाल चुनाव आयोग एक कड़ी परीक्षा की घड़ी से गुजर रहा है, जहां उसे खुद तय करना है कि वह अपनी अर्जित प्रतिष्ठा को बचा कर रखती है या बाजार में निलाम कर देती है.
मालूम हो कि ई0वी0एम0 मशीनों का इस्तेमाल पूरी दुनिया में प्रतिबंधित किया जा चुका है. यही नहीं भारत की सुप्रीम कोर्ट भी यह मान चुकी है कि ई0वी0एम0 मशीनों के साथ छेड़छाड़ संभव है. अगर चुनाव आयोग अपनी दलाली छोड़ कर ई0वी0एम0 मशीन के साथ किसी छेड़छाड़ की जांच नहीं करा सकती तो ई0वी0एम0 के द्वारा कराये जा रहे संभावित चुनाव भी आम जनता के बीच अप्रासांगिक हो जायेंगे और शायद चुनाव का बहिष्कार करना आम आदमी की मजबूरी बन जायेगी, जो नक्सलवादियों का मुख्य एजेंडा है. मालूम हो कि द्वितीय विश्व-युद्ध के समय हिटलर के फासीवाद के विरूद्ध संघर्षरत् जर्मनी की एक ग्रुप ‘व्हाइट रोज’ के एकमात्र जीवित बचे सदस्य, जो शुरू में हिटलर के नाजी युवा संगठन में काम किया था, उस समय के जर्मन समाज का वर्णन इस प्रकार किया था, ‘‘हर चीज पर हुकूमत का नियंत्रण था-मीडिया, शस्त्र, पुलिस, सेना, अदालत, संचार, यात्रा, हर स्तर की शिक्षा, सब सांस्कृतिक-धार्मिक संगठन. कम उम्र से ही नाजी विचार सीखाने का काम शुरू हो जाता था और ‘हिटलर युवा’ के जरिये पूर्ण दिमागी जकड़ हासिल करने के लक्ष्य तक जारी रहता था.’’ क्या सचमुच में भारत फासीवाद के उसी दौर में वापस जा रहा है ? एक गंभीर सवाल है हम सब के सामने.
cours de theatre paris
September 30, 2017 at 2:41 pm
Very good post.Really thank you! Awesome.