Home कविताएं मैं चाहता हूं

मैं चाहता हूं

0 second read
0
0
172

मैं चाहता हूं
मेरा शहर छोटा रहे
दिन भर काम और
रात भर सोता रहे
सुबह सुबह लोग
एक दूसरे से
रास्तों पर टहलते बतियाते हुए मिलें
औरतें एक दूसरे की चुग़ली
करतीं हुई मिलें
और लोग एक दूसरे की
कभी-कभी बेवजह तारीफ़ करते हुए भी मिलें

तुमने कभी महसूस किया है उस आदमी के दर्द
को जिसकी कभी किसी ने तारीफ़ नहीं की ?
जैसे तुम्हारे घर में काम करती हुई कामवालियां
या तुम्हारे खेतों खलिहानों में खटते हुए मज़दूर
या तुम्हें अपनी पीठ पर ढोते हुए रिक्शा वाले

मैं चाहता हूं कि मेरा शहर छोटा रहे
और हरेक आदमी एक दूसरे की तारीफ़ करे
ये सोच कर कि अगर अगला नहीं होता तो
कितना अकेला हो जाता वह

मैं चाहता हूं कि
मेरे शहर के दूर दूर तक कोई
खदान नहीं निकले
कोई बड़ा सा कारख़ाना नहीं लगे

मैं चाहता हूं कि मेरा शहर
गिद्धों की दृष्टि से दूर रहे
और एक बात
मेरे शहर में कोई सोसायटी
कोई गगनचुंबी इमारत न हो
और सबका अपना घर हो
सबकी थाली में रोटी हो
सबके खेतों में पानी हो
और सबकी आंखों में सपने हों
मृत्यु अनिवार्य है लेकिन

मैं चाहता हूं कि
मेरे शहर में जब कोई मरे
तब उसे सिर्फ़ आदमी समझा जाए
हिंदू, मुस्लिम, नक्सली, आतंकवादी, संघी नहीं
क्योंकि जब ऐसा होता है तो
लाश तो लाश ही रहती है लेकिन
ज़िंदा लोग भी मुझे लाश ही दिखते हैं
क्योंकि जो कोई भी आदमी के विपक्ष में खड़ा है
वह आदमी तो नहीं हो सकता है

चलो
मेरी इस असंभव इच्छा के लिए
आप मुझे वामपंथी कह सकते हैं

मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है
मैं जानता हूं कि एक ऐसे शहर का
सपना लिए किसी दिन जाना पड़ेगा मुझे बहुत दूर
तुम्हारी आंखों में इसी सपने को बो कर
मेरे दोस्त !

  • सुब्रतो चटर्जी

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay

 

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

    कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा …
  • मेरे अंगों की नीलामी

    अब मैं अपनी शरीर के अंगों को बेच रही हूं एक एक कर. मेरी पसलियां तीन रुपयों में. मेरे प्रवा…
  • मेरा देश जल रहा…

    घर-आंगन में आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन. तन जलता है…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…