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महाशय ! इज्जत मांगी नहीं कमाई जाती है

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1947 में देश के प्रधानमंत्री पद संभालने वाले पं. जवाहरलाल नेहरु का कद अपने पद से भी कहीं ज्यादा बड़ा और विराट था. प्रधानमंत्री पद से नहीं बल्कि जवाहर लाल के ऊंची सख्सियत से प्रधानमंत्री पद गौरवान्वित होता था. उन्हें कभी इसका गुमान ही न रहा होगा कि एक दिन वह वक्त भी आयेगा जब सत्ता के भूखे दलाल प्रधानमंत्री पद की गरिमा इतना गिरा देंगे कि उसे अपनी इज्ज़त पाने के लिए बल का सहारा लेना होगा या भीख मांगनी होगी कि ‘कम से कम प्रधानमंत्री पद का तो इज्ज़त कीजिए.’

आजादी के 75वें अमृत महोत्सव मनाने वाले नरेन्द्र मोदी जब ‘भीख में मांगी आजादी’ बताने वाली साम्प्रदायिकता के पोषक को पद्मश्री पुरस्कार से नवाजता है और देश भर के बौद्धिक जगत के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधियों प्रोफेसर, पत्रकार, लेखकों, छात्रों और मेहनतकश आवाम के मजदूरों, किसानों को एक झटके में देशद्रोही घोषित कर फर्जी मुकदमों में जेलों में बंद करता है.

हालत यहां तक आ गई है कि सरकार से सवाल पूछना, उसके खिलाफ लिखना, बोलना तक देशद्रोह की श्रेणी में आ गया है. यह स्थिति जवाहरलाल नेहरू के संसद भवन के गलियारे में कालर पकड़कर सवाल पूछने वाली बुढ़ी महिला से चलता हुआ लोकतंत्र के इतने विभत्स स्वरूप में आ चुका है कि खौफ ही लोकतंत्र का पर्याय बन गया है. जो नेता या संस्था आम जनता के बीच जितना ज्यादा खौफ पैदा कर सकता है, वह उतना ही देशभक्त बन जाता है.

आये दिन सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ लिखने वाले लोगों पर मुकदमें दर्ज किये जा रहे हैं. उन्हें जेलों में बंद किया जा रहा है. पिछले ही दिनों त्रिपुरा में हो रही संघियों की आगजनी और दंगे के खिलाफ लिखने वाले अनेकों लोगों पर यूएपीए के तहत मुकदमें दर्ज किये गये. मोदी के खिलाफ लिखने वालों के खिलाफ लिंचिंग, हत्या, बलात्कार की धमकियां दी जाती है और अब जब विपिन रावत समेत 13 जवानों की संदिग्ध हत्या को लोगों ने नागालैंड में 13 निर्दोष लोगों की हत्या से जोड़ना शुरु किया, तब एक बार यह चिल्लपौं मचने लगी है कि ‘सेना को इज्जत दो.’

महाशय, इज्जत मांगी नहीं जाती, कमाई जाती है.

 

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