पृथ्वी
मुझे अक्सर
अपने नवजात को गोद लिए
किसी मां की तरह दिखती है
मेरे पास
कोई अवयव नहीं है कि
मैं उस तस्वीर में
किसी समय हीन सत्य को ढूंढ लूं
और एक काल्पनिक ईश्वर की तलाश में
मंदिर के बाहर
कंगाली भोज में शामिल हो जाऊं
तुम्हारे पास
लौटने के पहले
मुझे रोज़ पार करना पड़ता है चांद की कई सरहदें
ताकि मैं उन चिराग़ों से वास्ता तोड़ दूं
जिन्होंने मेरे घर के अंधेरों को
और भी उजागर कर दिया
चमड़े में लिपटे हुए कंकालों से पूछो
दुर्भिक्ष का अर्थ
तो तुम्हें भाषा की एक नई परिभाषा मिलेगी
जिसे उतारने के लिए
कम पड़ जाते हैं
दुनिया के सारे रंग
और तुम आज भी पूछते हो मुझसे कि
मुझे क्यों नहीं दिखता
ज़मीन के उपर कोई आसमान
बेहतर है कि ये सवाल
तुम मेरी बीवी से पूछो
जिसके नंगे जिस्म पर लिपटी हुई साड़ी
किसी पेंटर की आख़िरी कोशिश सी लगती है
सच को आवरण पहनाने की
ताकि दर्शक दीर्घा में बैठे
मेंबराने जूरी को आसान लगे
निर्णय सुनाना.
- सुब्रतो चटर्जी
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