गिरीश मालवीय
एक तरफ भारतीय क्रिकेट के सुपरस्टार धोनी है, सौरव गांगुली है, दूसरी तरफ यूरोपियन फुटबॉल के सुपरस्टार क्रिस्टियानो रोनाल्डो हैं. पुर्तगाल बनाम हंगरी के बीच मैच था. मैच के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने प्रेसवार्ता को शुरू करने के दौरान अपने सामने रखीं कोकाकोला की दोनों बोतलों को एक तरफ हटा दिया और टेबल के नीचे रखी पानी की बोतल को हाथों से ऊपर उठाकर पत्रकारों को दिखाते हुए कहा – ‘आगुवा’ यानी पानी.
उनका इरादा साफ दिख रहा था कि वह कार्बोनेटेड सॉफ्ट ड्रिंक्स की तुलना में साधारण पानी पीने के पक्ष में खड़े थे.
इस घटना के बाद से कोकाकोला के शेयर धड़ाधड़ गिरना शुरू हो गया, और कोकाकोला को चार बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ.
अब आते हैं धोनी और सौरव गांगुली पर. यह दोनों क्रिकेट के ड्रीम 11 और My11circle जैसे ऑनलाइन एप्प के नाम पर खुलेआम ऑनलाइन जुए को प्रमोट करते हैं. इस एप्प में आपको ऑनलाइन टीम बनानी होती है. आप फ्री एंट्री या पैसे वाले कॉन्टेस्ट में भाग ले सकते हैं. वैसे तो पैसे लगाकर दांव लगाना सट्टेबाजी माना जाता है पर टेक्नोलॉजी आधारित होने से यह सट्टेबाजी की मान्य परिभाषा से बाहर हो जाता है.
ऑनलाइन स्पोट्स गेम Dream 11 पर पांच राज्यों में रोक है. इसकी कानूनी वैधता पर कोर्ट के अलग-अलग फैसले आ चुके हैं. कई देशों में इसे जुए के एक प्रकार के तौर पर देखा जाता है. महेंद्र सिंह धोनी इस ऑनलाइन गेम के ब्रांड एंबैसेडर हैं.
यानी एक खिलाड़ी क्रिस्टियानो रोनाल्डो है जो कोकाकोला जैसी जानी-मानी कंपनी के खिलाफ जाकर अपनी बात कहता है और दूसरी तरफ यह बिना रीढ़ के भारतीय सितारे हैं, जो लोगो को सही बात की तरफ डायवर्ट न कर गलत प्रैक्टिस की तरफ डायवर्ट कर रहे हैं.
जब क्रिस्टिआनो रोनाल्डो द्वारा कोका कोला की बोतलों को हटाने की खबर वायरल हो रही है तो मुझे भी अपनी एक पुरानी लेख याद आयी, जो कोका कोला के इतिहास के बारे में है.
1886 में जॉन स्टिथ पेम्बर्टन द्वारा स्थापित कोका-कोला कंपनी बहुत लंबे समय से नाम कमा रही है. यह दुनिया की सबसे बड़ी शीतल पेय कंपनियों में से एक है और दुनिया भर में इसकी अधिक पहुंच के कारण यह उपभोक्ता पूंजीवाद के विकास का अभिन्न अंग रही है. कोका कोला सिर्फ एक सॉफ्ट ड्रिंक नहीं है, यह नई संस्कृति का प्रतीक है. शीत युद्ध के दौरान कोका कोला पूंजीवाद का प्रतीक बन गया.
वेबस्टर का कहना है कि ये पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच भेद करने वाली चीज़ बन गई. कोका कोला को अमरीका के बढ़ते प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है. जहां अमेरिका मौजूद था, वहां कोका कोला का होना अवश्यम्भावी था.
दरअसल ‘कोका कोलोनाइजेशन’ यह फ्रांसीसियों द्वारा ईजाद किया शब्द है. जब 1950 में फ़्रांसीसी जनता ने कोका कोला का विरोध किया तो इस शब्द का प्रयोग पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में इस्तेमाल हुआ. बताते हैं कि फ़्रांस में कोका कोला के ट्रक पलट दिए गए और बोतलें तो़ड़ दी गई. विद्वान् बताते हैं कि प्रदर्शनकारी कोका कोला को फ्रांसीसी समाज के लिए ख़तरा मानने लगे थे.
लेकिन वर्ष 1989 में जब बर्लिन की दीवार गिरी, तो पूर्वी जर्मनी में रहने वाले कई लोग क्रेट भर-भर कर कोका कोला लेकर आए तब ‘कोका कोला पीना आज़ादी का प्रतीक बन गया.’
अ हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड इन सिक्स ग्लासेज के लेखक टॉम स्टैंडेज का कहना है कि किसी भी देश में कोका कोला की एंट्री एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में देखी जाती है. वो कहते हैं, ‘जैसे ही कोका कोला अपना माल भेजना शुरू करती है, आप कह सकते हो कि वहां असली बदलाव होने जा रहा है.’
कोका कोला एक बोतल में पूंजीवाद के बेहद क़रीब है. कोका-कोला को एक समय सबसे बड़े पूंजीवादी समूह के रूप में जाना जाता था और इसकी शोषणकारी प्रकृति के लिए आलोचना भी की गई है.
सोवियत संघ के मार्शल जिओरी ज़ुकोव ने भी सोवियत संघ में कोका कोला जैसे पेय को प्रचलित करवाने में रूचि ली, लेकिन एक रंगहीन और मजेदार-सी दिखने वाली बोतल के बिना. कोका कोला ने उनके लिए ऑस्ट्रिया में एक रसायनज्ञ से एक अलग फार्मूला बनवाया, जो वोदका की तरह रंगहीन था पर यह प्रयोग अधिक सफल नहीं हुआ.
कोका-कोला ने 1950 के दशक में भारतीय बाजार में प्रवेश किया था, उस समय जब दुनिया भर में पूंजीवाद फैल रहा था. कहा जाता है कि फार्मूला साझा न करने पर इसे भारत से जाना पड़ा. भारत में हुए आर्थिक सुधारो के बाद यह कम्पनी दुबारा लौट कर भारत में आई.
पूंजीवाद की प्रगति के लिए ‘कोककोलाइजेशन’ की टर्म यदि 20वीं सदी में इस्तेमाल की जाती रही है तो 21वीं शताब्दी की टर्म ‘उबराईजेशन’ है. 20वीं शताब्दी का पूंजीवाद विभिन्न देशो में जाकर छल बल कपट से वहां के संसाधनों पर उसके अर्थतंत्र पर कब्जा जमाता था लेकिन 21वीं सदी में तो उसकी भी जरूरत नहीं है.
अब विकसित पूंजीवादी देश पूंजी और तकनीकी के दम पर किसी भी देश के सबसे ज्यादा पढ़े–लिखे मजदूर से अपनी कम्पनी के लिए काम करवाते हैं और अकूत मुनाफा कमाते हैं. मजे की बात है इन मजदूरों की नौकरी पक्की भी नहीं है क्योंकि वर्क फोर्स का उबराईजेशन हो चुका है. इंजीनियर्स तो अब गिग मजदूर बन गये हैं. गिग अर्थव्यवस्था मजदूर के शोषण करने की एक नयी व्यवस्था है.
कोरोना काल मे “वर्क फ्रॉम होम के नाम पर तो यह काम पूरी स्पीड से हो रहा है कल ब्रिटेन में कहा गया कि कर्मचारियों के लिए काम को और अधिक लचीला बनाने की योजना के तहत लाखों कर्मचारियों को घर से काम करने का “डिफ़ॉल्ट” अधिकार दिया जा सकता है।’
इसका मतलब क्या है ? यह किस तरह की प्रैक्टिस को प्रमोट किया जा रहा है आप क्या ठीक से समझ भी पाए हैं ? शुरुआत मे तो लोगो ने बड़े मजे में “वर्क फ्रॉम होम’ को अपनाया लेकिन इसके दुष्प्रभाव धीरे धीरे सामने आने लगे है
सालो से काम कर रहा नोकरी पेशा व्यक्ति को धीरे धीरे समझ मे आने लगा है कि ऐसे में किसी की नोकरी सुरक्षित नही है जो काम वह घर पर बैठे कर रहे हैं उसे कोई भी फ्रेशर उससे कही कम तनख्वाह में करने को तैयार हो जाएगा, कई कम्पनियो ने तो यह भी कह दिया है कि उसका वर्कर चाहे तो दूसरी कम्पनियो का भी काम कर सकता है…..
यानी कोई जॉब सिक्योरिटी नही है जो आज आगे बढ़कर ऐसे जॉब कर रहे हैं वे भी जानते है कि अब से दस-पंद्रह साल बाद भी ऐसे ही तो नहीं रहेंगे। यानी कि जब उन पर अपना परिवार चलाने, बच्चे पालने की जिम्मेदारी आए तो उनके पास स्थायी काम और सामाजिक सुरक्षा के नाम पर कुछ भी न हो!
कोई उद्योगपति भी फैक्ट्री लगाकर इस कदर मजदूर का शोषण करके इतने मुनाफे की कल्पना भी नहीं कर सकता जितना मुनाफा गिग कम्पनियाँ एक मोबाइल ऐप बनाकर कमा लेती हैं। उबराइजेशन को समझिए, टैक्सी उबर की नही है , जो टेक्सी चला रहा है उसके पास कोई नियुक्ति पत्र नही है। उसका कोई मासिक वेतन नहीं है। उसकी कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं है। कोई मेडिकल छुट्टी नहीं है।
गाड़ी के मेंटनेंस की जिम्मेदारी उबर की नही है ड्राइवर जितने घण्टे वह काम करेगा उतने की मजदूरी मिलेगी। ड्राइवर के प्रति कम्पनी की कोई जिम्मेदारी नहीं है। काम के दौरान चोट लगे, या मौत भी हो जाये तो कम्पनी की तरफ से सीधे तौर पर कोई क्षतिपूर्ति नहीं है……यानी एक प्रोजेक्ट-आधारित या असाइनमेंट जो प्रोफेशनल द्वारा लिया जाता है यही गिग इकनॉमी है.
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