आज सुबह एक मित्र ने खुशी से चहकते हुए फोन किया. उन्होंने बैंक से 10 लाख रूपये के लोन का आवेदन किया था, जिसकी स्वीकृति उन्हें मिला था और भुगतान आज किया जाना है. मैंने पूछा आपने किस बैंक से लोन लिया, सरकारी अथवा निजी बैंक से ? उनका जवाब था – ‘सरकारी बैंक से. पागल हूं क्या जो प्राईवेट बैंक से लोन लूंगा. यह ठीक है कि सरकारी बैंक से लोन लेने में ज्यादा चक्कर काटना पड़ता है, परन्तु ब्याज दर काफी कम है, वरना प्राईवेट बैंक वाले तो जल्दी लोन तो दे देते हैं, पर इतना भारी ब्याज वसूलता है कि जिन्दगी भर की कमाई उसको ही देना पड़ जायेगा. परिवार और बच्चे को क्या दूंगा.’ उनके इस शब्द से एक बात तो स्पष्ट है कि देश की जनता, निचले तबके के लोग, सामान्य जन यहां तक कि औद्योगिक घराना भी सरकारी बैंकों से ही लोन लेना अपनी प्राथमिकता बनाते हैं न कि निजी प्राईवेट बैंक को. सुब्रतो चटर्जी सोशल मीडिया के अपने पेज पर लिखते हैं –
बैंकों के निजीकरण से पूंजीपति खुद मरेंगे, क्योंकि साधारण लोग निजी बैंकों में जाते नहीं, मध्यम वर्ग भी दूरी बना लेगा. HSBC, CITI जैसे बैंकों में कौन जाता है ? निजीकरण के चलते निजी बैंकों का सार्वजनिक दायित्व सिमट कर रह जाएगा और जनता की पहुंच कम हो जाएगी. इससे जनता के मन में बैंकों के प्रति अविश्वास बढ़ेगा. ज्यादा से ज्यादा लोग सरकारी बैंकों से जुड़े रहेंगे.
ICICI या HDFC बैंकों की जान रिटेल बैंकिंग में है, जिसके ग्राहक मुख्यतः नौकरी पेशा लोग हैं. ज्यादातर निजी कंपनियों के मुलाजिमों का अकाउंट इन बैंकों में है. बैंकों का भी अपना वर्ग चरित्र होता है. निजीकरण के फलस्वरूप जब बैंक अपने सामाजिक दायित्व से कट जाएंगे तब करोड़ों साधारण जनता इससे विमुख हो जाएंगे. 85 प्रतिशत कैश पर आधारित अर्थव्यवस्था तब 95 प्रतिशत हो जाएगी, फिर कैशलेस इकोनोमी का क्या होगा ? बाजार में काले धन का इजाफा होगा. बैंकिंग सेक्टर के मुलाजिमों की सामाजिक सुरक्षा घटेगी.
इसके दुष्परिणाम दूरगामी होंगे, लेकिन जनविरोधी इवीएम की सरकार मूर्खों की है. वह पूंजीवाद के इस विरोधाभास को नहीं समझती. निजी बैंकों का मरना तय है. सार्वजनिक बैंकों में रखे सार्वजनिक फंड का कतिपय उद्योगपतियों द्वारा लूट का स्कोप कम होगा. कोई भी बैंक सिर्फ 1 प्रतिशत निजी कर्मचारियों के सैलरी के पैसों के दम पर नहीं टिक सकता. मोदी सरकार का यह कदम आत्मघाती सिद्ध होगा.
बैंकों के निजीकरण का फलसफा मोदी सरकार चाहे जो भी दें, पर एक बात तो तय है कि इससे न केवल देश की आम जनता ही मारी जायेगी, अपतिु वे लोग भी धीरे-धीरे खत्म अथवा गुलाम बनते जायेंगे जो आज निजीकरण के गुण गा रहे हैं, सनकी अंधभक्त की तरह. बहरहाल बैंककर्मियों के द्वारा निजीकरण के विरोध पर खिल्ली उड़ाते लोगों के अपने अपने सवाल हैं. गिरीश मालवीय लिखते हैं –
बैंकों के निजीकरण को लेकर लोगों के विचार सोशल मीडिया पर सामने आ रहे हैं. अधिकांश लोग इसके समर्थन में है इसलिए नहीं कि उन्होंने इस पर कोई गंभीर चिंतन किया है, बस इसलिए क्योंकि वह एक बार एसबीआई गए थे तो उन्हें इतनी अच्छी सर्विस नहीं मिली जितनी अच्छी ICICI बैंक में मिली. अच्छी सर्विस मिलना ही उनका इस मुद्दे पर सरकार का समर्थन करने का एकमात्र क्राइटेरिया है. बहुत से लोग अच्छी सर्विस के लिए वह ज्यादा पैसे खर्च करने को भी तैयार है. उन्हें उसमें भी कोई आपत्ति नहीं है.
अब मैं मेरा पर्सनल एक्सपीरियंस आपके सामने शेयर करता हूं. एक दोपहर मैं एसबीआई की ब्रांच में था. सर्विस मैनेजर की टेबल के आगे भीड़ थी. सबसे आगे लगा व्यक्ति सर्विस मैनेजर से पूछ रहा था कि ‘मेरा खाता यहां बन्द हो गया है, क्या मेरे खाते में पैसा जमा हो जाएगा ?’ क्या अजीब-सा सवाल था, पर यह बात वह बार-बार जोर-जोर से दोहरा-दोहरा कर पूछ रहा था. सर्विस मैनेजर भी परेशान हो गया और लाइन में खड़े हम लोग पहले हंसे फिर अपनी बारी में देर होने पर झुंझलाने लगे कि ‘यह क्या आदमी है !’
आप यदि एसबीआई ब्रांच में जाते रहते हैं तो आप पाएंगे कि वहां ब्रांच में समाज के निचले वर्ग के लोग बड़ी संख्या में मौजूद रहते हैं. ठेला, खोमचा लगाने वाले, छोटी-मोटी नौकरी करने वाले लोग, पेंशनर्स, बूढ़ी महिलाएं आदि-आदि. इसके विपरीत यदि आप प्राइवेट बैंक की ब्रांच में जाएंगे तो वहां आप बड़ी संख्या में सूटेड-बूटेड पढ़े-लिखे अपर मीडिल क्लास के लोगों को बैंकिंग व्यवहार करता हुआ पाएंगे.
बस यही फर्क है जो हमें ठीक से समझने की जरूरत है. दरअसल हुआ यह है कि हमने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पूरी तरह से भुला दिया है. बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह थी कि आम गरीब लोग भी बैंक जा पाए. वहां पैसे जमा कर पाए. वहां से लोन ले पाए और बैंकों से जुड़ी तमाम सुविधाओं का लाभ उठा पाए. किसी बुजुर्ग से पूछिएगा कि राष्ट्रीयकरण के पहले बैंक कैसे थे क्या थे ? एक पूरी पीढ़ी गुजर गई है. 90 के दशक में जन्मी पीढ़ी यह बात समझ ही नहीं सकती.
कुछ साल पहले देश के प्रधानमंत्री मोदी ने जन-धन खाता योजना शुरू की थी. बहुत बड़ी संख्या में जनधन खाता वैसे लोगों का खुलवाया गया था जो आर्थिक रूप से काफी कमजोर थे. जिनका बैंक से कोई लेना देना नहीं था. जन-धन योजना का मकसद समाज के उस हिस्से को जोड़ने का था, जो आर्थिक विपन्नता के चलते बैंकों में खाते नहीं खोल पाया.
नीमच जिले के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ ने सूचना के अधिकार के तहत वित्त मंत्रालय से प्रधानमंत्री जनधन योजना का ब्योरा मांगा तो पता चला कि 17 जुलाई, 2019 तक की स्थिति के अनुसार इस योजना के तहत 36.25 करोड़ खाते खुले हैं. अब आप बताइए कि कितने प्राइवेट बैंकों ने जनधन खाते की सुविधा लोगों को दी ? कितने जनधन खाते निजी बैंकों में खोले गए ?
प्राइवेट बैंक में खाता खुलवाने के लिए न्यूनतम 5 से 10 हजार रुपए लगते हैं, जबकि सरकारी बैंकों में जनधन खाते के जरिए जीरो बैलेंस पर खाता खोला जाता है. आपने 36 करोड़ नए खाते लोगों के खुलवा दिए पर इन लोगों को सर्विसेज देने के लिए आपने बैंको में कितने नए लोगों की नियुक्ति की ? एक भी नहीं बल्कि आपने कई लोगों को निकाल दिया. जो कर्मचारी रिटायर हो गए उनकी जगह भी आपने नयी नियुक्तियां नहीं की. 36 करोड़ जनधन खाताधारकों की यही भीड़ आज सरकारी बैंकों की ब्रांच में बढ़ती जा रही है और आम खाताधारक की बैंकिंग व्यवहार में परेशानी भी बढ़ रही है.
अब आप बताइये की जब सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण होगा तो बैंकों की यह सामाजिक जिम्मेदारी को कौन निभाएगा ? सरकारी बैंक जिस तरह के ग्राहकों के साथ जिस तरह से बैंकिंग कर रही है, वह निजी क्षेत्र के बैंक दे ही नहीं पाएंगे. एक बार फिर से जनता साहूकारों के चंगुल में फसेंगी. इसके लिए नई तरह की फिनटेक कंपनियों ने कमर कस ली है. एप्प से लोन देने वाली कंपनियां जमके ब्याज वसूलेगी, सब तैयारी कर ली गयी है.
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले भारत की पूरी पूंजी बड़े उद्योगपतियों और औद्योगिक घरानों के ज़रिए ही नियंत्रित होती थी, अब एक बार फिर से वही निजीकरण का दौर लौटने को है. विडम्बना यह है कि जो लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं, वही लोग इसके समर्थन में खड़े हुए है.
वहीं एक बैंककर्मी सागर राजीव अपनी व्यथा कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
बैंकों की दो दिवसीय हड़ताल के साथ ही सोशल मीडिया में बैंकर्स और बैंकों को गरियाने की एक परंपरा सी शुरू हो गयी है. वे लिखते हैं कि ‘आपने वोट मोदीजी को दिया then you deserve it.’ सभी को व्यक्तिगत तौर पर समझाना और स्पष्टीकरण देना मुश्किल था, इसलिए बैंकर होने के नाते ये लेख लिख रहा हूं.
देखिये जहां तक बात है वोट देने की तो हर इंसान की अपनी वैचारिक आजादी और विचारधारा है कि वो लोकतांत्रिक सरकार चुने, अब वो कॉंग्रेस हो या बीजेपी, राहुल हो या मोदी, ये अपना-अपना मत हो सकता है लेकिन जब कोई भी सरकार गलत या जनता विरोधी नीतियां अपनाती है और मीडिया बिकाऊ हो जाये, न्यायपालिका मौन व्रत धारण कर ले, सरकारी एजेंसियां अपनी विश्वसनीयता खो दें, तब जनता को सड़कों पर उतरना ही पड़ता है.
रही बात सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं की, हिन्दू मुस्लिम करने वाले दिग्गजों, तो ये एक थाली, एक प्याला और न जाने क्या-क्या एक ही …, चीज शेयर करते हैं और जनता का उल्लू गांठते हैं.
अब बात करते हैं बैंकिंग की तो मैं कतई इनकार नहीं करता कि इस लेख को पढ़ने वाले पाठकों का सरकारी बैंकों में कोई कटु अनुभव नहीं रहा होगा. मैं ये भी नहीं कहता कि हर बैंकर दूध का धुला होता है, लेकिन इन सब बातों के पीछे की सच्चाई जानने की कोशिश की आपने कभी ? थोड़ा-सा प्रयास कर रहा हूं लेकिन आप असहमत होने के लिए भी स्वतंत्र हैं और मर्यादित भाषा के साथ सवाल-जवाब भी कर सकते हैं.
- सरकारी बैंकों में काम करने वाले कर्मचारी वर्षों, महीनों की कड़ी मेहनत के बाद ही लाखों में से सैकड़ों की संख्या में चयनित होकर आते हैं और अपना बेस्ट देने की कोशिश करते हैं.
- थर्ड पार्टी प्रोडक्ट की फ़ोर्स सेलिंग, मैनेजमेंट के टार्गेट्स का प्रेशर, सरकारी योजनाओं का दबाव, रीजनल आफिस, हेड आफिस की साठ सत्तर ई-मेल्स का जवाब देना, इन सबके चलते नार्मल बैंकिंग करने के लिए पर्याप्त समय, वातावरण और संसाधन नहीं मिल पाते.
- सरकारी बैंकों का टॉप मैनेजमेंट हमेशा राजनीतिक होता है. उसे हमेशा अपने आकाओं को खुश रखना है, जिसमे सारी बैंक की मशीनरी झोंक दी जाती है.
- सरकारी बैंकों को केंद्र सरकार, राज्य सरकार, जिला प्रशासन, डीएम ऑफिस, चुनाव आयोग, पंचायत दफ्तर, एलडीएम ऑफिस, अपने-अपने तरीके से चलाते हैं और नये-नये असाइनमेंट सौंपते हैं.
- हर प्रकार के लोन देने के लिए बैंक का एक क्राइटेरिया है, जिसमें आप खरे नहीं उतरते तो बैंक लोन नहीं देता. निजी बैंक उसी केस में ज्यादा ब्याज दर पर लोन देगा और ग्राहक खुशी से उनका गुणगान करता है.
- अधिकतर सरकारी बैंकर्स (लगभग 80%) अपने घर से सैकड़ों, हजारों किलोमीटर दूर पोस्टिंग पर होते हैं. बुजुर्ग मां-बाप और बीबी-बच्चों से दूर होने की वेदना वही समझ सकते हैं, जो इस दौर से गुजरे हैं. फिर भी जॉब सिक्योरिटी के लिए बैंक की नौकरी करनी है, ना कि प्राइवेट करके नौकरी छिनवाने के लिए.
- आज लगभग हर बैंक उपभोक्ता स्मार्टफोन का इस्तेमाल करता है. बीसियों ऍप्स होंगी लेकिन नेटबैंकिंग के इस्तेमाल के लिए बोल दें तो रूह कांप जाती है, जबकि नेटबैंकिंग पर ज्यादातर सेवाएं उपलब्ध हैं.
- क्राइटेरिया पूरा न होने पर सेवा न दो तो झूठी शिकायत पर नौकरी खोने का डर, अनुशासनात्मक कार्रवाई का उत्पीड़न, वो भी उन ग्राहकों की शिकायत पर जो बैंक के ग्राहक भी नहीं.
- बैक एन्ड (IT, एटीएम वेंडर, चैक बुक वेंडर) से प्रॉपर सपोर्ट न मिल पाना और खराब आउटसोरसिंग सर्विसेज की वजह से ग्राहकों को असुविधा होना भी एक मुख्य वजह है.
- स्टाफ की कमी और कार्य की अधिकता भी स्टाफ में फ्रस्ट्रेशन पैदा करती है और देर रात तक बैंक में बैठना, बैकलॉग निपटाना, पारिवारिक लाइफ का नियंत्रण खराब होना, अवसाद और फिर आत्महत्या बैंकर्स में आम बात होती जा रही है.
- किसी सज्जन ने लिखा था कि मोटी तनखा लेकर बैंकों में पसरे पड़े रहते हैं, स्पष्ट कर दूं कि बैंक के क्लर्क की शुरुआती तनख्वाह केंद्रीय या स्टेट के सफाई कर्मचारी से लगभग आधी होती है.
- जिस तरह से ग्राहक सरकारी बैंकों में आकर चिल्ला लेता है और लड़ लेता है, क्या वैसे ही पुलिस विभाग, तहसील, कोर्ट, बिजली विभाग, जल विभाग, RTO आफिस, नगरपालिका दफ्तर, आयकर विभाग, बिक्री कर विभाग, सरकारी अस्पताल, रजिस्ट्रार विभाग आदि में आप लड़ सकते हैं क्या ? नहीं वहां रिश्वत देकर भी ‘थैंक यू’ बोलेंगे.
अच्छा ये ही बता दीजिए उपरोक्त विभागों में सबसे कम भ्रष्ट, जी हां सबसे कम, विभाग कौन-सा है ? जवाब देने में ईमानदारी रखियेगा.
एक बात और सरकारी बैंकर्स का खाता प्राइवेट बैंक में हो या न हो लेकिन हर प्राइवेट बैंकर का खाता सरकारी बैंक में जरूर होता है और क्यों ? आप इतने तो समझदार होंगे, मैं यहां कीचड़ उछालने नहीं आया.
एक साहब ने ये भी लिखा था कि नोटबन्दी के दौरान बड़ा उचक-उचक कर देशभक्ति दिखाई बैंकवालों ने, अब भुगतो. तो साहब नोटबन्दी के दौरान जनता की वेदनाओं का अंत नहीं था, कोई तुलना ही नहीं किसी से लेकिन क्या किसी ने ये देखा कि बैंकवालों ने कैसे, किन हालात में उन दो महीनों काम किया ? कितने बैंकवाले मृत्यु को प्राप्त हुए ? कितने कैशिएर्स ने अपनी जेब से पैसे भरे ? (लगभग सभी ने क्योंकि किसी को 2000 के नोट की लेन-देन का अनुभव नहीं था).
बैंकों को सरकार निर्देश देकर चलाती है क्या ? अपना काम ईमानदारी से करना गुनाह है ? क्या बैंक ये देखकर काम करे कि सरकार बीजेपी की है या कांग्रेस की ? मुझे लगता था कि पाठक उच्च श्रेणी के आलोचक, विचारक और वक्ता हैं लेकिन इस विषय को लेकर जब सबकी राय एकतरफा हो जाती है तो अफसोस होता है.
लेख लंबी करना मकसद नहीं है, अपना पक्ष रखना चाहता था. आप कहेंगे तो सरकारी आंकड़े भी उपलब्ध करा दूंगा कि सराकरी बैंकों में कितना काम होता है. मर्यादित भाषा मे टिप्पणी देंगे तो आपके ज्ञान का स्तर भी पता चलेगा और मुझे जवाब देने में खुशी होगी.
उपरोक्त दो विद्वानों के लिखे जवाब भी अधूरा ही है, जब तक हम फरीदी अल हसन तनवीर के तंज, तर्क और सवाल का जवाब नहीं ढूंढ़ लेते –
बताइये, मोदी जी बैंक वालों का भला करने को दिन रात चौबीस घंटे काम कर रहे हैं और इन पढ़े-लिखे हड़तालजीवियों को अपना भला ही समझ में नहीं आ रहा ! किसान तो अनपढ़ भी हो सकता है. बहकावे में आ जाने की संभावना है. तुम्हें क्या हुआ बे ! देश हित और खुद का हित दोनों ही समझ न आ रहे क्या ? अरे मुफ्त का भला मिल रहा है. करवा लो बे !
बताइये मोदी जी का राज न आता तो पता ही नहीं चलता कि नोटबन्दी में दिनरात काम कर उसे मोदी जी का मास्टर स्ट्रोक बनाने वाले सुसरे बैंक कर्मी भी देशद्रोही, आतंकी, खालिस्तानी, जेहादी, पाकिस्तानी थे !
माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रून्धे मोय ! एक दिन एसो आएगा मैं रूंधूंगी तोय !!
अब एक एक कर सब रूंधे जा रहे हैं अच्छे दिनों में. सब देशद्रोही बनेंगे. बाकी रहेगा बस एक. नहीं समझा ? अबे मोदी नहीं तो और कौन ???
कलेक्टेरिएट के बाहर धरने पर बैठा बैंक का पीओ मुट्ठी बांध आसमान की तरफ उछालते हुए चिल्लाया – सारी दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ. कैशियर, एकाउंटेंट, ब्रांच मैनेजर, अस्सिटेंट ब्रांच मैनेजर, बाबू, क्लर्क, कंप्यूटर ऑपरेटर, चपरासी सभी ने उसके सुर में सुर मिलाया. तुम पर खोने के लिए कुछ नहीं बचा है.
बंद हो गई स्पिनिंग मिल का मज़दूर जो वहां तारीख पर आया था – ज़ोर से जवाबी नारा लगाते बोला – ‘लंच के बाद आता हूँ बाबू साहब !’ गन्ना भुगतान के लिए प्रदर्शन करने आया किसान बोला – ‘अभी पान खाकर आता हूँ बैंक बाबू !’ दिहाड़ी मज़दूरी की दर बढ़वाने को आंदोलन पर कलेक्टेरिएट परिसर में ही बैठा रिक्शावाला, होम लेबर यूनियन के प्रदर्शन में आया प्रदर्शनकारी भी बोला – ‘आज चाय नहीं पियेंगे साकार ?’ शिक्षा, स्कूल, विद्यालय, यूनिवर्सिटी को बाजार के हवाले करने का विरोध कर रहे शिक्षाकर्मियों और छात्रों की भीड़ से आवाज़ आयी – ‘लंच खा लिए हो, चाय सुड़क लिए हो, पान मसाला और पान चबा लिए हो तो ये लो ख़िलाल. आज दांत नहीं कुरेदोगे हुज़ूर ?’
वैसे भी पासबुक प्रिंटर खराब है और दुनिया के मज़दूरों का अंतरराष्ट्रीय सर्वर बैठ गया है ! उन्हें एक होने में अभी समय लगेगा. तो प्यारे बैंकर्स, आओ कभी आंदोलनकारियों, सत्ता विरोधियों, प्रदर्शनकारियों की हवेली !!
कौन बैंककर्मियों की हड़ताल को उलाहने देने, मज़ाक़ उड़ाने की भर्त्सना कर रहा है ? ज़रा वह भद्र पुरुष या महिला इन बैंकों के कर्मचारियों के व्हाट्सएप्प ग्रुप्स का मुआयना तो कीजिये. पिछले छह सात साल के इनके लिखे पढ़े, एंडोर्स किये, वायरल किये पोस्ट्स, मेमे, चित्रों, वीडिओज़ की विषयवस्तु का एक शोध तो कीजिये. निश्चित जानिए आप इस नतीजे पहुंचेंगे कि मोदी जी इन्हें कम प्रताणित कर रहे हैं, जबकि ये कमीने गिलोटिन deserve (लायक) करते हैं.
बैंक कर्मी छोड़िए आप रेलवे के ग्रुप्स का अध्ययन कीजिये. नगरपालिका, महानगरपालिका के कर्मचारियों के व्हाट्सएप्प समूह देखिये. बेसिक के शिक्षक से लेकर विश्विद्यालयों के प्रोफेसरों का व्हाट्सएप्प पर एंडोर्स किया विषयवस्तु देखिये. वीसी साहिब तो खुल्लम खुल्ला ही क्या आरोप लगा रही हैं ? किस नियत से लगा रही हैं ? आप समझ तो गए होंगे. फ्रांस की क्रांति में ऐसे ही दोमुंहे, मौकापरस्त, जन सरोकार विहीन, आत्मकेंद्रित लोगों के लिए गिलोटिन प्रयुक्त होता था.
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