देखो-देखो नशे में धुत्त
एक हत्यारा सिगरेट का धुंआ उड़ाते हुए
एक निरीह बेबस आदिवासी युवक पर
मूत रहा है.
मूतने की यह तस्वीर
इक्कीसवीं सदी के भारत की
एक प्रतिनिधि तस्वीर है.
मूतने का यह दृश्य
हमारे समय का राष्ट्रीय रूपक है.
पूरे देश की जनता पर मूतने वाले भी
नाराज़ हो रहे हैं कि मूतने वाले को
वीडियो बनाते हुए इस तरह नहीं मूतना चाहिए
कि तमाम आम लोगों को यह अहसास होने लगे
कि उनके ऊपर कौन लोग मूत रहे हैं
उनका मानना है कि मूतने की क्रिया
इस तरह सम्पन्न होनी चाहिए कि लोगों को
लगे कि अमृत काल में उनके ऊपर
विकास का अमृत बरस रहा है.
ताक़तवर लोग पचहत्तर वर्षों से पूरे देश पर
मूत रहे हैं लोकतंत्र और संविधान की आड़ लेकर.
जाति-वर्ण व्यवस्था के ऊंचे मंच से थोड़े से लोग
मंत्रोच्चार और शास्त्रोक्त विधि-विधान के साथ
सहस्त्राब्दियों से मूत रहे हैं अपने मूत्र को
परम पवित्र बताते हुए.
फ़ासिस्ट हत्यारे दशकों से लगातार इस कदर
मूत रहे हैं कि देश की सारी नदियां और झीलें
वैसे ही उनके मूत से भर गयी हैं
जैसे गलियां और सड़कें लोगों के ख़ून से.
मूतना एक ऐसी सांस्कृतिक-राजनीतिक क्रिया
बन गयी है कि तरह-तरह के लोग आम लोगों पर
तरह-तरह से मूत रहे हैं.
संसद और विधानसभाएं काले क़ानून मूत रही है
अदालतें और मीडिया न्याय की नौटंकी मूत रही हैं,
पूंजीवादी पतलून पहने ब्राह्मणवादी घमण्ड मूत रहा है,
सत्ता का आतंक बंदूक की नालों से
आग मूत रहा है.
ताकतवर लोगों के जनता के सिर पर
मूतने की इस क्रिया से ध्यान भटकाने के लिए
रंग-बिरंगे विद्वज्जनों के झुण्ड
ऑनलाइन और ऑफ़लाइन
अमूर्त-अकर्मक सिद्धान्त मूत रहे हैं,
रंगारंग साहित्योत्सवों और सरकारी आयोजनों में
कवि-कलावंत अलौकिक कला मूत रहे हैं,
उत्तरआधुनिकतावाद क्रान्तियों की मृत्यु
और इतिहास के अंत की घोषणा मूत रहा है,
जनता की आकांक्षाओं और क्रान्ति की विचारधारा पर
सामाजिक जनवाद और बुर्जुआ उदारवाद-सुधारवाद मूत रहे हैं.
लेकिन मूतने की इस क्रिया का भी
एक ऐतिहासिक तर्क है.
सत्ता के मद में चूर होकर लोगों पर
मूतते हैं जो लोग,
वे आम लोगों के उठ खड़े होने की आशंका मात्र से
डरकर मूत देते हैं
अपने लकदक राजसी वस्त्रों को
पेशाब से तर करते हुए.
इतिहास के सभी आततायी
अपने ही पेशाब और पाख़ाने में लिथड़े हुए
पाये गये हैं अपने छिपने के ठिकानों पर,
अपने जुर्म की सज़ा पाने से पहले,
उन लोगों के हाथों,
जिनके सिर पर वे मूतते रहे थे.
और रही बात सुविधाभोगी कुलीन बौद्धिकों की,
तो उनकी त्रासदी भी विचित्र है.
आज वे मूतते हैं लुटेरों की आततायी सत्ता के भय से
और कल भी वे मूतेंगे जनता की सत्ता के भय से
कि वह उनके विशेषाधिकारों को छीन लेगी.
- अज्ञात
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