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कुंभ बनाम यूरो कप में भीड़ का विवाद और मीडिया

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व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी की सेना परेशान है. उसे इस बात का इंतज़ार है कि भारत या दुनिया में कोरोना को लेकर कुछ ऐसा हो जाए जिससे वह अपने नेता को भारत में हुए नरसंहार के आरोपों से मुक्त कर सके या उन घटनाओं का हवाला देते हुए बरी कर सके कि जब ब्रिटेन या जर्मनी दूसरी या तीसरी लहर नहीं संभाल सका तो मोदी का भारत कैसे संभाल सकता.

मई के महीने से कई मुद्दों को आज़माया गया और इसी क्रम में मंत्रिमंडल में बदलाव किया गया. श्रम मंत्री संतोष गंगवार को हटा दिया गया लेकिन उन्हें बेरोज़गारी का आंकड़ा देने से कौन रोक रहा था ? कोरोना के समय में कितने लोगों की नौकरी गई, उनकी क्या स्थिति है, इसे लेकर कोई सर्वे नहीं हुआ. इस दौरान श्रम मंत्रालय को यह काम अपने आप करना चाहिए था.

ज़ाहिर है कोई नहीं करने दे रहा था क्योंकि बेरोज़गारी के आंकड़े आते तो हंगामा मचता. 2019 में ही जब बेरोज़गारी के आंकड़े देने की व्यवस्था बंद की गई और कहा गया कि नई व्यवस्था आएगी, उसके बाद से नई व्यवस्था का अता-पात नहीं है. नया मंत्री आकर कौन-सी नई ऊर्जा लाएगा आप ख़ुद से अंदाज़ा लगा सकते हैं.

मोदी सरकार का एक पैटर्न है. वह अपनी छवि बदलने के एक ईवेंट का आयोजन नहीं करती है. मंत्रिमंडल में बदलाव एक ईवेंट था. इसके आस-पास कई ऐसे छोटे-छोटे ईवेंट आयोजित किए जाएंगे, जिनके क्रम से एक धारणा बनेगी कि सरकार वापस काम करने लगी है. कई प्रकार के तर्कों, तथ्यों और तस्वीरों को वायरल कराया जाता है. यह सारा कुछ मकसद से होता है कि जनमत को पुराने सवालों से दूर ले जाने के लिए.

अब लोग भूल चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यों से कहा था कि कोरोना से संबंधित आंकड़ों को न छुपाएं. बताएं. कुछ नहीं हुआ. आप आज तक नहीं जानते हैं कि कोरोना से दूसरी लहर में कितने लोग मरे. सरकार के आंकड़ों को मीडिया ने प्रमाण के साथ चुनौती दी लेकिन सरकार ने आराम से किनारे लगा दिया. विपक्षी दलों की सरकारों ने भी एलान किया कि मरने वालों की संख्या बताने के लिए वे अपने स्तर पर पहल करेंगे. कुछ नहीं हुआ.

व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी सरकार को कोरोना के समय की लापरवाही से मुक्त करने के लिए एक नया ईवेंट रच रहा है. यूरोप के कई देशों में हुए यूरो कप की तस्वीरों को दिखा कर कहा जा रहा है कि पश्चिम का मीडिया इस तरह के आयोजन पर चुप है. भारत का मीडिया चुप है. पश्चिम का मीडिया भारत को बदनाम करने के लिए कुंभ के आयोजन की तस्वीरों को छाप रहा था. इस चालाकी को समझिए.

मार्च, अप्रैल और मई का महीना याद कीजिए. क्या उस दौरान लोग बिना ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और दवाओं के नहीं मर रहे थे ? क्या उस वक्त श्मशानों में लाशों की लाइन नहीं लगी थी ? क्या उस वक्त सरकार मरने वालों की संख्या कम नहीं बता रही थी ? लोगों को मरता छोड़ सरकार नदारद थी. कोई भी मीडिया होगा ऐसी स्थिति में रिपोर्ट करेगा ही कि आम ज़िंदगी के साथ क्या हो रहा है ?

कायदे से यह काम नोएडा से चलने वाले गोदी मीडिया ने किया होता तो आपको सच्चाई का और भी विकराल रुप पता चलता. आपको सोचना चाहिए कि ज़रूरी क्या है, मरते हुए लोगों की समस्याओं को आवाज़ देना या उन्हें मरता छोड़ भारत की छवि बचाना ? इसलिए पश्चिम के मीडिया ने बदनाम करने के लिए नहीं, बल्कि मानवता के पक्ष में भारत की ख़बरों को छापा और सही किया.

यह बात ग़लत है कि यूरो कप को लेकर पश्चिम का मीडिया ख़ामोश रहा. मैं CNN, AFP, रायटर, गार्डियन, एनबीसी न्यूज़, इन सब पर तमाम ख़बरें मौजूद हैं जिनमें मैचों के आयोजन को लेकर सवाल उठाए गए हैं. ब्रिटेन में 4000 से अधिक वैज्ञानिकों, डाक्टरों और नर्सों ने लांसेट पत्रिका को हस्ताक्षर सहित पत्र लिखा कि दर्शकों के साथ मैच की इजाज़त देने को लेकर ब्रिटेन की सरकार ने ख़तरनाक और अनैतिक काम किया है.

पश्चिमी मीडिया में बकायदा ऐसी खबरें छपी है कि मैच देख कर जिन शहरों में दर्शक लौटे हैं वहां कोरोना के मामले बढ़े हैं. इन खबरों में यह भी जानकारी है कि जो भी मैच देखने गया था, उनकी कांटेक्ट ट्रेसिंग की जा रही है. क्या कुंभ मेले में गए लोगों की काटेंक्ट ट्रेसिंग हुई थी ? अब तो लोगों और सरकार ने आरोग्य सेतु का नाम लेना बंद कर दिया है. भारत सरकार अपने विज्ञापनों में ट्रेसिंग ट्रेसिंग कहने तो लगी है लेकिन कोरोना के मरीज़ जानते हैं कि ट्रेसिंग की हकीकत क्या है.

CNN ने रिपोर्ट किया है कि जैसे ही डेल्टा वेरिएंट के केस बढ़ने लगे कई देशों ने यूरो कप का विरोध किया है. इटली के प्रधानमंत्री ने कहा कि उस देश में फाइनल नहीं होना चाहिए जहां पर संक्रमण के तेज़ गति से फैलने का ख़तरा बहुत ज़्यादा है. जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति ने भी मैचों को देखने के लिए अनुमति दिए जाने की आलोचना की है.

WHO ने भी सवाल उठाते हुए कहा कि यह देखना ज़रूरी हो जाता है कि स्टेडियम तक पहुंचने से पहले ये लोग शहर की भीड़ में घुलते-मिलते पहुंचते हैं, इसी तरह लौटते हैं. इस तरह की भीड़ के आने से मेज़बान शहर में कोरोना के मामले दस प्रतिशत बढ़ गए हैं.

फुटबॉल का मैच देखने के लिए हर किसी को स्टेडियम में जाने की अनुमति नहीं दी गई थी. सभी के लिए अनिवार्य था कि टीके की दोनों डोज़ लगी हो, RTPCR टेस्ट हुआ हो और रिपोर्ट निगेविट हो, मास्क पहने हों. इसके बाद भी जहां जहां इन नियमों का सख़्ती से पालन नहीं हुआ वहां पर मीडिया में रिपोर्ट है. तब भी मेरा मानना है कि यूरो मैच में हज़ारों की संख्या में दर्शकों को अनुमति नहीं देनी चाहिए थी.

इस बात को लेकर व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में अभियान नहीं चलाना था बल्कि जैसे यहां की सरकार को जवाबदेह ठहराया गया वैसे ही सामने से वहां की सरकारों पर सवाल करना था. भारत के प्रधानमंत्री को बयान देना चाहिए था जैसे इटली, जर्मनी और फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष यूरो कप को लेकर सवाल उठा रहे थे लेकिन भारत के प्रधानमंत्री के पास ऐसा बोलने के लिए नैतिक बल नहीं था, इसलिए व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में अंदरखाने अभियान चलाया जा रहा है.

विंबलडन की कई खबरों को देखा. यहां भी उन्हीं दर्शकों को स्टेडियम में आने की अनुमति दी गई जिन्होंने टीके की दोनों डोज़ ली थी. RTPCR टेस्ट कराना अनिवार्य था. विंबलडन में दर्शकों ने इन नियमों को तोड़ा इसे लेकर हमें कोई ख़बर नहीं मिली. यूरो कप फुटबाल को लेकर मिली. एनबीसी न्यूज़ में खबर छप रही है कि ऐसे समय में जब ब्रिटेन में डेल्टा वेरिएंट सर उठा रहा है, विबंलडन के लिए दर्शकों को अनुमति देना कितना सही है.

एनबीसी ने लिखा है कि एक हफ्ते में कोरोना के नए मामलों में 58 प्रतिशत का उछाल आ गया है. विबंलडन देखने वालों में वो वैज्ञानिक भी शामिल थी जिन्होंने ऑक्सफोर्ड के टीके की खोज की है. जहां दर्शकों ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया था. भारत में आपने केवल सुना ही है कि भारत के वैज्ञानिकों ने टीके की खोज की लेकिन आज तक उनका चेहरा नहीं देखा.

मेरा मानना है कि यूरो कप और विंबलडन में भीड़ की इजाज़त न दी जाती तो दुनिया में बेहतर संदेश जाता कि कोरोना की तलवार अभी भी सर पर लटक रही है. यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं था. हमें याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन अपने नागरिकों को दोनों डोज़ देने के मामले में भारत से कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है. हमें नहीं भूलना चाहिए.

विबंलडन और क्रिकेट के मैच के दर्शकों के व्यवहार में आप कोई तुलना नहीं कर सकते. याद कीजिए 12 मार्च को जब अहमदाबाद में क्रिकेट मैच हुआ, तब बिना किसी खास सतर्कता के 57000 दर्शकों को स्टेडियम में आने दिया गया. जब टीका नहीं था तब इसकी अनुमति क्यों दी गई ?

अब आते हैं कुभ पर. क्या कुंभ को लेकर पश्चिमी मीडिया ने बदनाम किया ? व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी वालों को अच्छी तरह पता है कि पश्चिमी मीडिया कुंभ से कितना आकर्षित रहता है. इस बार इसलिए छापा गया क्योंकि कोरोना की तैयारी ज़ीरो थी. सबको दिख रहा था कि लोग सड़कों पर दम तोड़ रहे हैं. सरकार की तैयारी का दावा झूठ निकल रहा है. तब सवाल उठा कि लोग मर रहे हैं और देश का मुखिया रैलियों में भाषण दे रहा है. कुंभ में लाखों लोगों के आने की अपील कर रहा है.

टाइम्स आफ इंडिया ने लगातार कई दिनों तक पहले पन्ने पर ख़बर छापी कि कुंभ के समय जिस कंपनी को RTPCR टेस्ट का ठेका दिया गया उसने फर्ज़ी रिपोर्ट दी. लोगों को निगेटिव रिपोर्ट दिया जो कि ग़लत था. जिस कंपनी को ठेका मिला वो बीजेपी नेताओं का करीबी था. अब इस करतूत से छवि ख़राब होती है या पश्चिमी मीडिया के इस ख़बर को छाप देने से छवि ख़राब होती है ? तब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने कहा था कि मां गंगा के आशीर्वाद से कोरोना नहीं होगा. क्या इस तरह के अवैज्ञानिक बयानों से भारत की छवि ख़राब नहीं हो रही थी ?

कुंभ बनाम यूरो कप की तस्वीर घुमा कर मोदी सरकार की असफलता पर सफलता के मुकुट पहनाने के लिए बेटैन इन व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी वालों से पूछिए. वे यूरो कम पर पश्चिमी मीडिया की चुप्पी को वायरल कर रहे हैं, जब भारत में क्रिकेट मैच हो रहे थे, कुंभ हो रहा था, मोदी रैलियां कर रहे थे, बेतुके तर्कों के आधार पर आठ-आठ चरणों में बंगाल में चुनाव कराया जा रहा था. तब वे क्यों चुप थे ? कमी पश्चिमी मीडिया की नहीं थी और न है, कमी है मोदी सरकार की जिसने लोगों की जान बचाने की तैयारी भी नहीं की और तरह तरह के झूठ भी बोले.

  • रविश कुमार

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