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काजल लता

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चांद
औंधे मुंह गिरा था
नीले सागर में
और चली गई थी मां
उस पार
चांद की पीठ पर
एक काली गठरी है
जिसका कलुष
काजल लता के वक्ष में पुती
कालिख़ सा है

बड़े जतन से मां
काजल लता के रुपहले बदन को
चमकाती थी
और घी का लेप अंदर लगा कर
घी के दीये के उपर
औंधे मुंह रख देती थी
आसमान में औंधे मुंह गिरे
चांद की तरह

मां की चिता पर
घी डालते हुए
जब अग्नि को अमृत पान करा रहा था मैं
मेरे चोटिल घुटनों की सिंकाई हो रही थी
शायद
यह अंतिम बार मां ने छुआ था मुझे
बाम बनकर

काफ़ी दिनों बाद
मां के छोड़े गए सामान के पास
मैं डरते हुए गया था
(तब तक सभी भाई बहन
अपना अपना हिस्सा ले कर
लौट गए थे अपनी अपनी दुनिया में )

कांपते हाथों से
सबसे पुरानी संदूक को खोलता हूं
फिनाइल की गोलियों की तीखी महक
टकराती है नाक से
और हाथों में आ जाते हैं
तहिया कर रखे हुए
बच्चों के कुछ कपड़े
खिलौने
और एक काजल लता

शायद
मां के लिए
कोई बच्चा कभी बड़ा नहीं होता

मैं अपने माथे के उस हिस्से में
एक सिहरन संभालता हूं
जहां, मां लगा देती थी
अपनी गोद से उतारने के पहले
एक काला टीका
चांद की पीठ पर लगे
कलुष की तरह

  • सुब्रतो चटर्जी

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