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विकास मतलब जंगल में रहने वाले की ज़मीन छीन लो और बदमाश को दे दो

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विकास मतलब जंगल में रहने वाले की ज़मीन छीन लो और बदमाश को दे दो

हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ताहिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता
सलवा जुडूम से पहले बस्तर में मात्र चार सौ पूर्णकालिक माओवादी थे लेकिन जब आदिवासियों के गांवों को बार बार जलाया गया. तब माओवादियों ने आदिवासी नौजवानों को सुरक्षा बलों से अपने गांवों को बचाने का प्रशिक्षण दिया और जन मिलिशिया का गठन किया. इस तरह सलवा जुडूम से पहले जिन माओवादियों की संख्या मात्र चार सौ के लगभग थी, सरकार के सलवा जुडूम के बाद उनकी संख्या पचास हजार हो गई क्योंकि बड़ी तादात में आदिवासी नौजवान अपने गांवों को सुरक्षा बलों के हमलों से बचाने के लिए जन मिलिशिया में शमिल हो गये थे. इस तरह एक छोटी समस्या को सरकारी गलत नीतियों और तौर तरीकों ने और ज्यादा बढ़ा दिया.

आप मेहनत करने वालों को नीच जात मानते हों. आपके भगवानों में विश्वास ना करने वाले अपने ही देशवासियों को आप हीन और विधर्मी मान कर उनसे नफरत करते हों. आप अपने देश के करोड़ों गरीबों की ज़मीने सरकारी सुरक्षा बलों के दम पर छीनने को जायज़ भी मानते हों. और राष्ट्र के आर्थिक विकास का मतलब आपके लिये बस अपनी बढ़िया गाड़ी, महंगे मकान और क्रिकेट मैच ही हो. इसके बाद आप क्रूर आतंकवादी हत्यारे को अपना नेता भी चुन लें. तो ऐसा कर के आप इस देश के अस्सी प्रतिशत आदिवासियों, दलितों और गाँव के गरीबों को क्या संदेश दे रहे हैं ? कभी सोचा है ?

यही है आपकी राष्ट्र में शन्ति रखने की योजना. यही है आपका राष्ट्रीय विकास क्यों ? अगर आप आतंकवादी को अपना नेता चुनेंगे और आतंकवादी तरीकों से अपना विकास करेंगे तो बदले में आपको क्या मिलेगा आप ही मुझे समझा दीजिए ?

आप जिस जगह पैदा हुए और हजारों सालों से रह रहे हैं, उस जगह को मुंबई का कोई बदमाश आकर आपसे छीने तो आप क्या करेंगे ? आप सरकार से उसकी शिकायत करेंगे, लेकिन अगर सरकार उस गुंडे की तरफ हो जाय तो फिर आप क्या करेंगे ? फिर आप अदालत में जाकर उसकी शिकायत करेंगे, लेकिन अगर अदालत कहे कि भाई आप तो इस ज़मीन पर लगे हुए जंगल में रह रहे हो पर ज़मीन का कुछ करते नहीं हो. बस जंगल का महुआ, फूल और पत्ते से काम चलाते हो और धान पैदा करते हो. यह बदमाश साहब यहाँ जंगल काटेंगे, सडक बनायेंगे, कारखाना बनायेंगे, उसमे शहर के पढ़े लिखे लोग आकर काम करेंगे.

शहर में जज साहब का बेटा भी है. जज साहब को अपने बेटे की फ़िक्र है, क्योंकि अगर आपका जंगल काट कर बम्बई के बदमाश साहब कारखाना नहीं लगायेंगे तो शहर में रहने वाले जज साहब का बेटा क्या करेगा ? आप जज साहब की मजबूरी समझिये. जज साहब का बेटा खेती तो करेगा नहीं, उसे तो नौकरी चाहिए ही ना ? अगर आप ज़मीन नहीं देंगे तो उद्योग व्यापार कैसे चलेगा ? उद्योग व्यापार नहीं चलेगा तो शहर में रहने वाले जज साहब का बेटा और उसके दोस्त लोग क्या करेंगे ? यही जज साहब की मजबूरी है, इसे ही न्यायपालिका का राजनैतिकरण कहा जाता है.

आप की ज़मीन छीन कर ही विकास हो सकता है, यह एक राजनैतिक विचार है. राजनैतिक विचार तो यह भी है कि आप की ज़मीन छीने बिना आपको शामिल करके भी विकास किया जा सकता है. लेकिन बम्बई के बदमाश साहब आपको लाभ में हिस्सा देना नहीं चाहते. तो बदमाश साहब सरकार में बैठे लोगों को रिश्वत देकर पुलिस भेज कर आप की पत्नी और बेटी से बलात्कार करवाता है और बदमाश साहब की पुलिस आकर आपके बेटे को गोली मार देती है, जिससे आप ज़मीन छोड़ कर भाग जाएँ. आपकी तरफ से बोलने वाले लोगों को बदमाश साहब की सरकार नक्सलवादी बोलती है.

अब पुलिस, जज साहब का बेटा, उसके शहरी दोस्त, पुलिस, सरकार, और जज साहब आपके खिलाफ हैं और बदमाश साहब की तरफ हैं. विकास मतलब जंगल में रहने वाले की ज़मीन छीन लो और बम्बई के बदमाश को दे दो.

जज साहब को बम्बई के बदमाश की बड़ी चिंता है. इसे ही न्यायपालिका का वर्ग चरित्र कहते हैं. जज साहब शहरी अमीर वर्ग से हैं, इसलिए जज साहब जंगल में रहने वाले के पक्ष में फैसला नहीं देते. अब अगर जज साहब बदमाश साहब की तरफ हो जायेंगे तो न्याय का क्या होगा ?

मान लीजिये कल को बदमाश साहब पुलिस वाले की बीबी के साथ बलात्कार कर दें तो क्या जज साहब बदमाश साहब को सज़ा दे पाएंगे ? नहीं, जज साहब बदमाश साहब को कभी सजा नहीं देंगे, क्योंकि बदमाश साहब के कारण ही तो शहर में रहने वाले लोगों की कारें और शापिंग माल चल रहे हैं. तो इसका मतलब है बदमाश साहब कुछ भी करेंगे, उन्हें कोई नहीं रोक सकता ?

बदमाश साहब चाहें तो 16 आदिवासी औरतों के साथ पुलिस द्वारा बलात्कार करवा दें और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के बावजूद जज साहब उन बलात्कार करने वालों को कोई सजा नहीं देंगे. बदमाश साहब चाहें तो सोनी सोरी के गुप्तांगों में थाने के भीतर पत्थर भरवा दें, सुप्रीम कोर्ट में बैठे जज साहब भी बदमाश साहब की पुलिस को कोई सजा नहीं देंगे.

तो आपने देखा कि अब बदमाश साहब, पुलिस और जज साहब का एक गिरोह बन गया है, इसे ही गिरोह तन्त्र कहा जाता है. जज साहब, पुलिस, सरकार और बदमाश साहब अपने इस गिरोह तन्त्र को लोकतंत्र कहते है. और जो लोग इसे गिरोह तन्त्र कहते हैं, उसे सरकार और पुलिस मिल कर जेल में डाल देते हैं, और कह देते हैं कि ये लोग लोकतंत्र को नहीं मानते इसलिए ये लोग भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं.

आप ही बताइये कि लोकतंत्र के लिए खतरा बदमाश साहब, उनकी तरफ से आपकी बेटी से बलात्कार करने वाली पुलिस, बदमाश की सरकार और बदमाश के गुलाम जज साहब हैं, या इस गिरोह तन्त्र को ख़त्म कर सच्चा लोकतंत्र लाने की कोशिश करने वाले लोग लोकतंत्र के लिए खतरा हैं ?

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हाल में छत्तीसगढ़ में चौबीस सिपाहियों की मृत्यु हुई. सारा देश इस खबर से दु:खी हुआ. गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ गये. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से माओवाद से निर्णायक युद्ध की घोषणा करी. सोशल मीडिया और चैनलों पर बदला लेने और माओवादियों को मिटा देने के स्वर गूंजने लगे.

सुरक्षा बलों पर इस तरह का यह हमला कोई पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले भी अनेकों बार हमले हुए. हर बार गृहमंत्री और मुख्यमंत्री ने माओवाद के खात्मे का अपना दावा पेश किया लेकिन सुरक्षा बलों के सिपाहियों की मौत होती रहीं.

हमारे देश में दरअसल गंभीर चिंतन और चर्चा के पक्ष में माहौल नहीं है. जैसे अगर कोई कहे कि आइये इस समस्या पर गंभीर चिंतन करते हैं. आइये इस बात पर विचार करते हैं कि इतने वर्षों से लगातार होने वाले हमलों को कोई सरकार क्यों नहीं रोक पा रही है ? हर बार सुरक्षा बलों के जवानों की संख्या बढ़ा दी जाती है, लेकिन हमले फिर भी क्यों नहीं रुक पाते हैं ?

आइये इस पर चर्चा करें कि क्या माओवाद को सिपाहियों की संख्या बढ़ा कर रोका जा सकता है ? साथ ही इस बात की भी चर्चा करें कि कहीं ऐसा तो नहीं सरकार की नीति और योजना और इस समस्या से निपटने का तरीका गलत हो ? क्योंकि अभी तक का अनुभव तो यही बताता है कि सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाने से माओवाद में कोई कमी नहीं आई है. तो ऐसे सवाल उठाने वाले को माओवादी समर्थक या सिम्पैथाइजर का इल्जाम मिल जाता है. इस डर से कोई भी पत्रकार, बुद्धिजीवी या सामाजिक कार्यकर्ता इस तरह के सवाल उठाने में डरता है.

और सही सवाल उठाने में होने वाले खतरे का अंदेशा काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविक है. आखिरकार सही सवाल उठाने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी, वकील साहित्यकार आज जेलों में डाले जा चुके हैं. सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद तेल्तुम्ड़े और अन्य बहुत सारे लोग सही सवाल उठाने की वजह से ही सरकार की आँखों में खटकने लगे थे और अंत में उन्हें जेल जाना पड़ा.

आखिर सरकार इस समस्या को हल क्यों नहीं करना चाहती ? आखिर सरकार सही सलाह देने वालों को जेल में क्यों डाल देती है ? इसी बात में इस समस्या के हल ना होने का पूरा रहस्य छिपा हुआ है. असल में माओवादी समस्या को हल करने के लिए सरकार को जो करना पड़ेगा वह सरकार करना नहीं चाहती क्योंकि उसे करने से कमाई बंद हो जायेगी.

आदिवासी इलाकों में खनिज हैं, कीमती जंगल है, प्रचुर मात्रा में पानी है, यह सब अरबों रूपये की कीमत का माल है. बड़े पूंजीपति इस माल को बेच कर अपनी तिजोरी भरना चाहते हैं लेकिन इस कीमती माल के ऊपर तो आदिवासी बैठा हुआ है. आदिवासी को जंगल से भगाए बिना इस माल पर पूंजीपति का कब्जा कैसे होगा ? इसलिए छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साढ़े छह सौ गांव खाली कराये गये. इसके लिए आदिवासियों के घरों को आग लगाईं गई, हत्याएं की गईं, बलात्कार किये गये, निर्दोषों को जेलों में ठूंसा गया.

यह सब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में लिखा गया है. आप चाहें तो सुप्रीम कोर्ट की वेबसाईट पर नंदिनी सुन्दर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देख लीजिये. सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे सरकारी अभियान को संविधान विरुद्ध घोषित किया लेकिन कोई सरकार आपको कभी नहीं बतायेगी कि उसने संविधान विरोधी काम किया है.

सलवा जुडूम से पहले बस्तर में मात्र चार सौ पूर्णकालिक माओवादी थे लेकिन जब आदिवासियों के गांवों को बार बार जलाया गया. तब माओवादियों ने आदिवासी नौजवानों को सुरक्षा बलों से अपने गांवों को बचाने का प्रशिक्षण दिया और जन मिलिशिया का गठन किया. इस तरह सलवा जुडूम से पहले जिन माओवादियों की संख्या मात्र चार सौ के लगभग थी, सरकार के सलवा जुडूम के बाद उनकी संख्या पचास हजार हो गई क्योंकि बड़ी तादात में आदिवासी नौजवान अपने गांवों को सुरक्षा बलों के हमलों से बचाने के लिए जन मिलिशिया में शमिल हो गये थे. इस तरह एक छोटी समस्या को सरकारी गलत नीतियों और तौर तरीकों ने और ज्यादा बढ़ा दिया.

आज भी अगर माओवाद की समस्या को कम करना है तो सरकार को आदिवासी का दिल जीतना होगा तब उस आदिवासी के दिल में सरकार के प्रति विश्वास और प्रेम पैदा होगा लेकिन जब आदिवासी प्रदेश के मुख्यमंत्री के स्विस बैंक में खाते हों, जिनमें खनन कम्पनियों से मिली रिश्वत जमा हो तब उसकी सरकार आदिवासी का दिल जीतने का काम कैसे कर सकती है ? तब तो उस मुख्यमंत्री के पास एक ही रास्ता बचता है कि गरीब सिपाही से कहो कि जाओ जिस इलाके में पूंजीपति को मुनाफा कमाना है वहाँ के सारे माओवादियों को मार डालो.

अब वह सिपाही माओवादियों और उनसे सहानुभूति रखने वाली आबादी के बीच घिर जाता है और मारा जाता है. सिपाही जो किसान का बेटा है वह पूंजीपति के लालच के लिए मारा जाता है. इसे रोका जाना चाहिए.

इसका एकमात्र तरीका है कि जनता को सारी सच्चाई पता होनी चाहिए कि असल में यह खूनखराबा पूंजीपतियों, नेताओं और अधिकारियों के लालच की वजह से हो रहा है. जब जनता सच्चाई को समझेगी और अपने नेताओं से कहेगी कि ये माओवादियों को मिटा देने के अपने झूठे वादे मत करो बल्कि लालच से बाज आओ, तब सिपाहियों का खून बहना बंद होगा और सच्चा लोकतंत्र बहाल होगा. वरना नेता तो आपको हमेशा मारो-मारो, काटो-काटो, मिटा दो का नारा लगाने वाली भीड़ बना कर रखना चाहता है ताकि आप सही सवाल कभी ना उठा सकें.

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ROHIT SHARMA

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