हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
बिना टिकट कटाए पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे में घुस कर, सीट पर बैठे किसी वैध यात्री को ‘थोड़ा बगल होइए’ कहते, धकियाते, अपने बैठने के लिये जगह बना कर बेपरवाह युवाओं का समूह मोबाइल स्क्रीन पर नजरें गड़ाता है. एक से एक व्हाट्सएप मैसेज, एक से एक फेसबुक पोस्ट्स. अधिकतर फर्जी, वाहियात और अधकचरी जानकारियों से भरा हुआ.
लेकिन, ये फर्जी शब्द उन युवाओं के लिये वेद वाक्य हैं, क्योंकि उनकी ऐसी ही मानसिक समझ विकसित हुई है. उनके ही किसी यार, दोस्त, रिश्तेदार ने मैसेज फारवर्ड किया है, ‘थरथर कांप रहा इमरान’ … ‘मोदी के मास्टर स्ट्रोक से सांसत में पड़ा ड्रैगन’ … ‘औकात में आए कश्मीरी आतंकी’ …आदि आदी.
‘हिलाइ देलकै’ … राष्ट्रवादी उफान से उफनता, अचानक से उत्तेजित हुआ एक नौजवान साथियों की ओर मुखातिब होता बोलता है. तभी, डेली हंट की खबरों पर नजरें टिकाए एक नौजवान मद्धिम-सी आवाज में चिहुंकता है, ‘ले बलइया, डेढ़ सौ ट्रेन को प्राइवेट कर दिया.’
‘यह तो होना ही है’, चश्माधारी एक युवक बोलता है. शायद, कंपीटिशन की तैयारी करते-करते उसकी आंंखों पर चश्मा चढ़ आया है. उन आंखों में चिन्ता की कुछ रेखाएं उभरती हैं. आखिर, पिछले चार-पांच वर्षों से वह जिन परीक्षाओं की तैयारी करता रहा है, जिन परीक्षाओं में बैठता रहा है, उनमें अधिकतर रेलवे की ही थी, एएसएम से लेकर ग्रुप डी तक.
‘रेलवे को सुधारने के लिये जरूरी है. बहुत मन बढ़ गया है सबका. खाली हड़ताल करेंगे.’ शोहदा टाइप एक लड़का बोलता है. चश्माधारी कुछ समझाना चाहता है, तब तक मुद्दा बदल जाता है. किसी दोस्त ने अपनी नई-नवेली गर्लफ्रेंड की पिक व्हाट्सएप पर भेजी है. सब चटखारे लेते उस फोटो में मशगूल हो जाते हैं.
छह-सात नौजवानों के उस समूह में रेलवे के निजीकरण का मुद्दा अचानक से उठता है और उससे भी तेजी से गुम हो जाता है.
रुकती, झिझकती, कभी तेज, कभी धीमी चलती पैसेंजर ट्रेन आगे बढ़ती जाती है. आते-जाते स्टेशनों से भी तेज गति से समूह की चर्चाओं के सिरे बदलते जाते हैं. कोहली के जलवे से स्मृति मंधाना की क्यूटनेस तक, रेडमी के नए मोबाइल से जूतों की ऑनलाइन सेल तक, कस्बे के चौक पर कल शाम नजर आई किसी अनजान लड़की के संभावित पते-ठिकाने से लेकर बीए पार्ट थर्ड की परीक्षा के संभावित डेट तक…
किसी छोटे स्टेशन पर ट्रेन ठहरती है. एकाध को छोड़ बाकी उतरने लगते हैं. वह चश्माधारी भी, जो समूह की चर्चाओं में शामिल रह कर भी कहीं और था, ‘अब रेलवे परीक्षा की उसकी तैयारियों का क्या होगा ? उसने तो पूरे 5 साल लगा दिए इनकी तैयारियों में. किसी में कुछ नम्बरों से रिटेन में रह गया, किसी का डेट ही नहीं निकल रहा कि कब होगी परीक्षा, बैंकों में तो भर्त्ती लगभग बंद ही हो गई है. बाकी कहीं कोई रास्ता नहीं.’
‘तुम बहुत सोचते हो, चिल करो यार…’ अगले गंतव्य पर उतरने के लिये ट्रेन में बैठा रह गया एक साथी उस चश्माधारी की गंभीरता पर तंज कसता है.
ट्रेन आगे बढ़ जाती है. समूह गांव जाने वाले ऑटो की ओर बढ़ता है. रेलवे के निजीकरण का मुद्दा उनके ज़ेहन से कब का गायब हो चुका. वह तो किसी ने न्यूज की हेडलाइन पढ़ कर यूं ही समूह में उसे दुहरा दिया था, वरना ऐसे मुद्दों से क्या वास्ता !
इनमें कोई पांच साल से बीए में ही है, क्योंकि युनिवर्सिटी समय पर परीक्षा नहीं ले रहा. किसी ने 2015 में ही स्टेट एसएससी की क्लर्की वाली परीक्षा दी थी, आज 2020 तक भी उसका निपटारा नहीं हुआ. कभी क्वेश्चन आउट से परीक्षा रद्द, कभी केस की सुनवाई में हाईकोर्ट में अटका मामला, किसी के बाप ने साढ़े तीन लाख में पारा मिलिट्री में सिपाही की नौकरी के लिये सेटिंग की हुई है, कोई इन सबसे बिल्कुल निस्पृह, गुमसुम, शरत वाया बिमल राय के देवदास की तरह ‘मितवा, लागी ये कैसी अनबुझ आग’ में जलता, ऊंघता.
अपने और अपनी पीढ़ी के बृहत्तर हित-अहित से बिल्कुल बेपरवाह, अपने पूर्वजों के संघर्षों से प्राप्त मानवीय अधिकारों के एक-एक कर सिमटते जाने से बिल्कुल लापरवाह, सत्ता-संरचना के प्रपंचों से घिरा, सम्मोहित-मानसिक रूप से रुग्ण हो चुकी अर्द्ध पढ़े-लिखे नौजवानों की ऐसी भीड़ इतिहास ने इससे पहले कब देखी थी, यह शोध का विषय है.
शायद कभी नहीं क्योंकि, गुलामी के दो सौ वर्षों के इतिहास में एक-एक कर ऐसे मनीषी आते रहे जो अपनी पीढ़ियों के मन-मस्तिष्क को आलोड़ित करते रहे. न टीवी, न मोबाइल, न व्हॉट्सएप, न एसएमएस…लेकिन लोकमान्य तिलक से लेकर गांधी तक, सूर्यसेन से लेकर भगत सिंह तक के विचार सुदूर गांवों तक भी पहुंचते रहे कि ‘उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद उनके लिये, उनके बच्चों के लिये जहर है.’
पता नहीं, वैचारिक सम्प्रेषणीयता का वह कैसा अद्भुत दौर था, कैसा प्रभाव था उन मनीषियों की वाणी में, कैसी पात्रता थी उन लोगों की, जो विचारों को ग्रहण कर खुद को औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ खड़े होने के लिये प्रस्तुत कर देते थे. लाठियां चलाओ, गोलियां दागो, हम अपना हक ले कर रहेंगे.
पीढियां खप गईं.
दौर बदला.
दौर तो होते ही हैं बदलने के लिये. गीता में कहा है, ‘परिवर्त्तन ही शाश्वत सत्य है.’
अब यह दौर है. सब कुछ बदला बदला-सा. जिन अधिकारों के लिये दादा ने लाठियां खाई, अनशन किया, आज पोते से वे छीने जा रहे हैं. पोता फेसबुक के फर्जी पोस्ट और व्हाट्सएप के फर्जी मैसेज में मस्त है. देशप्रेम दादा में भी था, देशप्रेम पोते की रगों में भी ठाठें मार रहा है.
अंतर सिर्फ इतना है कि दादा के देशप्रेम को गांधी, नेहरू, भगत सिंह, आजाद आदि अनुप्राणित कर रहे थे. पोते के देशप्रेम को ऐसी शक्तियां दिशा दे रही हैं, जिनके लिये यह सब एक टूल मात्र है. ऐसे व्यापक लक्ष्यों को हासिल करने के लिये जिनमें नई तरह की गुलामी होगी. दादा ने देश की आजादी के लिये, मनुष्यता के अधिकारों के लिये संघर्ष किया, कुर्बानियां दी. पोता फिर से गुलाम होता जा रहा है, नई तरह की गुलामी, जो अबूझ है, अप्रत्यक्ष है, लेकिन अधिक त्रासद है, अधिक बेरहम है.
दादा के दिलों पर गांधी, नेहरू, सुभाष से लेकर बिस्मिलों और आजादों का राज था, पोते के दिलों पर किन्हीं और राहों के राहियों का राज है. दिलों को गिरफ्त में करने के लिये उस दौर में विचार बड़े महत्वपूर्ण थे, अब विचारहीनता की जरूरत है.
दादा की पीढ़ी विचारों को सहेजती थी, पोता की पीढ़ी विचारहीनता का उत्सव मना रही है, विचारों की बात करने वालों को ट्रोल करके, उन पर हंस कर, उनके लिये गालियां निकाल कर. देश आगे बढ़ रहा है, समय बदल रहा है.
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