प्रतिक्रियावादी फासिस्ट मोदी सरकार और उसके पालतू मीडिया घरानों समेत अन्य तमाम संवैधानिक संस्थाओं के तमाम कुचक्रों, षड्यंत्रों और हमलों के बाद भी भारत के किसानों का क्रांतिकारी जुझारू आंदोलन और तेज होते हुए अब अपने 65 वें दिन में प्रवेश कर लिया है. क्रांतिकारी किसान आन्दोलन न केवल देश में ही वरन समूची दुनिया को झकझोर दिया है.
ऐसे वक्त में बिहार के मजदूर संगठन ग्रामीण मजदूर यूनियन, बिहार ने जुझारू क्रांंतिकारी किसान आंदोलन को अपना अभिवादन पेश करते हुए एक समर्थन पत्र लिखा है, जिसकी एक प्रति हमारे पास भी आई है. इस पत्र को हम यहां हू-ब-हू अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं.
बिहार के मजदूर संगठन द्वारा जारी यह पत्र इसलिए भी और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रतिक्रियावादी फासिस्ट सत्ता बिहार के जनता की ओर इशारा करते हुए बार बार यह कहता है कि ‘देखो, बिहार के लोगों को इस कृषि कानूनों से कोई दिक्कत नहीं है.’ यह पत्र प्रतिक्रियावादी फासिस्ट सत्ता के चेहरे पर एक करारा तमाचा है. इसके साथ ही मजदूर संगठन द्वारा जारी यह समर्थन पत्र उन तथाकथित बुद्धिजीवियों, तथाकथित वामपंथी भटकाववादियों को भी सबक सिखाता है जो मौजूदा जारी किसान आंदोलन को धनी किसानों का आंदोलन बतला बतला कर मजदूरों को उसके खिलाफ में खड़ा करना चाहता है – सम्पादक
ग्रामीण मजदूर यूनियन के साथी आपके बीच आपके साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए पहुंचे हैं. हम बिहार से हैं, जहां के बारे में सरकारी हलकों से यह प्रचार किया जा रहा है कि वहां के लोग तो तीनों कृषि कानूनों का विरोध नहीं कर रहे हैं. यह एक दुष्प्रचार है क्योंकि हमसे ज्यादा इस बात को कौन जानता है कि कृषि से उजड़ने का मतलब क्या है ?
लम्बे समय से खिंचती हमारी इस पीड़ादायक प्रक्रिया को ही त्वरित कर ये तीनों कानून गांव को कारपोरेट (बड़ी पूंजी) के हवाले कर देनेवाले हैं यानी कृषि से उजाड़ने की यह प्रक्रिया अब इन तीनों कानूनों के चलते विध्वंसक गति से आगे बढ़ेगी, इसीलिए आप बधाई के पात्र हैं कि आपने इनसे लड़ाई ठान ली है और यह आपकी मुहिम की सफलता का ही तकाजा है कि यह हठधर्मी सरकार, कारपोरेट को अपनी जमीर बेच चुकी यह सरकार आपसे बार–बार वार्ता करने को मजबूर हो रही है.
विगत वर्षों से देश के संसाधनों को तेजी से कारपोरेटों के हवाले कर दिया जा रहा है. मेहनतकश हों या पर्यावरण सबकी कारपोरेटों के मुनाफै व फायदे की खातिर बलि चढ़ाई जा रही है. किसान आंदोलन ने संघर्ष ठानकर कारपोरेटों के इस ‘अश्वमेध यज्ञ‘ के घोड़े का सीधे लगाम पकड़ ली है और लड़ाई जारी है. रास्ते के हर मुश्किल से पार पाते हुए किसानों का जत्था जिस तरह से दिल्ली बॉर्डर पर आकर कैम्प लगाए हुए है, वह उस दृढनिश्चय का परिचायक है कि लड़ाई फैसलाकुन है.
ये कैम्प पुरानी लड़ाइयों के दौरान लगने वाले शिविरों की याद ताजा कर जाते हैं. हमारे पुरखों की जमीन लेकर, उनके ही श्रम से और उनके ही टैक्स से निर्मित व चलने वाले रेलवे का निजीकरण हो रहा है, पब्लिक सेक्टर का हर उद्यम कारपोरेटों को भेंट चढ़ाई जा रही है और यहां तक कि हमारी बचत के पैसे भी इन्हें दे दिए जाते हैं जो फिर खट्टे ऋण के रूप में बैंकों पर बोझ को तरह काम करते हैं और हमारे बचतों पर जोखिम लादते हैं जैसाकि कई बैंकों के डूबने से साफ नजर आता है. ऐसे में किसानों की यह लड़ाई हमारे हर समर्थन की मांग करती है क्योंकि इसने इस कारपोरेट हमले के एक सिरे को पकड़ कर ‘हाल्ट’ की आवाज लगाई है, जो आगे चलकर इस सरकार को पीछे मुड़ने को विवश करेगी.
यह उस राजनीति को चुनौती है जो जनादेश तो जनता की सेवा के नाम पर लेती है परंतु सेवा कारपोरेटों की करती है. भाजपा सरकार तो यह काम बेशर्मी से करती है और इसके लिए हर हथकंडा अपनाती है. वह देश की जनता की बुरी हालत के आंकड़ों को छुपाती है, आंकड़ों की बाजीगरी करती है, नफरत के आधार पर आवाम को बांटती है और फासीवादी हथकंडे अपनाकर जनता की हर वजिब आवाज को निर्ममता से कुचलती है.
यह जनता के मुद्दों को पीछे कर साम्प्रदायिक व जातीय वर्चस्व की गोलबंदी करती है और झूठ फैलाना, जाली न्यूज प्रेषित करना तो इसका शगल है. ऐसे में किसान आंदोलन ने हर झूठ, हर दुष्प्रचार को किनारे लगाते हुए अपना दमखम प्रदर्शित किया है और हमारी राजनीति में एक नई बयार बहाई है –– सच्चाई की जीत की यानी जनता की जीत की. जी हां, आपने ‘नैरेटिव’ बदला है. जनसंघर्ष फिर से हमारे राजनीतिक बहस के केन्द्र में है, उसने पाकिस्तान, हिन्दू–मुसलमान और देशभक्त–देशद्रोही के जुमलों और कुत्साप्रचार को पीछे धकेल दिया है.
आखिर ऐसी कौन सी बात है इन कानूनों में कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक किसान इतना उद्वेलित है ? जो तीन कृषि कानून हैं, उनमें से पहला कृषि उत्पाद को बेचने से सम्बंधित है. इसे बाजार समिति बाइपास कानून‘ का नाम दे दिया गया है. यह बाजार समितियों या सरकारी मंडियों को छोड़कर या खत्म कर बड़े देशी–विदेशी कम्पनियों के हाथों में बाजार को सौंप देने की मंशा रखता है और इसे ही किसान के लिए ‘आजादी‘ कहा जा रहा है.
लेकिन हम जानते हैं कि बड़ी पूंजी के आगे किसानों की एक नहीं चलेगी. कॉरपोरेट अपनी शर्तों पर खरीदेंगे और बाजार भावों का झूला झूलते हुए किसान बर्बाद होंगे – विशेषकर छोटे किसान क्योंकि बुरे दिनों के लिए उनके पास पूंजी की कोई खेप या बचत नहीं होती कि वे आगे के लिए सम्भल पायें.
किसान आत्महत्याओं के पीछे बाजार भावों के उठा–पटक की बड़ी भूमिका रही है. इस कानून में खरीदार और किसान के बीच विवाद के निवारण के लिए कोर्ट का रास्ता बंद कर दिया गया है और यह अफसरशाही के हाथों में दे दिया गया है. जिलाधिकारी और उप–जिलाधिकारी तक ही सुनवाई होगी. बाजार समितियों में भुगतान की गारंटी की व्यवस्था थी. अब सोचिए, अडानी, अम्बानी, कारगिल, लुई ड्रेफस जैसी बड़ी देशी–विदेशी कम्पनियों के आगे किसानों का क्या चलेगा ?
फिर कहा गया है कि बिचौलिए को समाप्त किया जा रहा है. बात तो यह है कि कम्पनियां क्या एक–एक किसान के खेत से उपज ले जायेंगी ? ऐसे में ज्यादातर किसान कम्पनी के दलालों के ही हाथों बेचने को मजबूर होंगे. फिर याद रहे कि बेचने की आजादी के तहत हमेशा नहीं बिकने की आजादी भी निहित रहती है. जैसे हम कहीं भी मजदूरी करने के लिए आजाद हैं तो यह भी छूट है कि हमें मजदूरी पर काम मिले ही नहीं.
इतना ही नहीं बाजार समितियों के विघटन से जुड़ी यह बात भी है कि सरकारी खरीद कम की जाये और कालक्रम में एफसीआई – जो सरकारी खरीद करती है, उसे भंग किया जाए. इसी नजर से बहुचर्चित शांता कुमार कमिटी बनाई गई थी. सरकार पहले ही पीडीएस को खत्म कर नकदी भुगतान का मन बना चुकी है. ऐसा वर्ल्ड बैंक से लेकर विदेशी कॉरपोरेट व दक्षिणपंथी अर्थशास्त्रियों की मांग है. इस तरह से गरीबों और देश की खाद्य सुरक्षा पर ही यह कुठाराघात है और मजदूर वर्ग इसका विरोध करता है.
दूसरा जो कानून है, वह ठेका खेती को लेकर है. ठेका खेती के तहत किसान से कम्पनियां करार करेंगी. जाहिर सी बात है कि ये कम्पनियां जिस तरह से चतुर वकीलों को रखकर करार करेंगी, वह किसानों को छलावे में रखने वाला बन सकता है और ऐसा है भी. सीमित स्तर पर होनेवाली ठेके खेती का बुरा अनुभव तो किसानों के पास है ही. खेती की लागत वस्तुओं से लेकर खेती के उत्पाद तक पर कम्पनी (स्पॉन्सर) का ही वर्चस्व होगा और यह इनकी देख–रेख में होगा. ऐसे में किसान के लिए जमीन के मालिक होने के नाते जो आजादी है, वह नाममात्र की ही होगी.
कहा जा रहा है कि किसानों के खेत का मालिकाना ये कम्पनियां नहीं ले पायेंगी लेकिन किसान तो अपने ही खेत में कम्पनी का गुलाम बने रहेंगे. यहां भी ‘संग्रहकर्ता‘ (gregator) के नाम से बिचौलिए की व्यवस्था की गई है. विवाद निवारण भी भ्रष्ट अफसरशाही के हाथों में ही होगा, जिसे बड़ी कम्पनियां आसानी से अपनी बात मनवा सकती हैं. इनके ‘थिंक टैंक‘ के अनुसार बड़े पैमाने पर सीधे कारपोरेट खेती अभी नहीं शुरू की जा सकती है क्योंकि यह राजनीतिक रूप से विस्फोटक होगी. ठेका खेती बीच का रास्ता है, जिसके तहत वास्तविक नियंत्रण कारपोरेटों के हाथों में होगा परंतु यह लगेगा कि किसान स्वेच्छा से सब कुछ कर रहे हैं.
फिर तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन लाता है, जिसके तहत निजी क्षेत्र को मनचाहा भंडारण की छूट दी गई है. यह आवश्यक वस्तुओं के दामों में वृद्धि लायेगा और जब भी ऐसा होगा मजदूरों–मेहनतकशों की जिन्दगी तबाह होगी. बड़े पैमाने पर भंडारण वायदा बाजार में बड़े आकार के खेल को बढ़ावा देगा, जो अंततोगत्वा सट्टेबाजी ही है और किसानों को इसका सीधा भोग भुगतना पड़ेगा. इसके बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था UNCTAD ने कई रिपोर्ट पेश की हैं. लेकिन सरकार बाजार में किसानों को सही दाम मिले, इसके नाम पर इसको बढ़ावा दे रही है जो किसान व कृषि उत्पाद उपभोक्ताओं दोनों के लिए घातक है.
समग्रता में ये तीनों कानून किसानों को खेती–बारी से बाहर करने के लिए ही हैं और सरकारी दस्तावेजों में यह मंशा नजर आती है. यहीं पर हम तीनों कृषि कानून और हाल ही में पारित चार ‘लंबर कोड‘ के बीच के सम्बंध पर भी कहना चाहेंगे. आज की विश्व पूंजीवादी–साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत पूंजी कहीं भी जा सकती है, सस्ती मजदूरी का बहुत महत्व हो गया है. अपने मुनाफे की हवस के लिए पूंजी सारे कानूनों को खत्म करना चाहती है ताकि बेरोकटोक शोषण कर पाये.
भारत का पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार चाहती है कि वह विदेशी पूंजी को आमंत्रित कर चीन जैसा बन जाये और इसके लिए उसके पास एकमात्र उपाय सस्ती मजदूरी है. और इसलिए वह मजदूरों के लिए संरक्षण देनेवाले लेबर कानूनों को खत्म कर रही है. इसी तरह से वह ‘विश्व सप्लाई चेन‘ में चीन का स्थान लेना चाहती है.
जब हम इन कृषि कानूनों को देखते हैं और लेबर कोड को देखते हैं तो इनके बीच का सम्बंध साफ नजर आता है. कृषि कानून सभी चीजों को बाजार के हवाले कर देता है और इन कृषि कानूनों के कारण बाजार अब तेजी से किसानों को खेती–किसानी से उजाड़ेगा. उजड़े हुए इन खेतिहर लोगों के सस्ते श्रम का इस्तेमाल करने के लिए यह जरूरी था कि श्रम के अति शोषण पर लगी हर तरह की रोक व उसके खिलाफ बने कानून खत्म कर दिए जायें और लेबर कोड यही करने जा रहा है, जैसा कि हमने देखा. आखिर हमारे शासकों की यही मंशा रही है कि खेतिहर आबादी को किसानी से हटाया जाए. मसलन 11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए बने पेपर में यह बात कही गई थी.
कहा जाता है कि यदि खेती में आय बढ़ानी है तो उस पर जीने वालों की संख्या घटानी पडेगी. गांव से शहरों में कृषि से उद्योग व सेवा क्षेत्र में उस जनसंख्या के गमन को सुगम बनाने के लिए और पूंजी के लिए फायदेमंद बनाने के लिए नए लेबर कोड भी काम करेंगे. तीनों कृषि कानूनों और लेबर कोड का यह एक सीधा संबंध दिखता है. दोनों तरह की आबादी पर हमला कर यह स्थिति बनाई जा रही है.
यह हमारे आकाओं का सपना को पूरा करेगा जिसके हिसाब से सस्ती मजदूरी के आधार पर उद्योग फलेगा–फूलेगा, पूंजीपति मालामाल होंगे और देश में ‘विकास‘ दिखेगा. ऐसा कुछ होगा कि नहीं यह अलग बात है, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि एक बहुत बड़ी आरक्षित श्रम वाहिनी बनेगी और वह मजदूरी दरों को नीचे रखने में मदद करेगी.
चार लेबर कोड इस आर्थिक कारक के साथ मिलकर मजदूर वर्ग की स्थिति को बदतर बनायेंगे. हम कृषि कानूनों और लेबर कोड के बीच के इस सम्बंध को देखते हुए दोनों के खिलाफ बिगुल फूंकना चाहते हैं. यह बड़ी पूंजी का बड़ा हमला है और किसान आदोलन बड़ा रूप लेकर सही ही इसके सामने आ डटा है.
अभी तक जब कि कॉरपोरेटों को खुली छूट नहीं दी गई थी और उनके लिए रास्ता पूरी तरह साफ नहीं कर दिया गया था, तो लोग रोज–ब–रोज खेती–बारी से उजड़ ही रहे थे. पूंजीवाद का यह आम नियम है कि छोटे उत्पादकों को वह बड़ी पूंजी के हवाले कर देता है. हम बिहार के ग्रामीण मजदूर इस बात को खूब झेल रहे हैं. हमारे यहांं तो गांववासियों का भी मुख्य काम खेती में नहीं रह गया है और पूरे भारत के लिए यह कमोबेश सही है जैसा कि एनएसएस–ओ० के हाल के (70वें चक्र) के सर्वेक्षण से साफ दिखता है !
अब जब बाजार को खुली छूट मिलेगी तो क्या होगा यह हम सब अनुमान लगा सकते हैं. आम जनगणना (2011) के आंकड़ों के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में 86 लाख की कमी आई है ! और इस बीच केवल खेतिहर मजदूरों की संख्या में 44 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. यह तो प्रत्यक्ष उजड़ने के आंकड़े होंगे, लेकिन अप्रत्यक्ष ढंग से खेती से उबड़ना भी देखा जा सकता है, जहां खेत रहते हुए भी मजदूरी ही आजीविका का प्रमुख सोत है. यह है पूंजीवाद के अंतर्गत सम्पतिहरण की प्रकिया.
सरकारी दस्तावेज छोटी जोतों को कृषि विकास में बाधा के रूप में पेश करते रहे हैं. वे कृषि से बड़ी आबादी को हटाने के हिमायती रहे हैं लेकिन राजनीतिक रूप से इसे करने से डरते रहे हैं. वह एक ऐसी दक्षिणपंथी फासीवादी सरकार ही कर सकती थी, जो बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ा होने में दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर सकती थी.
बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को निगल जाती है – यह पूंजीवाद का एक नियम है. जब गांवों को कॉरपोरेटों का चारागाह बना दिया जायेगा तो त्वरित ढंग से किसान आबादी उजड़ेगी. आखिर किसी भी पूंजीवादी देश में किसान आबादी सम्पत्तिहरण की ही प्रक्रिया से गुजरी है. आज भी संयुक्त राज्य अमेरिका में, जहां एक बहुत ही छोटी आबादी कृषि में लगी हुई है, यह प्रक्रिया चल रही है.
विकसित पूंजीवादी देशों में भी किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. कॉरपोरेटों को खुले बाजार के नाम पर छूट देना किसानी आबादी को स्वतंत्रता नहीं देता जैसा कि सरकार कह रही है, यह किसानी से ही उन्हें ‘स्वतंत्र‘ कर देता है, यानी उन्हें उजाड़कर मजदूर बना देता है.
हम जो कि बिहार से आए हैं, बिहार में एपीएमसी (मंडी) के खत्म होने का मतलब समझते हैं. अनियंत्रित और अनियमित बाजार ही इससे फले–फूले हैं. बिहार का सीमांचल कहे जाने वाले क्षेत्र मक्का की खेती के लिए जाना जाता है. यहां की उत्पादकता विश्व के श्रेष्ठतर मक्का खेती से टक्कर लेती है. मक्का की बिक्री को देखते हुए यहां रब्बी मक्का का उत्पादन 2006–2014 के बीच दुगना हो गया. यहां गैर-सरकारी गुलाबबाग (पुर्णिया) की मंडी बहुत बड़ी है, जो सबसे बड़ी मंडी पंजाब की खन्ना मंडी जितनी ही बड़ी है. बेशक किसानों को तत्कालिक फायदा हुआ होगा.
यहां दुनिया के बाजार पर कब्जा जमाये हुए इजारेदाराना एग्रीबिज़नेस कम्पनियां – कारगिल, लुई इफस, मॉनसेंटो, डूपाण्ट सभी हैं, वे मालामाल हुए हैं. किसानों को भी कुछ समय तक फायदा पहुंचा लेकिन खुले बाजार का खेल तब पता चला जब 2016 से विश्व मंडी में मक्का के दाम गिरने लगे. खुद बिहार सरकार की वेबसाइट ‘उद्योग मित्र‘ स्वीकारती है कि विश्व बाजार में दाम गिरने के चलते बिहार की मक्का क्रांति को बहुत बड़ा धक्का लगा है. धक्का तो उन किसानों को लगा जो इस दाम के झूला झूलते हुए बुरी स्थिति में फंसे.
आज यदि मक्के का एम.एस.पी. 1868 रू. प्रति क्विंटल रखा गया है तो वास्तव में बाजार में वह 900–1100 रु. प्रति क्विंटल के हिसाब से बिक रहा है ! यही है मुक्त बाजार का खेल जो छोटे उत्पादकों को बुरी स्थिति में ले पटकता है. इस तरह के कटु अनुभवों का ही नतीजा है कि किसान एमएसपी की गारंटी की मांग कर रहे हैं.
एमएसपी की मांग कर रहे किसानों को पूंजीवादी बाजार पर भरोसा नहीं है. वे जानते हैं कि वे बाजार में लुटते ही हैं इसीलिए वे सरकारी खरीद की मांग कर रहे हैं. पूरे विश्व में बाजार ने खेती–किसानी को तबाह किया है. बाजार आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में किसानों की नियति देखना है तो हम हर विकसित पूंजीवादी देश के अनुभव पर नजर डाल सकते हैं. इन देशों में सम्पत्तिहरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए अब आबादी का एक अत्यंत छोटा भाग (2 से 5 प्रतिशत) ही खेती–किसानी पर निर्भर करता है. वहां से भी आए दिन बाजार के खेल के चलते किसानों की आत्महत्याओं की खबर आती है. इसी बिन्दु से हमें इस समस्या के मुकम्मल हल की बात भी करनी चाहिए.
भारत में भी पिछले दशकों में लाखों किसानों और खेत मजदूरों ने आत्महत्याएं की है. यहां के कृषि संकट की यह सबसे दर्दनाक अभिव्यक्ति है. पिछले कई दशकों से भारत में कृषि संकट चल रहा है, जिसके तहत कृषि उत्पादों का नियतकालिक अतिउत्पादन या बिक्री की समस्या, किसानों की भयानक ऋणग्रस्तता, लगातार जोतों का टूटकर अव्यवहार्य होते जाना और अंततोगत्वा किसानों की बर्बादी देखे जा रहे हैं. सरकार की ओर से इसका जो हल दिया गया है वह एक पूंजीवादी हल है – वह है बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट खेती.
सरकार ने तो पाशा फेंक दिया है. अब हम पर है कि हम उजड़ें या फिर हम कोई दूसरा रास्ता लें. जैसा कि दिल्ली के बॉर्डर पर बोलते हुए एक कृषि विशेषज्ञ पी. साइनाथ ने इंगित किया – यहां से दो ही रास्ता है, या तो कॉरपरेट के नेतृत्व में खेती या फिर समुदाय के नेतृत्व में खेती. बेशक हम सभी कॉरपोरेट की लुटेरी व्यवस्था के विरुद्ध हैं तो फिर सामुदायिकता में ही जवाब है. पंजाब में आज फिर समुदाय काम करना शुरू किया है, सहयोग से ही खेती भी चल रही है और आंदोलन भी.
इस सामुदायिकता को यदि तार्किक परिणति दी जाए तो वह सहकारी व सामूहिक खेती ही होगी. वह बाजार आधारित भी नहीं हो सकती क्योंकि बाजार के अनुभवों की हमारी आपबीती कड़वी रही है. तो यह केवल वैसी व्यवस्था ही हो सकती है जो समाजवादी हो. केबल ऐसी व्यवस्था ही यह कर सकती है जो खेती का दूरदृष्टि वाला नियमन करे, जो उत्पादकों, मेहनतकश किसानों के पक्ष में हो और जो बाजार के अंधे नियमों से चले नहीं बल्कि नियोजित हो और वह है समाजवाद.
आखिर भारत में किसान आंदोलनों में प्रभावी आवाजें, संघर्ष समाजवाद के उच्च ध्येय से ही प्रेरित रही हैं और आगे तो यही केवल एकमात्र तर्कसंगत और सही रास्ता दिखाता है. समुदाय बिखड़ गया है और इसे फिर से reclaim करना है और ऐसा केवल आधुनिक स्तर पर, यानी समाजवाद के स्तर पर किया जा सकता है, जो बिना किसानों को उजाड़े आधुनिकतम खेती करे, पर्यावरण की रक्षा करे और समृद्धि लाए.
आखिर नए कानूनों का कौन फायदा उठा पायेंगे ? बड़ी इजारेदारियां ही न ? मुट्ठीभर देशी–विदेशी कम्पनियां ही न ? ठीक ही इस आंदोलन ने इनको चिन्हित किया है. सहज ही हमारे मुंह में नाम आते हैं — अदानी (प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ से लेकर साइलो (अदानी लॉजिस्टक्स) तक), अम्बानी (रियलायस फ्रेश आदि) जैसे भारतीय इजारेदारियां और साम्राज्यवादी सरमायेदार इजारेदारियां. यदि हम विश्व स्तर पर देखें तो कृषि रसायनों में मॉनसेंटो, इपॉण्ट, बेयर और केम चाइना के पास 60 प्रतिशत मार्केट शेयर है, फिर कृषि मालों के व्यवसाय व व्यापार से जुड़े पांच बड़ी इजारेदारियां हैं जो 70 प्रतिशत बाजार पर काबिज हैं – ये हैं एडीएम, कारगिल, लुई ड्रेफस, और बंज (ABCD). इन्हीं के साथ किसानों का सौदा होना है. और हम समझ सकते हैं कि कौन इन सौदों का फायदा उठायेगा. इनका ही दबदबा चलेगा और किसानी इन्हीं के इशारे पर चलने को विवश होगी. ये सब हमारे बाजारों में काम कर रहे हैं और इन्हीं के लिए खुला मैदान दिया जा रहा है.
यही है नव–उदारवादी नीतियों को चाल जो किसानों की स्वतंत्रता के नाम पर उन्हें इनके मुंह में धकेल रही है. पूंजीवाद के विध्वंसक नियमों को खुली छूट देने का नाम ही है नव–उदारवाद. यह है लूट का मंत्र. अब इन कानूनों के जरिए कृषि क्षेत्र भी खुलकर इनकी चपेट में आ गया.
यह हमारी और किसानी की आपबीती ही है जो आंदोलन को इच्छाशक्ति देने का काम कर रही है. सरकार ने कारपोरेटों के पक्ष में दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाकर इन कानूनों को पारित किया है, चाहे वे लेबर कोड हों या कृषि कानून. आज जब किसान इस सरकार से और बड़ी पूंजी की मार से त्रस्त होकर मोर्चा लिए हुए हैं तो हम इनका पुरजोर समर्थन करते हैं. आज वे फासीवादी सरकार के खिलाफ खड़े होने के लिए कमर कसे हैं, बड़ी पूंजी के खिलाफ खड़े हैं, तो हमारा साझा हित बनता है कि हम साथ दें और हमारा जीवन नरक करने वाली इस सरकार के खिलाफ उठ खडे हों ! और इसे पीछे धकेलें.
यह आज की फौरी जरूरत है और हम यह समझते हैं. आखिर हमने इस सरकार के चलते हुए अपने प्रवासी मजदूर भाइयों के हाल की दुर्गति देखी है और हम जानते हैं इसका सर्वथा जनतंत्रविरोधी, जनविरोधी चरित्र. जो सरकार लेबर कोड लाकर श्रम कानूनों को समाप्त कर रही है, वही कृषि कानूनों को पारित कर गांव को कारपोरेटों के हवाले करना चाहती है. दोनों से लाभान्वित बड़ी पूंजी हो रही है और जब दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए किसान इसके खिलाफ बिगुल फूंंके हुए हैं तो हम भी इस मोर्चे को ताकतवर बनाकर इस सरकार और बड़ी पूंजी को शिकस्त देने में मदद करेंगे.
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