अटल जी की शवयात्रा में स्वामी अग्निवेश से शुरू हुआ दंगाई का सिलसिला औरंगाबाद होता हुआ बिहार पहुंचा,खजपाईयों की भीड़ ने प्रोफेसर को जिंदा फूंकने की कोशिश की तो यह समझना क्या बेहद सरल नहीं है कि भाजपा के नेतृत्व और एक वक्त में देश का नेतृत्व संभाल रहे अटल बिहारी बाजपेयी देश में दंगा का संगठित रूप देने में उनकी शानदार भूमिका अदा कि थी ? अटल बिहारी बाजपेयी देश में संगठित हत्या और दंगा फैलाने का सहज मानवीय मुखौटा थे, जिनके आड़ में संधियों ने देश में अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया और संगठित दंगाईयों का निर्माण कर देश को अंबानी, अदानी, चौकसी जैसे लूटेरों के चरणों में लिटा दिया. यही कारण है कि अटल बिहारी बाजपेयी के मृत्यु की आड़ में देश को खतरनाक माहौल में खदेड़ देने की संघी कोशिशें के दौर में बाजपेयी का मूल्यांकन करना समीचीन है. यहां फेसबुक पोस्ट पर जारी कुछ विचार प्रस्तुत है.
जोहर सिद्दिकी : अटल बिहारी वाजपेयी या आडवाणी से उन्हें ही सहानुभूति हो सकती है, जो या तो इतिहास नहीं जानते, या जिनके मन मे साम्प्रदायिकता किसी कोने में छुपी बैठी है, और जो कट्टर हिंदुतवादी है उनकी तो बात ही अलग है.
अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह से बाबरी मस्जिद के शहीद किये जाने से ठीक एक दिन पहले लखनऊ में जो भाषण दिया था, वो संविधान में आस्था रखने वाले किसी भी नेता की ज़बान नहीं हो सकती है.
कुछ लोग उन्हें सुलझा हुआ इंसान कहते हैं, बीजेपी से निकला सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्री कहते हैं. आप इसी बात से अंदाज़ा लगा सकते हैं, बीजेपी की नज़र में जो सबसे सेक्युलर नेता रहा है, वो इस क़दर साम्प्रदायिक था कि, रैली कर बाबरी मस्जिद को समतल करने की बात कहते हुए देश के ही एक समुदाय को दूसरे समुदाय के लोगों के ख़िलाफ़ भड़का रहा था.
विकास के छेत्र में लोग अटल को याद करते हैं, शाइनिंग इंडिया की बातें कहते हैं, पोखरण की बातें करते हैं, क्या उन्हें इतिहास की थोड़ी सी भी जानकारी है, पोखरण से पहले भारत की आर्थिक स्तिथि कैसी थी ? डॉलर के मुक़ाबले रुपये का भाव क्या था ? जबकि पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण करने के बाद उसकी आर्थिक स्थिति में कोई बहुत बड़ा फेरबदल नहीं हुआ था. ये शाइनिंग इंडिया कहने वाले अटल जी की कैसी समझ थी, जब राजीव गांधी देश मे कंप्यूटर को बढ़ावा देने की बात कर रहे थे, तब वो विरोध में बैल गाड़ी से सांसद भवन पहुँच गए थे ?
बाबू साहब, सिर्फ देशहित में कहते हुए कुछ भी कर जाने को काम करना नहीं कहते हैं, उस काम को करने से पहले और करने के बाद देश पर उसका क्या असर पड़ेगा, इस पर विश्लेषण करना भी ज़रूरी होता है, उसे दरकिनार कर के बातें नहीं कि जा सकती है. मोदी से पहले अगर किसी प्रधानमंत्री ने भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट किया है, तो वो अटल ही है.
ख़ैर, अटल से मेरी कोई सहानुभूति नहीं है, ना ही मेरी नज़र में वो सम्मानीय है, उनके प्रधानमंत्री रहते हुए देश साम्प्रदायिकता के चरम पर था, वो इतने भी क़ाबिल नहीं थे कि अपने समर्थकों को देश के ही नागरिकों के विरुद्ध हिंसक होने से रोक पाए बल्कि उन्होंने खुद भाषण दे कर अपने ही समर्थकों को देश के ही नागरिकों के विरुद्ध हिंसा करने के लिए उकसाया, देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुचने वाले किसी भी नेता के लिए इससे शर्म की बात और क्या हो सकती है.
रविन्द्र पटवालः कल शाम से अटल बिहारी बाजपेयी जी को श्रिद्धांजली का सिलसिला चल रहा है. कुछ सूत्र यह भी बताते हैं कि उनकी मृत्यु मंगलवार की शाम ही हो गई थी, इसे लेकर भी वाद विवाद संवाद जारी है.
वाजपेयी जी को मेरी और से श्रद्धाजलि. उनके संपूर्ण व्यक्तित्व पर एक छोटी सी टिप्पणी मेरी ओर से भी:-
वाजपेयी जी ने भारतीय राजनीति और समाज में संघ और जनसंघ भाजपा को गांधी जी की हत्या के बाद जिस तरह एक त्याज्य संगठन के रूप में देखा जाता था, से मुक्ति दिलाने का भगीरथ प्रयास किया और उसे स्वीकार्यता दिलवाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई.
हिंदी भाषा, चलताऊ राष्ट्रवादी हिंदी कविता के हज़ारों कविता लेखक और करोड़ों प्रशंसक खड़े किये. जो काम हेड़ग़ेवर, सावरकर और गोलवलकर अपनी साफ़ लकीर खींचकर कभी भारतीय राजनीति में अपना मुक़ाम नहीं बना सकते थे, उसे बाहरी समाज के लिए धुंंधला बनाकर स्वीकार्य बनाने का अतुलनीय प्रयास अटल जी ने किया.
अटल जी के कारण ही यह संभव हुआ कि ठीक उसी समय अडवाणी देश विभाजक रथ लेकर देश में दौड़ सके और आज मोदी शाह वर्ज़न ब्राण्ड घर घर स्वीकार्य हैं.
इस विभाजनकारी समाज और शोषण के हथियार को मज़बूत करने के लिए पुल का काम करने के लिए वाजपेयी जी का योगदान इतिहास में अमिट छाप छोड़ चुका है. संघ और भाजपा के लिए उनकी भूमिका 14 साल पहले ख़त्म हो चुकी थी. अब सीधे सावरकर और गोलवलकर को भारतीय समाज सहर्ष स्वीकार्य है.
तनवीर अल हसन फरीदी : जैसे शिवसेना के गुंडे बाल ठाकरे को तिरंगे में लपेट ज़बरदस्ती मुम्बई बन्द करा लोगों को डरा धमका कर उसे ज़बरदस्ती राष्ट्रीय हीरो बना रहे थे.
आपको याद होगा कि इस बन्द, थोपे गए शोक, डर और दबाव का फेसबुक पर विरोध व निंदा करने पर दो लड़कियों को महाराष्ट्र पुलिस गिरफ्तार भी कर ली थी लेकिन कोर्ट में ठाकरे की महानता, शिवसैनिकों की हेकड़ी, महाराष्ट्र पुलिस की मूर्खता की हवा निकल गई थी.
वैसे ही संघी, मनुवादी, ब्राह्मणवादी अपने नेता को ज़बरदस्ती देश का नेता थोपने पर लगे हुए हैं. गुंडागर्दी और मोब लिंचिंग के दम पर भी. एक अकेले निहत्थे प्रोफेसर को जान से मारने के प्रयासों के साथ भी.
लेकिन यक़ीन मानिए जैसे वक़्त ने साबित कर दिया कि बाल ठाकरे राष्ट्रीय हीरो नहीं था वैसे ही वक़्त फिर साबित कर देगा कि अटल बिहारी बाजपेयी मात्र एक संघी सत्तालोलुप और एक फैल हो गए राजनैतिक व्यक्ति मात्र थे जिसने जीवन भर उच्चवर्णीय हिंदुओं और ब्राह्मणों के लिए ही काम किया.
मुकेश असीम : कई उदारवादी बता रहे हैं कि कम्युनिस्ट जनता से इसलिए कट गए क्योंकि उन्होने भारतीय संस्कृति का सम्मान नहीं किया अर्थात बुरे व्यक्तियों के साथ सहिष्णुता और सम्मान का व्यवहार करने के बजाय निष्ठुर होकर सच बोला अर्थात बुरे को बुरा कहा.
पर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की जितनी भी थोड़ी-बहुत समझ मुझे है, मैं इससे अलग सोचता हूँ. दुनिया भर की तरह ही भारत की आम मेहनतकश जनता भी अपने रोज़मर्रा के जीवन में शोषण की तकलीफ-यातना भरे तजुर्बे से अपने शोषकों को काफी हद तक पहचानती है और उनसे रत्तीभर प्रेम नहीं करती, न उनके प्रति कोई सहिष्णुता बरतना चाहती है, वह तो हर हालत में उस शोषण से मुक्ति चाहती है. उसे कतई चाह नहीं कि शोषकों को जोंक कहने के बजाय उनके प्रति आदर-सम्मान जताया जाय. जब-जब उसे कहीं से कोई उम्मीद की जरा-सी भी किरण दिखाई दी है, वह उनके खिलाफ लड़ने के लिए भी जुटी है.
पर वैचारिक रूप से कमजोर, परमुखापेक्षी भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की असली समस्या शोषक तबकों के प्रति जरूरी वर्ग सचेत निष्ठुरता की कमी ही रही है. शोषक तबकों के प्रति आर-पार के वर्ग-संघर्ष की निष्ठुर प्रतिबद्धता और तैयारी के बजाय भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन हमेशा ज्यादा बुरों को रोकने के नाम पर उनमें से कुछ कम बुरों के साथ समझौता करने और उसके लिए उनके तमाम अपराधों को भुलाकर उनमें अच्छाइयाँ ढूँढता रहा है, जिनके बहाने उनके साथ समझौता कर सके.
हिटलर-तोजो के नाम पर उपनिवेशवादियों, पटेल के नाम पर नेहरू, सिंडीकेट के नाम पर इंदिरा, राजीव के नाम पर वीपी, वाजपेयी के नाम पर सोनिया-मनमोहन और अब मोदी के नाम पर वाजपेयी-आडवाणी में कुछ उदारता ढूंढ लेने के इस ‘सहिष्णु’ इतिहास ने ही असल में कम्युनिस्टों पर से देश की मेहनतकश जनता का भरोसा तोड़ दिया है कि वे वास्तव में अंतिम दम तक शोषकों से लड़ेंगे या बीच मझधार में समझौता कर पटरी बैठा लेंगे. यहाँ समस्या शोषकों के प्रति निष्ठुरता नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के हितों के लिए निष्ठुर संघर्ष का अभाव है.
वैचारिक कमजोरी के कारण प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी विचार-संस्कृति के प्रभाव से मुक्त न हो पाना और मौजूदा बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था में ही अच्छा-आरामदायक, निर्झंझटी करियर बनाने का लोभ ही इन समझौतों को जन्म दे रहा है. निष्ठुर होना नहीं, बल्कि पूंजीपति वर्ग और फासीवादियों के प्रति जरूरी निष्ठुरता का अभाव ही हमारी समस्या है.
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