रविन्द्र पटवाल
यूक्रेन-रूस संघर्ष के पीछे सबसे बड़ा हाथ अमेरिका का है. नाटो को 90 में ही वारसा पैक्ट के खत्म होने के साथ ही ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए था लेकिन अमेरिका ने नहीं किया, क्योंकि उसी के बल पर तो उसने ईराक, अफगानिस्तान सहित दर्जनों देशों पर बम गिराए. लाखों लोगों की हत्या को जस्टिफाई कराया. यही वह हथियार है, जिसके बल पर वह अपने अरबों डालर मूल्य के हथियार और भाड़े की प्राइवेट सेना किसी न किसी देश में भेज देता है. दुनिया को बचाने के लिए बुश की वो घोषणा तो याद ही होगी सभी को – या तो आप अमेरिका के साथ हैं अथवा आतंकवाद के.
आपको अमेरिका नीति पर पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस बेशर्म टिप्पणी को भी ध्यान में रखना चाहिए, जो उसने हाल ही में कहा है – ‘अमेरिका को एफ-22 लड़ाकू विमानों पर चीनी झंडा लगाना चाहिए और रूस को बम से उड़ा देना चाहिए…और फिर हम कहते कि ये हमला चीन ने किया है. फिर वे एक-दूसरे से लड़ने लगते हैं, और हम वापस बैठकर देखते.’ दरअसल, पूरी दुनिया में अमेरिका इसी नीति को अपना भी रहा है.
अब खेल देखिये. फुकुयामा ने कहा यह इतिहास का अंत है, और यूएसएसआर के विघटन के बाद सबने बारी-बारी से लाइन लगाकर अमेरिका के आगे नतमस्तक होना शुरू कर दिया. मदमस्त अमेरिका अगले 20 सालों तक दुनिया में दादागिरी करता रहा, कोई कुछ नहीं बोला. इसी बीच चीन ने अपना कायाकल्प और अमेरिका से गाढ़ी दोस्ती बनाये रखी.
भारत ने भी कुछ अक्ल और कुछ नकल के सहारे बदलाव किया. लेकिन भारत की नीति का सूत्रधार भारतीय जनता नहीं बल्कि वे क्रोनी पूंजीपति थे, जो दलाल पथ से संचालित होते थे. इसलिए कुछ दूर चलते ही, घर से निकलते ही उसे रास्ता भटकता हुआ-सा जान पड़ा और उसने पंचवर्षीय योजना की जगह शेयर बाजार के हिसाब से अपने देश की नीति बनानी शुरू कर दी. और नतीजा यह हुआ कि आज हम दुनिया में कहीं छींक भी आ जाती है तो दौड़कर फोन उठाकर भूकंप (बाजार) की हलचल की ताजा जानकारी लेने दौड़ पड़ते हैं.
बहरहाल स्थिति यह है कि चीन आज दुनिया की नई महाशक्ति है. अमेरिका उसे रोकने की जी-तोड़ कोशिश करने में जुटा हुआ है. अफगानिस्तान से पीठ दिखाने को भी इसी सन्दर्भ में देख सकते हैं. सीरिया सहित यूरोप में भी वह अपने सैनिकों को कम करने और उसका भार यूरोपीय देशों पर डालने की रणनीति पर काम कर रहा है. उसने अपने 30 साल दादागिरी में बिता दिए, इस बीच उसके जमीन के नीचे से कार्पेट खींच ली गई है. चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा निर्माता है. उच्च गुणवत्ता वाले सामान हो, दोयम दर्जे के भारतीय मुल्कों के लिए माल हो या उससे भी निचले दर्जे का माल चाहिए, हर मामले में सबसे सस्ता सिर्फ चीन ही मुहैय्या करा सकता है.
आज भारत ही नहीं दुनियाभर के देशों में अपने घर पर माल बनाने में जो लागत आती है, उससे सस्ते दर पर चीन आपको आपके बाजार में माल सप्लाई कर देगा. इसके साथ ही चीन समृद्ध देश बनने की श्रेणी में आने में बस एक साल पीछे रह गया है. विश्व व्यापार का 28% हिस्सा आरसीईपी के जरिये होता है. चीन सहित पूर्वी एशियाई देश दुनिया के सबसे बड़े ब्लाक के रूप में उभरा है, और यूरोप के बाजार उसके सामने छोटे पड़ गए हैं.
चीन आज विश्व बैंक और आईएमएफ के बराबर तीसरी दुनिया के मुल्कों को ऋण देता है. उसने निवेश के ऐसे ढांचे बना रखे हैं जिसके जरिये वह एशिया ही नहीं बल्कि अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिकी देशों के मुल्कों को उर्जा, आधारभूत ढांचों के लिए कर्ज देता है. उसके बैंक चीनी जनता के पैसे से यह ऋण दे रहा है. यानी चीनी पूंजी की तुलना में जनता की पूंजी कहीं न कहीं विश्व के विकास में हिस्सेदारी पा रही है.
आज रूस तो सिर्फ बहाना है. अमेरिका ने तात्कालिक रूप से जर्मनी, फ़्रांस सहित कई यूरोपीय देशों को अपने पीछे जरुर कर लिया है, लेकिन वे मन ही मन पछता भी रहे हैं. रूस-यूक्रेन संघर्ष जितना लंबा खिंचेगा, यूरोपीय भूमि के देश उतनी ही मुसीबत में आने वाले हैं. जल्द ही वो दिन भी आ सकता है जब 21 वीं सदी को फिर से एशिया की सदी कहा जा सकता है. विद्वान इसे 2050 बता रहे थे, लेकिन यही हाल रहा तो 2035 तक ही इसे हासिल किया जा सकता है.
सिंगापुर के प्रसिद्ध ली कुआन येव स्कूल ऑफ़ पब्लिक पालिसी के डीन और प्रोफेसर, किशोर मेह्बुबानी 2050 में चीन को दुनिया के पहले और भारत को दूसरे स्थान पर और अमेरिका इंडोनेशिया को तीसरे और चौथे स्थान पर कई वर्षों से कहते आ रहे हैं. भारत को तय करना है उसे यह मुकाम हासिल करना है या नहीं. चीन ने तो तय कर रखा है. अमेरिका की यूक्रेन को उकसाकर मरवाने की नीति ने इसे तेज कर दिया है, भले ही तात्कालिक रूप से अभी उसे यूरोप को अपने पीछे घसीटने में सफलता मिल गई दिखती हो.
बाकी सब ठीक है. हम भारत के लोग फिलहाल यूक्रेन की स्थिति में हैं, पर अभी समय है. क्वाड जैसे गिरोह में शामिल होकर अमेरिका के लिए ‘हुआ हुआ’ करने के बजाय अपने 130 करोड़ लोगों को सक्षम बनाने की नीति पर काम कर लिया जाए तो आज भी भारत के पास काफी कुछ पाने को है. देखना है भारतीय राजनीतिज्ञ दलाल पथ से कब जनपथ की बात पर कान धरते हैं ?
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