उपनिवेशवाद से लंबी लड़ाई लड़ कर जीत हासिल कर चुका हमारा देश अब नव उपनिवेशवाद से लड़ने का सबक सीख रहा है. किसानों के आंदोलन के साथ ही हाल के वर्षों में हुए अन्य छोटे-बड़े आंदोलनों का अनुभव यह बताता है कि पहले की तुलना में अब की लड़ाई बेहद जटिल और बहुस्तरीय है.
उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों में यह पता था कि हम लड़ किससे रहे हैं. सत्ता का चरित्र प्रायः स्पष्ट था और उसकी संभावित कार्रवाइयों की भी कल्पना की जा सकती थी जबकि, नवउपनिवेशवाद से लड़ने में पहली जटिलता यह है कि सत्ता की संरचना, उसके चरित्र और उसकी चालों को समझ पाना अपेक्षाकृत बेहद कठिन है.
औपनिवेशिक और नव औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन सत्ता की संरचना में जो अंतर होता है, वह उसकी प्रकृति को निर्धारित करता है और यहीं से उसका चरित्र भी निर्मित होता है. प्रकृति का यही अंतर नवऔपनिवेशिक राजनीति और अर्थनीति के अन्तर्सम्बन्धों को भी नए सिरे से परिभाषित करता है.
बात जब अर्थनीति की आती है तो हितों का टकराव स्वाभाविक है. इस टकराव में बलि अक्सर जनता के हितों की ही दी जाती है क्योंकि नीति निर्माण में प्रभावी दखल रखने वाले कारपोरेट वर्ग की क्षमताओं का असीमित विस्तार हो चुका है और उसके हितों के दायरे दिन-प्रतिदिन व्यापक ही होते जा रहे हैं.
उसे हर चीज चाहिये. उत्पादन के बड़े केंद्रों पर आधिपत्य के साथ ही वितरण के तंत्र पर भी उसे पूरा अधिकार चाहिये. शिक्षा, चिकित्सा और सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्र को अपने मुनाफे के तंत्र में बदलने के साथ ही खुदरा बाजार पर भी अपना एकछत्र नियंत्रण चाहिये.
अब, जिस देश की अर्थव्यवस्था में कृषि की इतनी बड़ी भूमिका हो, सब कुछ लीलने को तत्पर शक्तियां कृषि तंत्र पर कब्जा करने की कोशिशें क्यों न करें. बीजों के व्यापार से लेकर मनचाहे फसलों की बुवाई तक, अन्न की खरीद और बिक्री की कीमतों के निर्धारण से लेकर उनके मनमाने भण्डारण तक…, हर चीज पर कब्जा.
हर शै पर कब्जा कर वे देश के संसाधनों, कामगार वर्ग और उपभोक्ता वर्ग को अपने उपनिवेश के रूप में ढाल लेना चाहते हैं. सत्ता, चाहे वह जिसकी भी हो, के साथ सामंजस्य के अदृश्य सूत्र उनके इन व्यापक और दूरगामी उद्देश्यों को पूरा करने में बड़े सहायक बनते हैं. राजनीति अक्सर इनकी प्रवक्ता की भूमिका में दिखाई पड़ने लगती है और तब…, संशय के घेरे गहरे होने लगते हैं.
कृषि बिल के विरोध में किसानों का आंदोलन उनके अपने हितों, जिन्हें वे बेहतर समझ सकते हैं, की खातिर है, जबकि प्रधानमंत्री उन्हें समझा रहे हैं कि नए कृषि कानून किसानों के हित में हैं और कि, जो लोग इस कानून के विरोध में हैं, वे भटके हुए और भरमाए गए लोग हैं.
यहीं से इस आंदोलन की यात्रा की जटिलताएं शुरू होती हैं जो नव औपनिवेशिक दौर के चरित्र को सामने लाती हैं और यह बताती हैं कि इस दौर में किसी भी आंदोलन को शुरू करना, उसे चलाते रहना और लक्ष्यों तक पहुंचाना कितना कठिन है.
आंदोलनकारियों को पहले यह बताया गया कि आप भटके और भरमाए गए लोग हैं, फिर अनेक स्वर ऐसे भी उभरने लगे जिनका उद्देश्य यह नैरेटिव सेट करना था कि इस आंदोलन के सूत्र देश विरोधी ताकतों के हाथ में है और इसकी आड़ में देश के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है.
किसी भी जन आंदोलन को कमजोर और बदनाम करने की जितनी शक्ति नव औपनिवेशिक तंत्र के पास है, उसका दसांश भी उपनिवेशवादियों को हासिल नहीं था. उस दौर में चीजें अपेक्षाकृत अधिक साफ थीं और सत्ता का चरित्र रहस्य की इतनी सघन कुहेलिकाओं में घिरा हुआ नहीं था.
उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में देसी मीडिया लगभग पूरी तरह आंदोलनकारियों के साथ था. अब, बदले हुए दौर में मुख्य धारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता-संरचना का ही एक अनिवार्य और प्रभावी कंपोनेंट है. हिन्दी मीडिया, जो इतिहास में प्रतिरोध के विमर्श के साथ ही विकसित हुआ था, का बड़ा हिस्सा तो अपनी जड़ों से ही टूट कर अलग हो चुका है और सत्ता विमर्श के प्रोपेगेंडा का एकांत वाहक बन चुका है.
‘सूचना ही ताकत है’ के इस दौर में सूचना के स्रोतों पर कब्जा करते जाने की कुछ कारपोरेट शक्तियों की मुहिम यूंं ही नहीं थी. उन्हें मीडिया संस्थानों पर कब्जा इसलिये नहीं चाहिये था कि इनसे उन्हें मुनाफा चाहिये था, बल्कि इनके माध्यम से वे मनचाहे नैरेटिव सेट करने में आसानी महसूस कर सकते थे.
वे आसानी से ऐसा करने भी लगे. शिक्षा के कार्पोरेटाइजेशन के खिलाफ जब भी और जहां भी छात्रों का आंदोलन हुआ, मीडिया के बड़े हिस्से ने या तो उनकी उपेक्षा की, या फिर उन्हें देश विरोधी साजिशों में लिप्त होने के आरोपों में घेर लेने की कोशिशें हुई.
हर वह आंदोलनकारी इस दौर में ‘देश के हितों से खिलवाड़’ करने का आरोपी बनने के खतरों से जूझता है जो सत्ता की नीतियों के खिलाफ खड़ा होता है. चाहे वह छात्र आंदोलन हो, नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन हो, निजीकरण विरोधी आंदोलन हो या अभी का किसान आंदोलन हो.
(हेमंत कुमार झा के एक लेख का अंश)
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