विनय ओसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकमेरा मानना है कि अकेले उत्तर प्रदेश में भाजपा को 40 से 50 सीटों का नुकसान होगा. मेरा यह अनुमान अकेले बसपा-सपा गठबन्धन पर ही आधारित नहीं है वह आरएसएस प्रमुख के ताजा बयानों के निहितार्थों पर भी आधारित है.
उप्र में सपा-बसपा गठबन्धन पर राजनैतिक विश्लेषकों की राय मुख्यतः तीन खण्डों में बंटी हुई है. एक वो है जो इसे उलझी हुई पहेली मानते हैं, दूसरे वे हैं जो स्पष्ट तौर पर मानते हैं कि भाजपा पर कोई खास फड़क नहीं पड़ने वाला. तीसरे खण्ड में वे हैं जिन्हें विश्वास है कि यह गठबंधन सफल होगा. भाजपा को उप्र में नुकसान उठाना पड़ेगा.
उलझी पहेली बताने वाले मानते है कि जमीनी स्तर पर पिछड़ी जातियों में बहुसंख्यक यादवों का अनुसूचित जाति में प्रभावशाली जाटवों के बीच सामाजिक ताना-बाना बहुत अच्छा नहीं है. 1995 के बाद से लगातार 23 वर्षों में उनके बीच राजनैतिक सामंजस्य कभी नहीं बना. वे 2018 में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में लोकसभा के मध्यावधि चुनावों में बीजेपी की हार को गठबंधन की सफलता का आधार नहीं मानते. वे 2014 या 2017 में दोनों दलों को अलग-अलग मिले वोटों को जोड़ कर यह मान लेने को तैयार नहीं कि उतने ही वोट इस बार फिर गठबंधन के प्रत्याशियों को मिल जाएंगे. उनका मानना है कि बसपा का वोट मायावती के कहने पर सपा को मिल जाएगा पर अखिलेश के कहने पर यादव वोट बसपा को नहीं मिलेगा. वे भाजपा के गठबन्धन को मजबूत बताते है. हां, इतना जरूर मानते हैं कि भाजपा को थोड़ा नुकसान हो सकता है. उसकी सीटें 70 से कम रह जाएंगी परन्तु बहुत नुकसान नहीं होगा, उनकी एक और दलील है, जिसके अनुसार कांग्रेस का गठबंधन से बाहर रहने का भाजपा को फायदा मिलेगा. भाजपा विरोधी वोट कांग्रेस और बसपा-सपा गठबन्धन में बंट जाएगा, जिसका सीधा-सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा न कि उसके विरोधियों को.
स्पष्ट रूप से इस गठबंधन को अवसरवादी बताने और इसका कोई लाभ नीचे जमीन पर पहुंचने की संभावना को दो टूक नकारने वालों की दलील है कि- गठबन्धन का किला आसानी से ढह जाएगा. योगी जी 2014 में तीन लाख वोटों से जीते थे जब कि 2018 के मध्यावधि चुनावों में गोरखपुर से सपा का प्रत्याशी प्रवीण कुमार निषाद मात्र 21 हजार वोटों से ही जीत पाया था. वे इस मत के हैं कि बीजेपी ने इन उप-चुनावों को कोई खास तवोज्जो नहीं दी थी. एक संसदीय क्षेत्र में सामान्यतः 2000 पोलिंग बूथ और हर बूथ पर औसतन 1000 वोटर होते हैं. यानी मात्र दो-तीन दर्जन बूथों पर मजबूती चुनाव परिणाम को उलट सकती है. वे कहते है मध्यावधि चुनावों में कार्यकर्ताओं में वैसा उत्साह और प्रतिबद्धता भी नही होती जैसी मुख्य चुनावों में होती है. 2014 में भाजपा गठबंधन को 43.6 प्रतिशत वोट मिला था जब कि बसपा-सपा-आरएलडी तीनों कुल मिलाकर 43 प्रतिशत वोट ही ले पाये थे, जोकि भाजपा गठबंधन से 0.6 प्रतिशत कम ही बैठता है.
वे एक दलील और देते है कि आरएलडी को बड़ी मुश्किल से तीन सीटें सपा ने अपनी झोली से दी है, इस बात का कांटा भी अजित सिंह के दिल में है. उसमें भी एक सीट पर आरएलडी का प्रत्याशी सपा के चुनाव चिन्ह पर लडेगा. दूसरा कारण वो यह बताते है कि सीटों पर हुए बंटवारे में सपा-बसपा के नेताओं में हुआ अहम का टकराव भी एक-दूसरे के परम्परागत वोटों के ट्रांसफर में जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच उत्साह की कमी का कारण बनेगा, यानी ऊपरी स्तर पर मजबूत दिखने वाला गठबन्धन जमीन पर भाजपा के सामने कमजोर ही साबित होगा.
इन सब के बीच विश्लेषकों का एक खण्ड ऐसा भी है जो इस गठबंधन की सफलता को लेकर आशान्वित है. उसका मानना है भाजपा को कड़ी चुनौती मिलेगी. इन विश्लेषकों का मानना है कि यह गठबन्धन महज दो पार्टियों के बीच नहीं है बल्कि दो बड़े जातीय वर्ग अनुसूचित और पिछड़ों के बीच है. अनुसूचितों में जाटवों का बाहुल्य है जो छोटी-छोटी अन्य जातियों को अपनी ओर आकर्षित करेगा, जो जाटवों के साथ सहज अनुभव करती है।. इसी प्रकार पिछड़ों में यादवों का बाहुल्य है और वह अन्य महापिछड़ी छोटी-छोटी जातियों को भी अपनी ओर आकर्षित करेगा, जिनके साथ रोजमर्रा की जिंदगी में अच्छा तालमेल रहता है. मायावती बहुत आशान्वित है और उन्होंने स्पष्ट तौर पर यह कहा भी है कि वे अपने अनुभव के आधार पर मानती है कि समाज के दलित और पिछड़ी जातियों के वोट एक-दूसरे के पक्ष में आसानी से ट्रांसफर हो जाएंगे.
मेरा मानना है कि अकेले उत्तर प्रदेश में भाजपा को 40 से 50 सीटों का नुकसान होगा. मेरा यह अनुमान अकेले बसपा-सपा गठबन्धन पर ही आधारित नहीं है वह आरएसएस प्रमुख के ताजा बयानों के निहितार्थों पर भी आधारित है.
पहला, मोहन भागवत ने केंद्र सरकार से पूछा है कि जब सीमा पर कोई लड़ाई नहीं हो रही है तो हमारे जवान भारी तादात में क्यों शहीद हो रहे है ? दूसरा, अयोध्या में राममन्दिर न बनाने का दोष अकेले कांग्रेस पर डालने को नजरअंदाज करते हुए कहा है कि मन्दिर निर्माण के प्रति प्रतिबद्धता कांग्रेस की नहीं हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के समर्थकों की है मन्दिर निर्माण को कानून का नहीं आस्था का विषय बताते हुए संसद में कानून न बनाने को लेकर सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया है.
आरएसएस मुखिया का अपनी ही सरकार को वो भी ऐन चुनाव के वक्त कटघरे में खड़ा करने के गहरे निहितार्थ है. सरकार के मुखिया के प्रति आरएसएस के आकर्षण में आयी कमी का संकेत तो है ही, इसके परिणाम वैसे ही साबित हो सकते हैं जैसे 2015 में बिहार में हुए विधानसभा चुनावों के समय आरक्षण पर पुनर्विचार करने के मोहन भागवत के बयान के हुए थे. तब भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा था. सरकार के मुखिया के प्रति आरएसएस के विश्वास में आई कमी इस बात का भी संकेत है कि 2019 में सरकार की लगाम मोदी जी को न सौंपी जाय. इस बात का भ्रम या संशय आमजन के साथ-साथ एनडीए के घटक दलों, और भाजपा में भी फैल गया है. सरकार में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर एक अर्सा पहले से नितिन गडकरी को लेकर चल रही चर्चाओं को मोहन भागवत के ताजा बयानों के बाद बल मिला है.
मैं 2019 में मोदी जी की लोकप्रियता में दो से पांच प्रतिशत की गिरावट के लिए बसपा-सपा के गठबंधन के अलावा आरएसएस प्रमुख के ताजा बयानों को मानता हूं. इन बयानों के तत्काल बाद अरुण जेटली और अमित शाह की तबियत का अचानक बिगड़ जाना महज एक संयोग ही है, पर लोग इसे बसपा-सपा गठबन्धन और भगवत जी के बयानों से जोड़ कर देखने लगे हैं. उनका मानना है, कि उप्र में गठबन्धन यदि भाजपा के लिए करेला है तो भागवत के बयानों ने इसमें नीम की कडुआहट और मिला दी.
तमिलनाडु, केरल, कर्नाटका, उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्रा, पश्चिमी बंगाल, छत्तीसगढ, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, बिहार, और उत्तर पूर्वी राज्यों में से किन-किन राज्यों में मोदी जी की लोकप्रियता 2014 जैसी कायम है ? या बढ़ी है ? नजर दौडाएं तो पाएंगे कुछ ही राज्य होंगे, जहां 2014 में मिली सीटों की गिनती को पूरी ताकत लगा कर दुबारा जीता तो जा सकता है, पर उनकी संख्या में इजाफा नहीं किया जा सकता यानी अगली सरकार बनाने में एनडीए के घटक दलों की भूमिका और वर्चस्व बढ़ेगा, जो हिंदुत्व की राजनीति को परवान चढ़ाने के आरएसएस के मंसूबों के लिए शुभ नहीं होगा.
पूरे देश में नागरिकता रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के लिए हाल ही में बनाये गए नए कानून को एनडीए के घटक दल भी गले नही उतार पा रहे. असम गण परिषद ने साथ छोड़ दिया है और मुख्यमन्त्री सोनेवाल भी ऊपर से मौन है उनके नजदीकी राजनैतिक साथियों में चर्चा है कि सोनेवाल अंदर से खुश नहीं हैं.
लोकसभा चुनावों से मात्र पांच माह पूर्व राहुल की छबि में सुधार और किसान और बेरोजगार युवाओं के मुद्दों को केंद्र में ले आने से त्रस्त मोदी जी उनको असरहीन करने के लिए एक के बाद एक नई घोषणाएं कर रहे हैं जब सरकार के पास देने के लिए रोजगार और उससे सम्बन्धित आंकड़े है ही नहीं, उच्च आय वर्ग (आयकर देने वाला वर्ग) के शिक्षित बेरोजगार युवाओं को नई आरक्षण नीति का लाभ कैसे और कितना मिलेगा ? या यह मात्र झुना-झुना साबित होगा ? इस बात को लेकर भी भारी संशय बना हुआ है.
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