महीनों से भारतीय मीडिया रूसी हमले की खबर को उन्मादी ढंग से छाप जा रहा है और इसमें अमेरिका की भूमिका को यूक्रेन के मित्र के रूप में पेश किया जा रहा है, क्या यह सच है ? क्या इस युद्ध के पीछे अमेरिकी तथा रूसी साम्राज्यवाद की बाजार विस्तार और यूरोप में अपने वर्चस्व का मुद्दा केंद्र में नहीं है ? क्या इस युद्ध को कहीं से भी आम लोगों का युद्ध कहा जा सकता है ? क्या किसी भी रूप में यह यूक्रेन या रूस की जनता के हितों के लिए लड़ा जा रहा है ?
ख्रूश्चेव के नेतृत्व में जब से समाजवाद की जगह पर पूंजीवाद की पुनर्स्थापना और सामाजिक सम्राज्यवाद की नीति अपनाई गई, सोवियत संघ के अंदर नौकरशाही से लेकर समाज तक में एक छोटे से अल्पतंत्र के हाथों में सत्ता और साधन संकेंद्रित किया जाने लगा, तबसे उनके आंतरिक विरोध तीव्र होते गए.
सोवियत संघ को बांधकर रखने वाली नियामक शक्ति के रूप में उसकी फौजी ताकत नहीं थी, बल्कि मजदूर तथा मेहनतकशों का यह विश्वास था कि सत्ता हमारी है और यह समान भाव से हम सबों का ख्याल रखती है. इसी भावना से प्रेरित होकर स्तालिन के नेतृत्व में लोगों ने हिटलर के खिलाफ असंभव-सी दिखने वाली जीत को संभव बनाया.
युद्ध के दौरान कोई भी रूसी, यूक्रेनी, जॉर्जियाई नहीं था, सब के सब समाजवादी सोवियत संघ के नागरिक थे लेकिन पूंजीवाद की पुनर्स्थापना ने विभिन्न क्षेत्रों में जो नए पूंजीपति वर्ग को जन्म दिया उसका वर्गीय हित साम्राज्यवाद से गठजोड़ में था. अब उनका हित पूंजी के निवेश तथा स्थानीय व वैश्विक तौर पर बाजार के विस्तार में हिस्सेदारी से प्रेरित था.
साम्राज्यवाद से यह गठजोड़ पुतिन के पहले येल्तसिन के जमाने में रूस तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद व उसके दोस्तों के बीच प्रत्यक्ष देखा जा चुका है लेकिन साम्राज्यवाद का बुनियादी चरित्र उनके बीच एकता का नहीं बाजार और मुनाफे पर नियंत्रण के लिए टकराव में है. इसीलिए समाजवाद के काल में बने हुए अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए तो अमेरिकी साम्राज्यवाद तथा रूसी साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि येल्तसिन में दोस्ती चलती है, लेकिन जल्द ही बाजार और मुनाफे के बंटवारे के लिए वह टकराव में बदल जाता है. आगे रूसी साम्राज्यवाद के नए प्रतिनिधि पुतिन ने न सिर्फ सीरिया में, बल्कि हर संभव जगह पर उनसे टकराव की दिशा में जाता है.
सोवियत संघ के विघटन के समय रूसी साम्राज्यवाद को यह भरोसा था कि यूक्रेन उसकी छत्रछाया में रहेगा लेकिन पूंजीवाद के विकास के साथ यूक्रेन में जिन पूंजी के मालिकों का निर्माण हुआ, उन्हें अपना वर्गीय हित रूसी साम्राज्यवाद के साथ गठबंधन के बजाए अमेरिकी साम्राज्यवाद के गठबंधन के साथ जाने में दिख रहा है इसलिए यूक्रेन रूस से ज्यादा से ज्यादा दूरी बनाता रहा है.
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में उद्योग व कृषि दोनों ही क्षेत्रों में ऊक्रेन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता था लेकिन आज इसका उत्पादन 1990 के स्तर से भी 20% कम है. ऊक्रेन प्राकृतिक संसाधनों में धनी है. रूस को छोड दें, तो यूरोप का एक समृद्ध उपजाऊ काली मिट्टी वाला कृषि प्रदेश है. सोवियत संघ के विघटन के बाद सामूहिक फार्मो को तोड़कर जमीन का बंटवारा कर दिया गया.
वहां के कृषि क्षेत्र में 70% छोटे किसान हैं लेकिन अब भारत के कृषि कानूनों वाली इरादे से इस जमीन पर बड़ी पूंजी के अधिकार के लिए वहां की सरकार प्रयासरत है, जो संभावित विरोध के कारण नहीं कर पा रही है. भूमि के निजीकरण के बावजूद उसकी बिक्री पर रोक लगी हैं, जिसे सरकार बाजार के लिए उपलब्ध कराना चाहती है.
यूक्रेन में कृषि तथा खनन में बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी के निवेश होने की संभावना है, इस कारण से अमेरिका सहित साम्राज्यवाद की नजर वहां के बाजार पर है. हथियारों की बिक्री पर टिकी अमेरिकी अर्थव्यवस्था इस युद्ध में अपने हथियार यूक्रेन तथा नैटो के देशों को बेचकर मुनाफा कमाने के फिराक में है. जाहिर सी बात है किन हथियारों की कीमत यूक्रेन तथा यूरोप की जनता को चुकानी पड़ेगी जो मंदी के दौर में पहले से ही तबाही झेल रही हैं. पूरी दुनिया की तेल कंपनियां युद्ध के अवसर पर महंगा तेल बेच कर अपना मुनाफा कमाने की ताक में है.
अमेरिकी मीडिया और शासक वर्ग पहले से ही उक्रेन को डटे रहने के नाम पर युद्ध में झोकने की साजिश रच रहे हैं. यह स्पष्ट है कि युद्ध से पूरी दुनिया के बड़े पूंजीपतियों और वित्त पूंजी के मालिक को काफी फायदा होने जा रहा है. यहां तक कि शेयर मार्केट में जब टुटपुंजिया डर से अपने शेयर बेच कर भागेंगे, तो ये वित्त पूंजी और हेज फंड के मालिक कौड़ी के भाव में खरीद कर फिर इसकी कीमत बढ़ाकर बाजार में बेचेंगे.
युद्ध की विभीषिका को झेल चुकी यूक्रेन की जनता आज भी युद्ध से दूर रहना चाहती है, फिर भी अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसका यूक्रेनी जूनियर पार्टनर पूंजीपति रूस से टकराव को आगे बढ़ाकर अपने वर्चस्व का झंडा फहराना चाहते हैं. इस तरह से दो साम्राज्यवादी शक्तियों के वर्चस्व के बीच में यूक्रेन की आम जनता युद्ध की तबाही और उसके साए में जीने के लिए अभिशप्त है.
तो निश्चित तौर पर इस मौके पर स्तालिन को याद किया जाना चाहिए जिसने बिना किसी युद्ध के यूक्रेन को अपने साथ रहने और मिलजुल करके विकास करने के लिए तैयार कर लिया था. यह करने में स्तालिन क्यों सफल हुए ? इसकी तलाश की जानी चाहिए कि उनकी सफलता का राज क्या था ?
- नरेन्द्र कुमार
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