दोनों ही धर्मों के नारे सुंदर हैं, दोनों ही धर्मों के नारे राजनीतिक उपयोग करते समय विद्रूप हो जाते हैं, खतरनाक और बेहूदे लगते हैं. किसी से सस्ता समर्थन लेना सस्ते नशे लेने से भी अधिक खतरनाक है.
अस्सी के दशक की बात है, साह बानो नाम का एक केस हुआ. राजीव गांधी का शासन था. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि जिस मुस्लिम औरत को ट्रिपल तलाक दिया गया है, उसका पति उसकी रोटी-बसर के लिए मुआवजा दे. मौलवियों-कठमौलवियों ने इसे इस्लाम में हस्तक्षेप बता दिया. ‘इस्लाम खतरे में है’ का माहौल बन गया. भीड़ आ गई, समर्थन आ गया. इसी माहौल का फायदा उठाने के लिए राजीव गांधी पहुंच गए, उन्हें वहां सस्ती भीड़ मिल रही थी. राजीव ने संसद में एक कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मूत दिया. भीड़ खुश हुई, मौलवी खुश हुए, इस्लाम मानने वाले खुश हुए. राजीव जिंदाबाद हो गए. लेकिन इस तुष्टिकरण का परिणाम क्या निकला ? कि दो दशक बाद आज भाजपा और संघ ने देश की संसद पर कब्जा कर लिया. तुष्टिकरण के ऐसे छोटे-छोटे उदाहरण ही कम्युनल फोर्सेज के लिए ईंधन का काम करते हैं.
याद रहे तुष्टिकरण की राजनीति सांप्रदायिकता की सौतेली मां होती है. आप इधर तुष्टिकरण करेंगे दूसरी और साम्प्रदायिकता जन्म लेगी. जो हुआ भी, संघ ने ट्रिपल तलाक पर जो नग्न नृत्य किया, वह राजीव की तुष्टिकरण की नीति का ही परिणाम थी, मौलवियों की धर्मांधता का परिणाम थी. उससे मुसलमानों को क्या मिला ? राजीव राजा बने, कांग्रेसी मंत्री बने, मौलवी ठाट से सोए, शिकार कौन हुआ ? किसकी दाड़ी खींची गयीं ? आम मुसलमान की !!
क्या तब ऐसे मुस्लिम उदारवादी, हिन्दू उदारवादी नहीं रहे होंगे, जिन्होंने राजीव के तुष्टिकरण पर सवाल किया होगा ? किया होगा, निश्चित ही किया होगा, लेकिन उन्हें तब इस्लामोफोबिक कहकर नकारा जाता रहा होगा, यही होता भी है जब किसी धर्म में कोई रिफॉर्म वाली धारा जन्म लेती है, उसे इस्लाम विरोधी, हिन्दू विरोधी, ईसाई विरोधी कहकर खत्म कर दिया जाता है.
कल मैंने फैज की कविता के परिप्रेख्यों पर लिखा, जिन कुछेक पंक्तियों पर लोगों को असहजता थी ! कुछ लोगों के हिसाब से वह फैज विरोधी लेख था तो कुछ के हिसाब से इस्लामोफोबिक लेख था. लेकिन मेरा एक सवाल है फैज की कुछेक पंक्तियों की समालोचना, उसके प्रसंगों की दीर्घ व्याख्याएं करना, उनका विरोधी कैसे साबित कर सकता है ? क्या हम गांधी और अंबेडकर की समालोचना करने से गांधी-अंबेडकर विरोधी हो जाते हैं ?
फ़ैज बेहतरीन और प्रिय कवि हैं, लेकिन उन पंक्तियों के आलोक पर बात करना बेहद जरूरी है. पाकिस्तान के लिहाज से अगर उसमें धार्मिक इनपुट रहा तो इस तथ्य को स्वीकार करने में क्या बुराई है ? यहां तो इनपुट ही है, इस देश का संविधान तो रिलिजियस गीत गाने की भी अनुमति देता है. आप कुरान पढ़िए, गीता पढ़िए, रामायण पढ़िए, देश में सबकी आजादी है. कुल मिलाकर आप रिलिजियस को रिलिजियस कहकर भी गा सकते हैं, लेकिन एक विशेष मजहब के प्रतीकों को कम्युनल और एक दूसरे मजहब के प्रतीकों को सांकेतिक कहकर आप भी वही कर रहे हैं, जो राजीव ने किया. आप भी सस्ती भीड़ के समर्थन के लिए उन्हें अंधेरे में डाल रहे हैं. फ़ैज की कुछेक पंक्तियों की उस समय और परिप्रेक्ष्य के हिसाब से समालोचना करना अगर फ़ैज विरोधी है, तो इस भाषा में और दक्षिणपंथियों की भाषा में क्या अंतर रह जाता है ? जिनके अनुसार सरकार की आलोचना ही देश विरोधी है, हिन्दू विरोधी है.
“द प्रिंट” की एक “पिकनिक पत्रकार” ने लिखा कि ‘अल्लाह हु अकबर’ का नारा सेक्युलर है ! ये कितनी हास्यास्पद और हद्द दर्जे वाली बात है. ‘अल्लाह हु का नारा’ एक खूबसूरत नारा है, अजान का सबसे खूबसूरत हिस्सा है, लेकिन ये रिलिजियस है तो रिलिजियस मानने में बुराई क्या है ? अगर कोई भी सरकार मुस्लिमों को उनके धार्मिक नारे लगाने से रोकेगी तो उनका साथ देने के लिए हम होंगे, इस देश के संविधान मानने वाले लोग होंगे. लेकिन वह रिलिजियस है तो मान लेना चाहिए न कि रिलिजियस है. इसमें हर्ज क्या है ? उसे सेक्युलर बताने के लिए इरिटेट करने वाले कुतर्क गढ़ने की क्या आवश्यकता है ?
आप एक धर्म के नारे को कम्युनल और एक धर्म के नारे को सेक्युलर कैसे कह सकते हैं ? दोनों ही धर्मों के नारे सुंदर हैं, दोनों ही धर्मों के नारे राजनीतिक उपयोग करते समय विद्रूप हो जाते हैं, खतरनाक और बेहूदे लगते हैं. किसी से सस्ता समर्थन लेना सस्ते नशे लेने से भी अधिक खतरनाक है. कुछेक नेताओं, पत्रकारों , एक्टिविस्टों द्वारा मासूम लोगों के समर्थन के लिए जो भौंतरा तुष्टिकरण किया जाता हैं वह दूसरे पक्ष में साम्प्रदायिकता को जन्म देता है, इस बात को याद रख लीजिए. इससे आपके मजहब को कुछ भी फायदा नहीं मिलता, आप बस पिसने के काम आते हैं, लेकिन आप को अंधेरे में डालने वाला. आप ही की गली के राजनीतिक मंच पर बैठता, आप ही की वोट से विधायक मंत्री बनता है, आपको बस एक नेता मिल जाता है, लेकिन उनके तुष्टिकरण से उपजी सांप्रदायिकता का शिकार कौन होता है ? सबको मालूम है, वही आदमी जो किसी भी माइक की आवाज सुनकर सबसे पहले पहुंचता है, इस उम्मीद में की आज उसके मतलब की बात होगी, उसी की टोपी खींची जाती है, उसी की दुकान जलाई जाती है, राजीव गांधी की नहीं, और न ही अल्लाह हू अकबर के नारे को सेक्युलर बताकर, मिथक पैदा करने वालों की, न आपका सस्ता समर्थन लेने वालों की. मैं दो बातें इस्लाम की खूबसूरती पर लिखकर आपका समर्थन पा सकता हूं लेकिन मैं आपके मजहब की दो कुरीतियों पर क्वेश्चन कर, आपकी बुराई लेना चुनना चाहूंगा.
- श्याम मीरा सिंह
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