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तो क्या मोदी-शाह की राजनीति की मियाद पूरी हुई

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तो क्या मोदी-शाह की राजनीति की मियाद पूरी हुई

पुण्य प्रसून वाजपेयी, पत्रकार

दिल्ली में केजरीवाल की जीत वैकल्पिक राजनीति से कहीं ज्यादा वैकल्पिक इकोनाॅमी की जीत है. एक तरफ राष्ट्रवाद की चादर ओढ़े मोदी की राजनीति तो दूसरी तरफ कल्याणकारी योजनाओं तले केजरीवाल की अर्थव्यवस्था. जिस दौर में मोदी-इकोनाॅमिक्स निजीकरण को ही जीडीपी से लेकर रोजगार और औद्यौगिक विकास से लेकर बाजार के लिये महत्वपूर्ण मान चुके हैं, तब केजरीवाल की इकोनाॅमिक्स ने वेलफेयर स्टेट का मतलब क्या होता है, ये अमल में लाना शुरु किया. जाहिर है ये सोच जितने सरोकारों के साथ आम लोगों से दिल्ली में जुड़ी, उसने झटके में केजरीवाल की साख बनाम मोदी की साख की प्रतिद्व्िन्दता खड़ी कर दी. एक तरफ मोदी के वादे थे तो दूसरी तरफ केजरीवाल सरकार के कार्य. और वोटरों से संकेत यही उभरा कि दिल्ली के चुनाव परिणाम अब ना सिर्फ बीजेपी बल्कि तमाम क्षत्रपों के सामने चुनौती है कि वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को दुबारा अपना लें. साथ ही सामानांतर में सवाल ये भी है कि केजरीवाल की जीत बीते छह बरस से मोदी की उस सियासी लकीर का अंत है, जिसमें हिन्दु-मुस्लिम की राजनीति का अंत शुरु हो गया है ? संदेश साफ है कि ध्रुवीकरण की राजनीति देश में अनंतकाल तक चल नहीं सकती है, तो क्या दिल्ली का जनादेश वाकई देश की राजनीति को बदलने की ताकत के साथ उभरा है ? और अब मोदी-शाह की सत्ता को बीजेपी के भीतर से चुनौती मिल सकती है ? या संघ परिवार के भीतर कोई कुलबुलाहट मोदी सत्ता को लेकर दिखायी दे सकती है ? जाहिर है ये सारे सवाल है जिसने वैकल्पिक इकोनाॅमी के तीन सवाल को चाहे-अनचाहे जन्म दे दिये हैं.

पहला, राष्ट्रवाद की सियासी परिभाषा तभी मान्य होगी जब अर्थशास्त्र अनुकुल हो.

दूसरा, काॅरपोरेट मित्रों को लाभ देते हुये बाकियों को सरकारी एंजेसियों से डर दिखा कर खामोश करने से इकोनाॅमी पटरी पर आयेगी नहीं.

तीसरा, बैकिंग सेक्टर को कामर्शियल कामकाज की जगह सरकारी योजनाओं में फंसा कर सार्वजनिक उपक्रम को कौडियों के मोल बेचने की सोच से भी इकोनाॅमी पटरी पर आयेगी नहीं.

और यहीं से दिल्ली फैसले के बाद की राजनीतिक लकीर शुरु होती है जिस पर अभी तक मोदी सत्ता आंखें मूंदें रही या कहे केजरीवाल ने इसी शून्यता के बीच सरकारी स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक का प्रयोग कर राजनीति की अपनी लकीर कहीं बडी खिंच दी.

ध्यान दें तो दिल्ली में जाति-धर्म ही नहीं बल्कि अमीर-गरीब के बीच भी केजरीवाल सेतु बन गये. झोपड़पट्टी बहुल 14 सीट हो या रईस और सरकारी बाबुओं की काॅलोनी समेटे 11 सीट, या फिर मीडिल क्लास और छोटे व्यापारियांे की बहुसंख्यक वोटरों वाली 17 सीट. सभी जगह केजरीवाल का जादू चला और इसी सामानातंर मुस्लिम बहुल इलाकों की 9 सीटों पर भी केजरीवाल का असर रहा. बिहार-यूपी-बंगाल-झारखंड से दिल्ली में रोजगार की तालाश में पहुंचने वाले पूरबिया वोटर वाली 19 साटों पर भी आम आदमी पार्टी का असर रहा. यानी राजनीति की जो बिसात शाहीन बाग के नाम पर हिन्दू वोटरों को अलग करती, बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के अमित शाह के साथ खडे होकर चुनावी रैलियां करने पर पूरबिया वोटरों को बांट देती या दर्जनभर कैबिनेट मंत्रियों के साथ पांच राज्यों के सीएम और सैकड़ों सासंदांे का दिल्ली की गलियों में घूमना भी अगर केजरीवाल को डिगा नहीं सका तो इसका मतलब साफ है कि शिक्षा, स्कूल, अस्पताल, पानी, बिजली पर दिल्ली के खजाने से रुपये लुटाने में कोई कोताही ना बरतने का लाभ ही केजरीवाल को मिला. और यहीं से सबसे बडा सवाल खड़ा होता है कि क्या वाकई टैक्सपेयर का पैसा बीजेपी शासित राज्य या दूसरे क्षत्रप अपने सुविधाओं में उडा देते है ? क्यांेकि दिल्ली के बजट में जितना पैसा शिक्षा, हेल्थ, बिजली, पानी पर खर्च का दिखाया गया, वही खर्च किया गया और इन सारी योजनाओं को सरकारी स्तर पर पूरा किया गया. यानी प्राइवेट सेक्टर के सामने प्रतिस्पर्धा करते हुये दिल्ली सरकार आगे निकली जबकि केन्द्र सरकार की ही नीतियों को परखे तो तमाम सार्वजनिक उपक्रम ही नहीं, बल्कि तमाम विदेशी आर्थिक समझौतों में भी काॅरपोरेट को ही ज्यादा भागेदारी दी गई इसीलिये देश की जीडीपी जिस दौर में सबसे नीचे आ गई, उस दौर में सरकार के काॅरपोरेट मित्रों के टर्न-ओवर में सबसे ज्यादा बढ़े. मुनाफा सबसे ज्यादा हुआ. तो क्या जनता की एवज में काॅरपोरेट को लाभ हुआ या फिर मोदी राजनीति के तौर-तरीकों ने जन-सरोकारों को छोडा और केजरीवाल ने राजनीति के सरोकारों को कल्याणकारी योजनाओं के जरिये साधा.

यही वह स्थिति है जहां साख का सवाल होता है और मैसेज साफ गया कि दिल्ली के वोटरांे का भरोसा प्रधानमंत्री से भी डिगा. जबकि अपनी दो रैली में झोपड़पट्टी वालों को पक्का मकान देने, छोटे-मंझोले व्यापारियों को जीएसटी की तिकडमो से मुक्ति. मध्यम वर्ग को टैक्स में रियायत का संदेश देने के बाद भी वोटर ने बीजेपी का साथ छोड़ा तो तीन नई परिस्थितियों को बीजेपी या कहे मोदी-शाह के राजनीतिक प्रयोग के सामने खडा कर दिया है.

पहला, राज्यों को गंवाने का सिलसिला कार्यकत्ताओं को कैसे संभालेगा ? दूसरा, बिहार और पश्चिम बंगाल को लेकर कौन-सी राजनीति काम करेगी ? तीसरा, शिवसेना ने जिस तरह वोटिंग के दिन बीजेपी को रोकने के लिये केजरीवाल की तारीफ की, क्या अब बीजेपी का साथ उसके सहयोगी छोडेंगे ? यानी इन तीन सवालां की जमीन पर दिल्ली की वोटिंग के वह तौर-तरीके हैं जिसमें मुस्लिम और निचला गरीब-दलित तबका तो जोश-शोर से वोट डालने निकला लेकिन बीजेपी का कार्यकत्र्ता ही इस बार जोर-शोर से नहीं निकला.

तो पहली बार सवाल ये भी उठा कि क्या पार्टी संगठन का ढांचा चरमरा गया ? या शाह के सांगठनिक प्रयोग की उम्र पूरी हो गई ? ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली में तमाम राष्ट्रीय मुद्दांे को उठाकर बीजेपी ने दिल्ली को देश की राजधानी से इस तरह जोड़ा जिसमें वोट देने वाला ये महसूस करें कि दिल्ली मोदी के राजनीतिक प्रयोग का केन्द्र है. और हार के बाद क्या कोई कह सकता है कि मोदी की राजनीति की मियाद भी पूरी हो गई ? क्योंकि बीजेपी के हार की कई तस्वीरें हैं, जिसमें सबसे बड़ी तस्वीर मोदी का कद बीजेपी से बडा होना है. क्षत्रपों की उपयोगिता भी मोदी-शाह के पंसद-नापसंद पर है. फिर बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा है लेकिन दिल्ली की बिसात अमित शाह ही बिछाते रहे, हर्षवर्धन या गोयल को दरकिनार कर मनोज तिवारी को तरजीह दी और शाहीन बाग का प्रयोग खुले तौर पर वोटों के ध्रुवीकरण के लिये मोदी-शाह ने किया, जिस पर उग्र व अराजक राजनीति करने से वित्त राज्यमंत्री अनुराग सिंह ठाकुर और दिल्ली के सासंद प्रवेश वर्मा तक नहीं चुके, जो कि युवा हैं और दोनों ही पूर्व मुख्यमंत्रियों के बेटे हैं, तो संकेत साफ है जो बीजेपी शहरी पार्टी है, जो बीजेपी व्यापारियों की पार्टी है, जो बीजेपी हिन्दुओं की पार्टी है, वही बीजेपी इन्हीं अपनों के बीच धराशायी हुई है, जो कि बीजेपी के लिये भविष्य की राजनीति के लिये खतरे की घंटी है.

(शाब्दिक संशोधन हमारा किया हुआ है, जो केवल शाब्दिक अशुद्धियों तक ही सीमित है – प्रतिभा एक डायरी)

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