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जंग सीमाओं पर ही नहीं, औरतों के शरीरों पर भी लड़ी जाती है

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जंग सीमाओं पर ही नहीं, औरतों के शरीरों पर भी लड़ी जाती है
जंग सीमाओं पर ही नहीं, औरतों के शरीरों पर भी लड़ी जाती है

’13 साल की थी, जब खेत पर जाते हुए जापानी सैनिकों ने मुझे उठा लिया और लॉरी में डालकर मुंह में मोजे ठूंस दिए, बदबूदार- ग्रीस और कीचड़ से सने हुए. फिर बारी-बारी से सबने मेरा रेप किया. कितनों ने, नहीं पता. मैं बेहोश हो चुकी थी. होश आया तो जापान के किसी हिस्से में थी. एक लंबे कमरे में तीन संकरे रोशनदान थे, जहां लगभग 400 कोरियन लड़कियां थी.

उसी रात पता लगा कि हमें 5 हजार से ज्यादा जापानी सैनिकों को ‘खुश करना’ है. यानी एक कोरियन लड़की को रोज 40 से ज्यादा मर्दों का रेप सहना है.’

चोंग ओके सन (Chong Ok-sun) का ये बयान साल 1996 में यूनाइटेड नेशन्स की रिपोर्ट में छपा था. इस रिपोर्ट पर कभी खुलकर बात नहीं हुई. ये दरअसल शरीर का वो खुला हिस्सा था, जिसे छिपाए रखने में ही बेहतरी थी, वरना इंसानियत नंगी हो जाती.

जंग में मिट्टी के बाद जिसे सबसे ज्यादा जिसे रौंदा-कुचला गया, वो है औरत ! विश्व युद्धों के अलावा छिटपुट लड़ाइयों में भी औरतें यौन गुलाम बनती रहीं, छोटी-छोटी बच्चियां भी इनसे नहीं बच सकीं.

बात दूसरे विश्व युद्ध की है. जापान ताकतवर था. उसके लाखों सैनिक जंग लड़ रहे थे. राशन और गोला-बारूद तो उनके पास थे, लेकिन शरीर की जरूरत के लिए लड़कियां नहीं थी तो बेहद ऑर्गेनाइज्ड जापान ने इसके लिए एक तरीका निकाला. वो ‘कुंवारी’ कोरियन, चीनी, फिलीपीनी लड़कियों को पकड़ता और अपने कंफर्ट स्टेशन्स में कैद कर लेता. कंफर्ट स्टेशन उस जगह का नाम है, जहां लड़कियां सेक्स स्लेव की तरह रखी जाती.

1944 की यह तस्वीर अमेरिका के नेशनल आर्काइव्स में रखी है. ये महिलाएं सेक्स स्लेव्स हैं, जिन्हें दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापानी सैनिकों की शारीरिक भूख मिटाने के लिए चीन में बंधक बनाया गया था, तब इन्हें कम्फर्ट वुमन कहा जाता था. माना जाता है कि जापानी सेना ने चीन-कोरिया समेत कब्जाए गए इलाकों में 2 लाख से ज्यादा महिलाओं को सैनिकों की हवस मिटाने के लिए गुलाम बनाया था.

दूसरे विश्व युद्ध में जापान के लाखों सैनिक जंग लड़ रहे थे. उनके पास हर तरह के हथियार थे, लेकिन लड़कियां नहीं थी. फिर वे अपनी शरीर की जरूरत के लिए कुंवारी लड़कियों को शिकार बनाने लगे.
दूसरे विश्व युद्ध में जापान के लाखों सैनिक जंग लड़ रहे थे. उनके पास हर तरह के हथियार थे, लेकिन लड़कियां नहीं थी. फिर वे अपनी शरीर की जरूरत के लिए कुंवारी लड़कियों को शिकार बनाने लगे.

कच्ची उम्र की एक-एक बच्ची रोज 40 से 50 पके हुए सैनिकों को सर्व करती. जो विरोध करती, उसका गैंगरेप सबक की तरह सारी लड़कियों के सामने होता और फिर बंदूक की नोंक मार-मारकर ही उसकी जान ले ली जाती. गोली से नहीं- क्योंकि सैनिक गुलाम लड़कियों पर गोली भी खर्च नहीं करना चाहते थे.

लड़कियां प्रेगनेंट न हों, इसके लिए भी तगड़ा बंदोबस्त था. हर हफ्ते उन्हें एक इंजेक्शन दिया जाता. ‘नंबर 606’ नाम के इस इंजेक्शन में ऐसा केमिकल होता, जो नसों में घुलकर प्रेगनेंसी को रोकता, या अबॉर्शन हो जाता. दवा के ढेरों साइड-इफेक्ट थे. लड़कियों की भूख मर जाती, चौबीसों घंटे सिरदर्द रहता. पेट में ऐंठन होती और अंदरुनी अंगों से खून रिसता रहता, लेकिन ये कोई समस्या नहीं थी. जरूरी ये था कि वे प्रेग्नेंट हुए बगैर सैनिकों की भूख मिटाती रहें.

पहले ऊंची रैंक के अफसर रेप किया करते, फिर पुरानी होने के बाद लड़कियों को नीचे की रैंक के सैनिकों के पास छोड़ा जाने लगा, लेकिन एक बात कॉमन थी कि रोज पचासों मर्दों की भूख मिटाने वाली किसी लड़की को यौन बीमारी हो जाए वो रातोंरात गायब हो जाती. जापानी सैनिक अपनी साफ-सफाई और हेल्थ को लेकर काफी पाबंद थे !

सीमा पर युद्ध रुक जाएंगे. मुल्क आपस में हाथ मिलाएंगे. तेल कोयला-मोबाइल-मसाला के व्यापार चल पड़ेंगे. रुकी रहेंगी तो औरतें. वे औरतें, जो युद्ध में शामिल हुए बिना मारी गईं.
सीमा पर युद्ध रुक जाएंगे. मुल्क आपस में हाथ मिलाएंगे. तेल कोयला-मोबाइल-मसाला के व्यापार चल पड़ेंगे. रुकी रहेंगी तो औरतें. वे औरतें, जो युद्ध में शामिल हुए बिना मारी गईं.

ये औरतें युद्ध की वो कहानी हैं, जो कभी नहीं कही जाएंगी या कही भी जाएंगी तो खुसफुसाकर, जैसे किसी शर्म को ढंका जा रहा हो.

जंग में मिट्टी के बाद जिसे सबसे ज्यादा रौंदा-कुचला गया, वो है औरत ! विश्व युद्धों के अलावा छिटपुट लड़ाइयों में भी औरतें यौन गुलाम बनती रही. अमेरिकी जर्नल नेशनल इंस्टीट्यूट ऑन ड्रग एब्यूज में जिक्र है कि कैसे छोटी-छोटी लड़कियों का यौन शोषण हुआ. सात-आठ साल की बच्चियां जिनके गुदगुदे गाल देखकर प्यार करने को दिल चाहते है, उन बच्चियों को ड्रग्स दिए गए ताकि उनकी देह भर जाए और वे सैनिकों को औरत की तरह सुख दे सकें.

वियतनाम युद्ध में ताकतवर अमेरिकी आर्मी के जाने के बाद देश में बेबी बूम हुआ. एक साथ पचासों हजार बच्चे जन्मे, जिनमें बहुतेरे अपाहिज थे. बहुतेरों की नाबालिक मांओं ने उन यादों से नफरत के चलते जन्म देते ही शिशुओं को सड़क पर फेंक दिया. इन बच्चों को वियतनामी में बुई दोई यानी Dirt of life कहा गया. ये वो बच्चे थे, जिन्हें उनकी मांएं कलेजे से लगाते हुए डरती थी.

साल 2018 में कांगो के पुरुष गायनेकोलॉजिस्ट डेनिस मुकवेज को नोबेल पुरस्कार मिला- उन औरतों का वजाइना रिपेयर करने के लिए, जो युद्ध में सेक्स स्लेव की तरह इस्तेमाल हुई थी. एक सवाल ये भी उठता है कि सर्जरी करने वाले को नोबेल जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार देने की बजाय क्या उन स्त्रियों को दुलराया नहीं जाना चाहिए, जो युद्ध के बाद की तकलीफ से जूझ रही थी.

क्या वजाइना रिपेयरिंग की बजाय कोई ऐसी चीज नहीं होनी चाहिए थी, जो औरतों की चिथड़ा-चिथड़ा आत्मा को सिल सके ?

कल रात यूक्रेन के कीव से एक वॉट्सएप कॉल आया. लड़की रुआंसी थी कि उसके आसपास की तमाम दुकानों में सैनिटरी पैड्स का स्टॉक खत्म हो चुका. 23 साल की लड़की को 30 साल पीछे जाकर कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ रहा है. बात सुनने में मामूली है, लेकिन ये युद्ध की शुरुआत है, वो युद्ध जो सीमाओं के साथ-साथ औरतों की शरीरों पर लड़ा जाएगा.

सीमा पर युद्ध रुक जाएंगे. मुल्क आपस में हाथ मिलाएंगे. तेल-कोयला-मोबाइल-मसाला के व्यापार चल पड़ेंगे. रुकी रहेंगी तो औरतें. वे औरतें, जो युद्ध में शामिल हुए बिना मारी गईं.

  • मृदुलिका झा
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