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अनार्य कृष्ण की नृशंश हत्या करने वाले आर्यों ने अनार्य कृष्ण को अवतार बना दिया

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ब्राह्मणवादियों की यह प्रमुख विशेषता है कि वह अपने विरोधियों की हत्या करते हैं, फिर उसे बदनाम करते हैं. लेकिन अगर वह उसे बदनाम करने में असफल हो जाते हैं, तब सबसे आगे बढ़कर वह उसे भगवान या अवतार घोषित कर खुद को अप्रसांगिक होने से बचा लेता है. ब्राह्मणवादियों की इस विशेषता ने ही ब्राह्मणवादियों को आज तक जीवित रखा है. यानी, ब्राह्मणवाद कोई विचार, कोई सिद्धांत, कोई दृष्टिकोण नहीं है अपितु, शोषण के औजार की पैनी दांत को चुभाये रखने के लिए परजीवियों द्वारा किया जाने वाला जतन है.

इसे हम आज के दौर में इस तरह समझ सकते थे. संघियों ने पहले गांधी को गोली मारकर हत्या कर दिया. फिर गांधी के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया. झूठ-सच का प्रोपगेंडा चलाने के बाद भी जब वह जनमानस के बीच गांधु को बदनाम करने में असफल हो गया तब वह अब धीरे-धीरे गांधी को अपनाने लगा है. मसलन, पटेल को, तिरंगा झंडा को, बंदे मातरम आदि जैसे घोर विरोधी गांधीवादी प्रतीकों को अपनाकर अपनी परजीविता को बचाने की कोशिश कर रहा है.

ठीक ऐसी ही परिघटना हजारों साल पहले बुद्ध के साथ किया. उनकी हत्या तो यह ब्राह्मणवादियों नहीं कर सके, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद बुद्ध को खूब बदनाम किया. चोर-डाकू तक बताया लेकिन तब भी जब वह बुद्ध को बदनाम नहीं कर पाया तब उसके उन्हें विष्णु का अवतार घोषित कर दिया. उसी तरह अनार्य कृष्ण को नृशंश तरीक़े से उनकी गर्भवती पत्नियों समेत हत्या किया और उसके खिलाफ जबर्दस्त प्रोपेगैंडा फैलाया लेकिन जब जनमानस के बीच उसे बदनाम करने में सफल नहीं हो सका तब इन ब्राह्मणवादियों ने असुर कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया.

इन ब्राह्मणवादियों ने अपने इसी कार्यप्रणाली की बदौलत असुरों समेत तमाम विदेशी आक्रमणकारियों के सामने खुद को टिकाए रखा. कभी अपनी बहन-बेटियों को देकर तो कभी भगवान बनाकर. अंग्रेजों के काल में तो इसने यहां तक कहा था कि जैसे आप विदेशी हैं, वैसे हम भी विदेशी हैं, इसलिए हम दोनों को मिलकर इस देश पर हुकूमत करना चाहिए. लेकिन अंग्रेजों ने आखिर तक इस कपटी नस्लों को अपने पास तक न फटकने दिया और सदैव हीन नजरों से देखा.

अंग्रेजों के जाने के बाद ब्राह्मणवादियों ने एक बार फिर अपना सर उठाया और सुधारवादी राजनीति के दौर में एक बार फिर खुद को प्रसांगिक बनाने के लिए अपने घोर विरोधियों को महान बताने की कोशिश में जुड़कर अपने परजीवी दांत और ज्यादा पैने बनाने की कोशिश कर रहा है. यहां हम अनार्य अहीर कृष्ण की नृशंश हत्या से लेकर भगवान बनाने तक की प्रक्रिया को देखते हैं ताकि ब्राह्मणवादी षड्यंत्रों को समझने में मदद मिल सके. ‘यादव शक्ति’ पत्रिका के प्रधान संपादक चंद्रभूषण सिंह यादव का यह लेख उनके लंबे शोध आलेख का संपादित अंश है, को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं.

इस देश की पिछड़ी जातियों में शुमार अहीर व यादव कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं. इस जाति के बीच कृष्ण का नायकत्व ऐसा है कि अहीर और कृष्ण पर्यायवाची बन गए हैं.

हिन्दू धर्मग्रंथों में इस यादव नायक का नाम कृष्ण, श्याम, गोपाल आदि आया है, जो यादवों के शारीरिक रंग एवं व्यवसाय से मेल खाने वाला है. बहुसंख्यक यादव सांवले या काले होते हैं, जो कि इस देश के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों का रंग है, के होंगे, तो निश्चय ही इनके महामानव या नायक का नाम कृष्ण या श्याम होगा, जिसका शाब्दिक अर्थ काला, करिया या करियवा होगा. देश एवं हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था सवर्ण-अवर्ण या काले-गोरे के आधार पर बनी है.

आर्यों और अनार्यों के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आर्य संस्कृति की खोज’ का यह अंश उल्लेखनीय है  –

‘1800 ईसा पूर्व के बाद छोटी-छोटी टोलियों में आर्यों ने भारतवर्ष में प्रवेश किया. ऋग्वेद और अवेस्ता दोनों प्राचीनतम ग्रंथों में आर्य शब्द पाया जाता है. ईरान शब्द का संबंध आर्य शब्द से है. ऋग्वैदिक काल में इंद्र की पूजा करने वाले आर्य कहलाते थे. ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग जाति है. जिन लोगों से वे लड़ते थे उनको काले रंग का बतलाया गया है.

आर्यों को मानुषी प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे और कभी-कभी काले लोगों के घरों में आग लगा देते थे. आर्यों के देवता सोम के विषय में कहा गया है कि वह काले लोगों की हत्या करता था. उत्तर-वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में आर्य से उन तीन वर्णों का बोध होता था जो द्विज कहलाते थे. शूद्रों को आर्य की कोटि में नहीं रखा जाता था. आर्य को स्वतंत्र समझा जाता था और शूद्र को परतंत्र.’

इंद्र विरुद्ध कृष्ण

हिंदुओं के प्रमुख धर्मग्रंथ ऋग्वेद का मूल देवता इंद्र है. इसके 10,552 श्लोकों में से 3,500 अर्थात् ठीक एक-तिहाई इंद्र से संबंधित हैं. इंद्र और कृष्ण का मतांतर एवं युद्ध सर्वविदित है. प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में वेदव्यास ने कृष्ण को विजेता बताया है तथा इंद्र का पराजित होना दर्शाया है. इंद्र और कृष्ण का यह युद्ध आमने-सामने लड़ा गया युद्ध नहीं है. इस युद्ध में कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा का विरोध किया जाता है, जिससे कुपित इंद्र अतिवृष्टि कर मथुरावासियों को डुबोने पर आमादा हैं. कृष्ण गोवर्धन पर्वत के जरिए अपने लोगों को इंद्र के कोप से बचा लेते हैं. इंद्र थककर पराजय स्वीकार कर लेता है।श. इस संपूर्ण घटनाक्रम में कहीं भी आमने-सामने युद्ध नहीं होता है लेकिन अन्य हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में इस युद्ध के दौरान जघन्य हिंसा का जिक्र है तथा इंद्र को विजेता दिखाया गया है.

ऋग्वेद मंडल-1 सूक्त 130 के 8वें श्लोक में कहा गया है कि –

‘हे इंद्र ! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं. अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं. इंद्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी. इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती नदी के किनारे मारा और भस्म कर दिया. इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला.’

ऋग्वेद के मंडल-1 के सूक्त 101 के पहले श्लोक में लिखा है कि –

‘गमत्विजों, जिस इंद्र ने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुर की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उन्हीं के स्तुतिपात्र इंद्र के उद्देश्य से हवि रूप अन्न के साथ-साथ स्तुति वचन बोला. वे कामवर्णी दाएं हाथ में बज्र धारण करते हैं. रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इंद्र का मरुतों सहित आह्वान करते हैं.’

इंद्र और कृष्ण की शत्रुता की भी ऋणता को समझने के लिए ऋग्वेद के मंडल 8 सूक्त 96 के श्लोक 13, 14, 15 और 17 को भी देखना चाहिए; मूल संस्कृत श्लोक देखें (शांति कुंज प्रकाशन, गायत्री परिवार, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित) ऋगवेद के श्लोक 13 –

‘शीघ्र गतिवाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था. इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए वधकारिणी सेनाओं का नाश किया.’

श्लोक 14 –

‘इंद्र ने कहा-मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है, वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है. हे अभिलाषापूरक मरुतो, मैं युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं. तुम यु़द्ध में उसे मारो.’

श्लोक 15 –

‘तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था. इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया.’

श्लोक 17 –

‘हे बज्रधारी इंद्र ! तुमने वह कार्य किया है. तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने बज्र से कृष्ण का बल नष्ट किया. तुमने अपने आयुधों से कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं. (अनुवाद-वेद, विश्व बुक्स, दिल्ली प्रेस, नई दिल्ली)

क्या कृष्ण और यादव असुर थे?

ऋग्वेद के इन श्लोकों पर कृष्णवंशीय लोगों का ध्यान शायद नहीं गया होगा. यदि गया होता तो बहुत पहले ही तर्क-वितर्क शुरू हो गया होता. वेद में उल्लेखित असुर कृष्ण को यदुवंश शिरोमणि कृष्ण कहने पर कुछ लोग शंका व्यक्त करेंगे कि हो सकता है कि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हों, लेकिन जब हम सम्पूर्ण प्रकरण की गहन समीक्षा करेंगे तो यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाएगी, क्योंकि यदुकुलश्रेष्ठ का रंग काला था, वे गायवाले थे और यमुना तट के पास उनकी सेनाएं भी थी. वेद के असुर कृष्ण के पास भी सेनाएं थीं. अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के पास उनका निवास था और वह भी काले रंग एवं गाय वाला था. उसका गोर्वधन गुफा में बसेरा था.

यदुवंशी कृष्ण एवं असुर कृष्ण दोनों का इंद्र से विरोध था. दोनों यज्ञ एवं इंद्र की पूजा के विरुद्ध थे. वेद में कृष्ण एवं इंद्र का यमुना के तीरे युद्ध होना, कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों की हत्या, सम्पूर्ण सेना की हत्या, कृष्ण की काली छाल नोचकर उल्टा करके मारने और जलाने, उनकी गायों को लेने की घटना इस देश के आर्य-अनार्य युद्ध का ठीक उसी प्रकार से एक हिस्सा है, जिस तरह से महिषासुर, रावण, हिरण्यकष्यप, राजा बलि, बाणासुर, शम्बूक, बृहद्रथ के साथ छलपूर्वक युद्ध करके उन्हें मारने की घटना को महिमामंडित किया जाना. इस देश के मूल निवासियों को गुमराह करने वाले पुराणों को ब्राह्मणों ने इतिहास की संज्ञा देकर प्रचारित किया. इसी भ्रामक प्रचार का प्रतिफल है कि बहुजनों से उनके पुरखों को बुरा कहते हुए उनकी छल कर हत्या करने वालों की पूजा करवाई जा रही है.

यदुवंशी कृष्ण के असुर नायक या इस देश के अनार्य होने के अनेक प्रमाण आर्यों द्वारा लिखित इतिहास में दर्ज है. आर्यों ने अपने पुराण, स्मृति आदि लिखकर अपने वैदिक या ब्राह्मण धर्म को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया है. पद्म पुराण में कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध एवं राजा बलि की पौत्री उषा के विवाह का प्रकरण पढऩे को मिलता है. कृष्ण के पौत्र की पत्नी उषा के पिता का नाम बाणासुर था. बाणासुर के पूर्वज कुछ यूं थे- असुर राजा दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप के पुत्र विरोचन के पुत्र बलि के पुत्र बाणासुर थे. उषा का यदुकुल श्रेष्ठ कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया. अनिरुद्ध अपनी प्रेमिका उषा से मिलने बाणासुर के महल में चले गए.

बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध के अपने महल में मिलने की सूचना पर अनिरुद्ध को पकड़कर बांधकर पीटा गया. इस बात की जानकारी होने पर अनिरुद्ध के पिता प्रद्युम्न और वाणासुर में घमासान हुआ. जब बाणासुर को पता चला कि उनकी पुत्री उषा और अनिरुद्ध आपस में प्रेम करते हैं तो उन्होंने युद्ध बंद कर दोनों की शादी करा दी. इस तरह से कृष्ण और असुर राज बलि एवं बाणासुर और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न आपस में समधी हुए. अब सवाल उठता है कि यदि कृष्ण असुर कुल यानी इस देश के मूल निवासी नहीं होते तो उनके कुल की बहू असुर कुल की कैसे बनती ?

असुर राजा बलि की इन्द्र द्वारा हत्या और दासता का प्रतीक रक्षासूत्र

श्रीकृष्ण और राजा बलि दोनों के दुश्मन इंद्र और उपेंद्र आर्य थे. कृष्ण ने इंद्र से लड़ाई लड़ी तो बालि ने वामन रूपधार उपेंद्र (विष्णु) बलि से. राजा बलि के संदर्भ में आर्यों ने जो किस्सा गढ़ा है वह यह है कि राजा बलि बड़े प्रतापी, वीर किंतु दानी राजा थे. आर्य नायक विष्णु आदि राजा बलि को आमने-सामने के युद्ध में परास्त नहीं कर पा रहे थे, सो विष्णु ने छल करके राजा बलि की हत्या की योजना बनाई.

विष्णु वामन का रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी. महादानी एवं महाप्रतापी राजा बलि राजी हो गए. पुराण कथा के मुताबिक वामन वेशधारी विष्णु ने एक पग में धरती, एक पग में आकाश तथा एक पग में बलि का शरीर नापकर उन्हें अपना दास बनाकर मार डाला.

कुछ विद्वान कहते हैं कि वामन ने राजा बलि के सिंहासन को दो पग में मापकर कहा कि सिंहासन ही राजसत्ता का प्रतीक है इसलिए हमने तुम्हारा सिंहासन मापकर संपूर्ण राजसत्ता ले ली है. एक पग जो अभी बाकी है उससे तुम्हारे शरीर को मापकर तुम्हारा शरीर लूंगा. महादानी राजा बलि ने वचन हार जाने के कारण अपनी राजसत्ता वामन विष्णु को बिना युद्ध किए सौंप दी तथा अपना शरीर भी समर्पित कर दिया. वामन वेशधारी विष्णु ने एक लाल धागे से हाथ बांधकर राजा बलि को अपने शिविर में लाकर मार डाला.

इस लाल धागे से हाथ बांधते वक्त विष्णु ने बलि से कहा था कि तुम बहुत बलवान हो, तुम्हारे लिए यह धागा प्रतीक है कि तुम हमारे बंधक हो. तुम्हें अपने वचन के निर्वाह हेतु इस धागा को हाथ में बांधे रखना है. हजारों वर्ष बाद भी इस लाल धागे को इस देश के मूल निवासियों के हाथ में बांधने का प्रचलन है, जिसे रक्षासूत्र या कलावा कहते हैं. इस रक्षासूत्र या कलावा को बांधते वक्त पुरोहित उस हजार वर्ष पुरानी कथा को श्लोक में कहता है कि –

‘येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल : तेन त्वामि प्रतिबद्धामि रक्षे मा चल मा चल.’ (अर्थात् जिस तरह हमने दानवों के महाशक्तिशाली राजा बलि को बांधा है उसी तरह हम तुम्हें भी बांधते हैं. स्थिर रह, स्थिर रह.)

पुराणों के प्रमाण

दरअसल, इन पौराणिक किस्सों से यही प्रमाणित होता है कि कृष्ण, राजा बलि, राजा महिषासुर, राजा हिरण्यकश्यप आदि से विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर इस देश के मूल निवासियों पर अपनी आर्य संस्कृति थोपने के लिए संग्राम किया था. इंद्र एवं विष्णु आर्य संस्कृति की धुरी हैं तो कृष्ण और बलि अनार्य संस्कृति की.

बहरहाल, कृष्ण को क्षत्रिय या आर्य मानने वाले लोगों को कृष्ण काल से पूर्व राम-रावण काल में भी अपनी स्थिति देखनी चाहिए. महाकाव्यकार वाल्मीकि ने रामायण में भी यादवों को पापी और लुटेरा बताया है तथा राम द्वारा किए गए यादव राज्य दु्रमकुल्य के विनाश को दर्शाया है.

वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के 22वें अध्याय में राम एवं समुद्र का संवाद है –

राम लंका जाने हेतु समुद्र से कहते हैं कि तुम सूख जाओ, जिससे मैं समुद्र पार कर लंका चला जाऊं. समुद्र राम को अपनी विवशता बताता है कि मैं सूख नहीं सकता तो राम कुपित होकर प्रत्यंचा पर वाण चढ़ा लेते हैं. समुद्र राम के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें नल-नील द्वारा पुल बनाने की राय देता है. राम समुद्र की राय पर कहते हैं कि वरुणालय मेरी बात सुनो. मेरा यह यह वाण अमोध है, बताओ इसे किस स्थान पर छोड़ा जाए ? राम की बात सुनकर समुद्र कहता है कि –

‘प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर दु्रमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा पवित्र देश है, वहां आभीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं. वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं. वे लोग मेरा जल पीते हैं. उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता. श्रीराम ! आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए.’

महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के बताये अनुसार उसी देश में वह अत्यंत प्रज्जवलित वाण छोड़ दिया. वह वाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस वाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरुभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ.’

राम-रावण काल में यादवों के राज्य दु्रमकुल्य को समुद्र द्वारा पवित्र बताने तथा वहां निवास करने वाले यादवों को पापी एवं भयानक कर्म वाला लुटेरा कहने से सिद्ध हो जाता है कि यादव न आर्य हैं और न क्षत्रिय, अन्यथा वाल्मीकि और समुद्र इन्हें पापी नहीं कहते. जिस तरह से इस देश में दलितों को तालाब, कुंओं आदि से पानी पीने नहीं दिया जाता था और डॉ. अंबेडकर को महाड़ तालाब आंदोलन करना पड़ा, क्या उससे भी अधिक वीभत्स घटना यादवों के दु्रमकुल्य राज्य के साथ घटित नहीं हुई है ?

रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि आभीर यवन, किरात खस, स्वचादि अति अधरुपजे. अर्थात् अहीर, मुसलमान, बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयोनि हैं. इसी प्रकार व्यास स्मृति का रचयिता एक श्लोक में कहता है कि ‘बढ़ई, नाई, ग्वाला, चमार, कुभकार, बनिया, चिड़ीमार, कायस्थ, माली, कुर्मी, भंगी, कोल और चांडाल ये सभी अपवित्र हैं. इनमें से एक पर भी दृष्टि पड़ जाए ता सूर्य दर्शन करने चाहिए, तब द्धिज जाति अर्थात् बड़ी जातियों का एक व्यक्ति पवित्र होता है.’

सहमत हैं इतिहासविद्

इसी कारण महान इतिहासकार डीडी कौशाम्बी ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सहायता’ में लिखा है-

‘ऋग्वेद में कृष्ण को दानव और इंद्र का शत्रु बताया गया है और उसका नाम श्याम, आर्य पूर्व लोगों का द्योतक है. कृष्णाख्यान का मूल आधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का देवता था. परंतु सूक्तकारों ने पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है. कृष्ण शाश्वत भी हैं और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल में पाला गया था. इस स्थानांतरण ने उसे उन अहीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे और जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं.

कृष्ण गोरक्षक थे, जिन यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी, उनमें कृष्ण का कभी आह्वान नहीं हुआ है, जबकि इंद्र, वरुण तथा अन्य वैदिक देवताओं का सदैव आह्वान हुआ है. ये लोग अपने पैतृक कुलदेवता को चाहे जिस चीज की बलि भेंट करते रहे हों पर दूसरे कबीलों द्वारा उनकी इस प्रथा को अपनाने का कोई कारण नहीं था. दूसरी तरफ जो पशुचर लोग कृषि जीवन को अपना रहे थे, उन्हें इंद्र की बजाय कृष्ण को स्वीकार करने में निश्चित ही लाभ था. सीमा प्रदेश के उच्च वर्ग के लोग गौरवर्ण के थे. उनका मत था कि काला आदमी बाजार में लगाए गए काले बीजों के ढेर की भांति है और उसे शायद ही कोई ब्राह्मण समझने की भूल कर सकता है.

कन्या का मूल्य देकर विवाह करने का पश्चिमोत्तर में जो रिवाज था, वह भी पूर्ववासियों को विकृत प्रतीत होता था. कन्या हरण की प्रथा थी, जिसका महाभारत के अनुसार कृष्ण के कबीले में प्रचलन था और ऐतिहासिक अहीरों ने भी जिसे चालू रखा और जो पूर्ववासियों को विकृत लगती थी. अंततोगत्वा ब्राह्मण धर्मग्रंथों ने इन दोनों प्रकार के विवाहों को अनार्य प्रथा में कहकर निषिद्ध घोषित कर दिया.’

डीडी कौशाम्बी अपनी पुस्तक में स्पष्ट करते हैं कि –

‘कृष्ण आर्यों कीे पशु बलि के सख्त विरोधी थे यानी गोरक्षक थे. कृष्ण की बहन सुभद्रा से अर्जुन द्वारा भगाकर शादी करने का उल्लेख मिलता है. इस प्रकार कौशाम्बी ने भी कृष्ण को अनार्य अर्थात् असुर माना है.

इतिहासकार भगवतशरण उपाध्याय ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक ‘खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर’ में लिखा है कि –

‘क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के देवता इंद्र और ब्राह्मणों के साधक यज्ञानुष्ठानों के शत्रु कृष्ण को देवोत्तर स्थान दिया. उन्होंने उसे जो क्षत्रिय भी न था, यद्यपि क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहा था, को विष्णु का अवतार माना और अधिकतर क्षत्रिय ही उस देवदुर्लभ पद के उपयुक्त समझे गए.

उपाध्याय ने इसे भी स्पष्ट कर दिया है कि –

कृष्ण ब्राह्मणों के देवता इंद्र और उनके यज्ञानुष्ठानों के प्रबल विरोधी थे जबकि वे क्षत्रिय नहीं थे. कृष्ण के बारे में उपाध्याय ने लिखा है कि वे क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहे थे. अब तक जो भी प्रमाण मिले हैं वे यही सिद्ध करते हैं कि अहीर और कृष्ण आर्यजन नहीं थे. कृष्ण और अहीर इस देश के मूलनिवासी काले लोग थे. इनका आर्यों से संघर्ष चला है.

ऋग्वेद कहता है कि –

‘निचुड़े हुए, गतिशील, तेज चलने वाले व दीप्तिशाली सोम काले चमड़े वाले लोगों को मारते हुए घूमते हैं, तुम उनकी स्तुति करो।’ (मंडल 1 सूक्त 43)

इस आशय के अनेक श्लोक ऋग्वेद में हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग भारत के मूल निवासियों से किस हद तक नफरत करते थे तथा उन्होंने चमड़ी के रंग के आधार पर इनकी हत्याएं की हैं. यादवश्रेष्ठ कृष्ण काली चमड़ी वाले थे. इंद्र और यज्ञ विरोधी होने के लिहाज से ऋग्वेद के अनुसार उनका संघर्ष अग्नि, सोम, इंद्र आदि से होना स्वाभाविक है.

जिनसे जीत नहीं सकते उन्हें मिला लो

ऋग्वेद से लेकर तमाम शास्त्रों में अहीर व अहीर नायक कृष्ण अनार्य कहे गए हैं लेकिन इसके बावजूद जब इस देश के मूल निवासियों में कृष्ण का प्रभाव कायम रहा तो इन आर्यों ने कृष्ण के साथ नृशंसता बरतने के बावजूद उन्हें भगवान बना दिया और कृष्णवंशीय बहादुर जाति को अपने सनातन पंथ का हिस्सा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली.

जब कृष्ण अनार्य थे तो गीतोपदेश का सवाल उठना लाजिमी है. गीतोपदेश में कृष्ण ने खुद भगवान होने, ब्राह्मण श्रेष्ठता, वर्ण व्यवस्था बनाने जैसे अनेक गले न उतरने वाली बातें कही हैं. ऋग्वेद स्वयं ही गीता में उल्लेखित बातों का खंडन करता है. जब कृष्ण खुद वेद के अनुसार असुर और इंद्रद्रोही थे तो वे वर्ण व्यवस्था को बनाने की बात कैसे कर सकते हैं.? गीता में ब्राह्मणवाद को मजबूत बनाने वाली जो भी बातें कृष्ण के मुंह से कहलवाई गई हैं वे सत्य से परे हैं.

काले, अवर्ण, असुर कृष्ण कभी भी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक नहीं हो सकते. भारत के मूल निवासियों में अमिट छाप रखने वाले कृष्ण का आभामंडल इतना विस्तृत था कि आर्यों को मजबूरी में कृष्ण को अपने भगवानों में सम्मलित करना पड़ा. यह कार्य ठीक उसी तरह से किया गया जिस तरह से ब्राह्मणवाद के खात्मा हेतु प्रयत्नशील रहे गौतम बुद्ध को ब्राह्मणों ने गरुड़ पुराण में कृष्ण का अवतार घोषित कर खुद में समाहित करने की चेष्टा की.

जिस तरह से असुर कृष्ण की भारतीय संस्कृति आर्यों ने उदरस्थ कर ली उसी तरह बुद्ध की वैज्ञानिक बातों ने हिन्दू धर्म के अवैज्ञानिक कर्मकांडों के समक्ष दम तोड़ दिया. डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अब भारत में कुछ बौद्ध नजर आ रहे हैं, वरना इन आर्यों ने बुद्ध को कृष्ण का अवतार और कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर कृष्ण एवं बुद्ध को निगल लिया था. कितनी विडंबना है कि विष्णु का अवतार जिस कृष्ण को बताया गया है, वह कृष्ण लगातार वेद से लेकर महाभारत ग्रंथ में इंद्र से लड़ रहा है.

एक सवाल उठेगा कि यदि कृष्ण आर्य या क्षत्रिय नहीं थे तो श्रीमद्भागवद गीता में क्यों लिखा है कि ‘यदुवंश का नाम सुनने मात्र से सारे पाप दूर हो जाते हैं.’ (स्कंध-9. अध्याय. 23, लोक.19) ? मैं इस संदर्भ में यही कहूंगा कि असुर कृष्ण अति लोकप्रिय थे. वे लोकनायक थे. उनकी लोकप्रियता इस देश के मूल निवासियों में इतनी प्रबल थी कि आर्य उन्हें उनके मन से निकाल पाने में सफल नहीं थे. बहरहाल, मैंने कृष्ण और यादवों के संदर्भ में कुछ तथ्य विभिन्न स्रोतों से एकत्रित कर तर्कशील पाठकों के समक्ष बहस हेतु रखा है. मैं यह सवाल अब पाठकों के लिए छोड़ रहा हूं कि कृष्ण कौन थे ? यादव किस वर्ण के हैं ? मैं समझता हूं कि ये प्रश्न अब अनुत्तरित नहीं रह गए हैं.

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ROHIT SHARMA

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