कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
5 जुलाई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति होते जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और सुरेन्दर सिंह निज्जर की पीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए छत्तीसगढ़ शासन के आदेशों को निरस्त कर दिया था, जिनके अनुसार बस्तर में नक्सलियों से निपटने के लिए विशेष पुलिस कर्मी (एसपीओ) भरती कर मजबूर, गरीब और लगभग अशिक्षित आदिवासी युवकों के हाथों कथित आत्मसुरक्षा के नाम पर बंदूकें थमा दी गई थी.
प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा और भारत शासन के पूर्व सचिव ई. ए. एस. शर्मा वगैरह द्वारा दायर याचिका पर आदेश में कोर्ट ने विस्तृत, वैचारिक और भविष्यमूलक टिप्पणियां की और छत्तीसगढ़ और केन्द्र शासन की जमकर खिंचाई की. उन्हें अविश्वसनीय, गलत और गैरज़िम्मेदार ठहराया.
सुप्रीम कोर्ट ने चुभता हुआ सवाल पूछा था – ‘एसपीओ अर्थात कोया कमांडों की भर्ती, ट्रेनिंग और उन्हें हथियारों से लैस करने की क्या स्थितियां हैं ?’ सरकार ने सूचित किया कि 28. 03. 2011 की स्थिति में 6500 एसपीओ कार्यरत रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कटाक्ष किया एक वर्ष पहले सरकारी शपथ पत्र में 3000 कार्यरत थे, पिछले एक वर्ष में संख्या दो गुने से ज़्यादा हो गई ?
अदालत ने एसपीओ भर्ती पर पांच सवाल किए थे –
- शैक्षणिक एवं अन्य योग्यताएं क्या होंगी ?
- ट्रेनिंग के क्या आयाम हैं, और विशेषकर हथियार देने को लेकर ?
- एसपीओ के कार्यों और गतिविधियों पर सरकार का नियंत्रण कितना और कैसा होगा ?
- कार्यरत रहते हुए एसपीओ के मरने अथवा गंभीर रूप से जख्मी होने को लेकर उनके तथा परिवारों की देखभाल को लेकर क्या सोच है ?
- नौकरी छोड़ देने पर एसपीओ से हथियार वापस लेने और उनकी सुरक्षा को लेकर क्या प्रबंध हो सकते हैं ?
सरकार ने मौखिक बहस खत्म होने पर 03. 05. 2011 को पूरक शपथ पत्र और लिखित तर्क पेश किए. कोर्ट ने यही पाया कि एसपीओ के ऊपर नियमित पुलिस बल के सभी उत्तरदायित्वों का भार है तो उन्हें 3000 रुपए मासिक मानदेय की मामूली राशि क्यों दी जा रही है ? यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है.
केन्द्र सरकार ने कहा था कि देश में लगभग 70 हजार एसपीओ कार्यरत हैं. उन्हें नियमित बलों की संख्या का वृद्धिकारक समझा जाना चाहिए. कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एसपीओ ज़्यादा खतरनाक परिस्थितियों से जूझ रहे हैं अथवा उनकी ट्रेनिंग अपूर्ण और अपरिपक्व है.
सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम 2007 में पाया कि कानून व्यवस्था बनाने, लोकजीवन, नागरिक आज़ादी, संपत्ति अधिकारों और गरिमा की रक्षा करने, अपराधों और पब्लिक न्यूसेंस को रोकने, आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने, आतंकवादी गतिविधियों को रोकने तथा नियंत्रित करने, अपराधियों की धरपकड़ और गिरफ्तारी करने, आपदा परिस्थितियों में लोगों की मदद करने, यातायात नियंत्रण करने, गोपनीय सूचनाएं एकत्रित करने, लोकसेवकों की सुरक्षा करने वगैरह की जिम्मेदारियों का पहाड़ एसपीओ के कंधों पर डाल दिया गया है.
अधिकांश का पालन करना लगभग अपढ़, मासूम, सीधे सादे युवकों के लिए नक्सलियों के हमलों की अधुनातन तक्नालाॅजी से निपटना कैसे संभव होगा ? मानो उन्हें शेर के पिंजड़े में बलि चढ़ाने के लिए छोड़ दिया गया है. कोर्ट ने साफ कहा कि सरकारी दावों पर भरोसा करना मुमकिन नहीं हैै. यह मानना संभव नहीं कि नवयुवक स्वेच्छा से एसपीओ बनना चाहते हैं. बस्तर के पीड़ित परिवारों के सदस्य एसपीओ बनकर हथियार उठाते रहेंगे तो इस जंजाल से आदिवासी समाज कभी मुक्त नहीं होगा. मनुष्य जीवन की कीमत यदि 3000 रुपए का मासिक मानदेय है और उसे कभी भी नौकरी से निकाला जा सकता है, तो ऐसे युवा एसपीओ को असुरक्षित बनाकर जोखिम में क्यों डाला जा रहा है ?
अदालत ने संतोषजनक उत्तर नहीं पाया कि सेवा समाप्ति के बाद यदि एसपीओ ने हथियार लौटाने से इंकार कर दिया तब हथियारों के बेजा इस्तेमाल का अधिकार भले न रहे, लेकिन हथियार तो रहेंगे. कोर्ट ने एसपीओ की भर्ती पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने के शासन को आदेश दिया. केन्द्र सरकार को वित्तीय मदद देने की भी मनाही कर दी. राज्य सरकार को निर्देशित किया कि तत्काल प्रभाव से सभी एसपीओ से हथियार वापस ले.
कोर्ट ने अलबत्ता कहा कि सरकार चाहे तो एसपीओ से यातायात नियंत्रण और गोपनीय सूचनाएं एकत्रित करने के काम लेना जारी रख सकती है. न्यायाधीश सुदर्शन रेड्डी ने विशद ज्ञान और तार्किकता को ताज़ा जानकारियों, सूचनाओं और अध्ययन से सम्पृक्त भी किया. अलबत्ता भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता रविशंकर प्रसाद तथा अरुण जेटली ने फैसले को वामपंथी विचारधारा से प्रभावित करार दिया, संविधान की आयतों के अनुरूप नहीं.
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