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शुद्ध हिंदी ने हिंदुस्तानी डुबोई, अंग्रेज़ी तार दी

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भारत और पाकिस्तान को सांप्रदायिक रूप से शुद्ध बनाने के फेर में संस्कृत और अरबी के पागल दीवानों ने ख़ुद अपना ही गृहनाश कर लिया. लोकप्रिय देसी शब्दों को हटा शुद्ध हिन्दी और ख़ालिस उर्दू जैसी बनावटी भाषाएं पैदा कर डाली. अफ़सोस तो मुझे उन हिन्दीवादियों की हरकतों पर होता है जो हर साल इस बनावटी हिन्दी के लोकप्रिय न हो पाने का बाक़ायदा शोक मनाते हैं.

शुद्ध हिंदी ने हिंदुस्तानी डुबोई, अंग्रेज़ी तार दी

राजीव कुमार मनोचा

अतिवादी प्रयास आत्मनाशी होते हैं बल्कि सयाने तो यहां तक कहते आए कि जो कुछ भी सायास होता है, कोशिश की अति से जन्मता है, वह अंततः नाकाम सिद्ध होता है. क्योंकि सहज धारा से बनी मज़बूत बुनियादों का अभाव उसे खड़ा रख पाने में असमर्थ रहता है. ‘खड़ी बोली’, ‘हिंदवी’, ‘हिंदुस्तानी’ वग़ैरह आप जो भी नाम उसे दें, जब वह हिन्दुस्तानी से हिन्दी और तदोपरांत शुद्ध हिन्दी के पथ पर चली, यह सयानी सोच बिल्कुल सही साबित हुई.

17 वीं शताब्दी का अंत आते-आते मुग़लिया दिल्ली के दरबारी माहौल के गिर्द एक नई ज़बान पनपने लगी, यह दिल्ली के आस-पास बोली जाने वाली खड़ी बोली के साथ फ़ारसी अल्फ़ाज़ की मिलावट से जन्मी थी. ज्ञातव्य हो कि फ़ारसी उस समय दरबारी ज़बान भी थी और भारत की राजभाषा अर्थात (official language) भी.

शायद 1699 में पहली बार इस नई ज़बान में कुछ ऐसा लिखा गया जिसे हम अदब या साहित्य कह सकते हैं. खड़ी बोली की व्याकरण (grammar) पर आधारित इस नई भाषा में फ़ारसी के अलावा देसी, तुर्की और अरबी अल्फ़ाज़ भी थे किन्तु फ़ारसी की तुलना में बहुत कम. यह हिंदवी थी.

कालांतर में इस भाषा को ‘रेख़्ता’ और ‘उर्दू’ नाम दिए गए और इसके बोलचाल के रूप को हिन्दुस्तानी कहा गया. फ़र्क़ इनमें यह था कि हिन्दुस्तानी में खड़ी बोली के देसी शब्दों के साथ कॉमन से फ़ारसी अल्फ़ाज़ का प्रयोग होता तथा उर्दू में खड़ी बोली के साथ साहित्यिक फ़ारसी और कुछ तुर्की, अरबी शब्द भी मिलाए जाते.

मोटा सा निचोड़ यह कि लिखी जाने वाली मानक भाषा ‘उर्दू’ भले थोड़ी बनावट का रंग ओढ़े थी, पर बोली जाने वाली ज़बान हिन्दुस्तानी सायास नहीं जन्मी बल्कि सहज रूप से शक्ल अख़्तियार करती चली गई थी. आर्य समाज प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी को ‘हिन्दी’ कहा क्योंकि 1875 में इसका केवल हिन्दुस्तानी रूप ही शक्ल पा सका था यह. आज की शुद्ध हिंदी तो तब कल्पनातीत थी.

लेकिन इस साम्प्रदायिकता के मारे देश में ऐसी कौन-सी चीज़ है जो रिलिजन की मार से बची हो. अगर मुसलमान देसी शब्दों और सामान्य फ़ारसी के मेल से बनी इस सीधी सादी हिन्दुस्तानी ज़बान में साहित्यिक फ़ारसी, अरबी और तुर्की मिला कर उर्दू बना सकते हैं तो हम क्यों पीछे रहें ? हम संस्कृत मिला देते हैं ! सो लग गए हम भी इसी महाकर्म की राह पर.

बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्यकारों, लेखकों, कवियों तथा पत्रकारों ने धीरे-धीरे और आज़ादी के बाद द्रुत गति से हिन्दुस्तानी या सामान्य हिन्दी को मिटाकर एक नई हिन्दी को जन्म दिया, इसी को भाषाविज्ञानी आधुनिक हिन्दी और हम सब ‘शुद्ध हिन्दी’ कहते हैं.

मज़े की बात यह है कि यह सायास जन्मी भाषा केवल किताबी पन्नों अथवा भाषाज्ञानियों की दुनिया तक ही सिमटी हुई है और वहां से भी नई पीढ़ी धीरे-धीरे इसका उठाला करने में लगी है. संस्कृत शब्दों से लदी यह अति क्लिष्ट भाषा अंततः उसी जाल में फंसती जा रही है, जिसमें पाणिनि की संस्कारगत भाषा संस्कृत कभी ख़ुद फंस के रह गई थी.

केवल लिखी जाती है संस्कृत, कोई इसे नहीं बोलता, बस बड़े-बड़े नामचीन वक्ताओं व स्वनामधन्य शुद्ध हिंदीप्रेमियों के सिवा. ठीक संस्कृत और ब्राह्मण वाला रिश्ता. बोल भी लें आप तो सामने वाला प्रभावित नहीं होता, परिहास का विषय ज़रूर बना देता है आपको क्योंकि आम आदमी की ज़बान है ही नहीं यह.

यही हाल पाकिस्तान में उर्दू का है. वहां के सिंधी, पंजाबी मुसलमान उर्दू पढ़ते तो ज़रूर हैं पर उसे बोलते देसी पंजाबी अन्दाज़ में हैं. कभी उनके पंजाबीनिष्ठ उच्चारण पे ध्यान दीजिए, समझ आ जाएगा. पंजाब के लाहौर में यदि आप उर्दू को लखनऊ या दिल्ली की नफ़ासत के साथ बोलें तो आपको मुहाजिर की औलाद कहते हैं, साथ ही पंजाबी अंदाज़ में आपकी पैरोडी भी कर डालते हैं. आप यू-ट्यूब पर ख़ालिस उर्दू बोलने वालों की पाक पैरोडियां ख़ुद सुन सकते हैं.

भारत में इस शुद्ध भाषा और इसके दुरूह से पारिभाषिक शब्दों ने सहज सरल हिन्दुस्तानी का भट्ठा तो बिठाया ही, अंग्रेज़ी को भी उभारने में सहायता की है. आप ज़रा कोशिशें देखिए और उनके अंजाम भी परखिए. उदाहरणार्थ हिन्दुस्तानी में अच्छा भला कहा जाता, ‘वह जहाज़ के आने का इन्तज़ार कर रहा है.’ हमें अरबी-फ़ारसी का जहाज़ और इन्तज़ार खटक गया.

हमने बनाया, वह वायुयान के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है. यह बात और है कि हम नहीं केवल एयरपोर्ट के एनाउंसर इस ज़बान को बोले. हम बोले, ‘वह प्लेन के आने का वेट कर रहा है.’ हमने अरबी फ़ारसी के जहाज़ और इन्तज़ार हटाए पर वायुयान, आगमन और प्रतीक्षा जैसे दुरूह शब्द नहीं बोले. हमें अंग्रेज़ी का ‘प्लेन’ और ‘वेट’ अधिक आसान प्रतीत हुए.

इसी प्रकार हम वकील की जगह ‘अधिवक्ता’ ले आए, पर ‘एडवोकेट’ चल निकला, अधिवक्ता घर पे ही रह गया. ‘अमीर’ को ‘सम्पन्न’ से बदला पर किताब में ही रह गया, ज़बान पर अंग्रेज़ी का ‘रिच’ आ गया. हां अरबी का ग़रीब भारत की ग़रीबी की तरह अपनी जगह बना रहा. हम सीधे सादे ‘तकनीक’ की जगह ‘प्रौद्योगिकी’ उठा लाए, नहीं चला, ‘टेक्नोलॉजी’ चल निकला. ‘इदारे’ के स्थान पर ‘संस्थान’ लाए, वह पुस्तक में घुस गया और बाहर ‘इंस्टीट्यूट’ आ गया.

हमने देसी शब्द ‘रात की शिफ़्ट’ को संस्कृत की ‘रात्रि पारी’ से बदला, नहीं चला, ‘नाइट शिफ़्ट’ चल गया. ‘बिजलीवाले’ की जगह ‘विद्युतकर्मी’ ने नहीं ली, ‘इलेक्ट्रिशियन’ अनपढ़ भी बोलने लगे. अच्छे ख़ासे पॉपुलर शब्द तबादले में ‘स्थानांतरण’ की घुसपैठ कर दी, पढ़े लिखे तक नहीं बोले, हां अनपढ़ भी ‘ट्रान्सफ़र’ बोलने लगे, देसी शब्द ‘तबादला’ बेख़ता मारा गया. ‘कमरे’ और ‘कुर्सी’ की जगह ‘कक्ष’ और ‘पीठिका’ रख दी, लोग अंग्रेज़ी के ‘रूम’ में जा कर ‘चेयर’ पे बैठ गए.

देसी शब्दों की जाने कितनी हत्याएं दर्ज की हमने. लगभग हर मुआमले में देसी हट कर अंग्रेज़ी आ गया, पर कुछ अपवादों को छोड़ शुद्ध हिंदी या संस्कृत का शब्द उसका सामान्य विकल्प न बन सका. ‘दलाल’ की जगह ‘अभिकर्ता’ नहीं ‘डीलर’ या ‘एजेन्ट’ ले गया. ‘लौहपथ गामिनी’ पटरी से हिली तक नहीं, ‘ट्रेन’ चलती रही. ‘दूरभाष’, ‘दूरदर्शन’, ‘आकाशवाणी’ बुरी तरह पिटे, ‘फ़ोन’, ‘टीवी’, ‘रेडियो’ सदाबहार रहे.

‘द्रुतगामी मार्ग’ कॉमेडियन भी नहीं बोले, आम आदमी ‘एक्सप्रेस-वे’ बोलना सीख गया. ‘सर्वश्रेष्ठ’ शब्द साहित्यिक विलास रहा, ‘बेस्ट’ सामान्य भाषा बन गया, बेचारा ‘बेहतरीन’ जैसे तैसे टिका हुआ है. ‘स्थानीय’ आप लिख कर ख़ुश हो गए, अंग्रेज़ी शब्द ‘लोकल’ जनमानस की जीभ पर जा चढ़ा. ‘स्कूल’, ‘सर्टिफ़िकेट’, ‘कम्प्लीशन’, ‘इंटरवल’, ‘पोस्ट’, ‘फ़ीस’, ‘ट्रैफ़िक’, ‘कोर्ट’ ये सब आज अनपढ़ तक बोलते हैं, जबकि पढ़े-लिखे तक इनके शुद्ध हिंदी रूप ‘विद्यालय’, ‘प्रमाण पत्र’, ‘पूर्णत्व’, ‘मध्यांतर’, ‘पद’, ‘शुल्क’, ‘यातायात’ और ‘न्यायालय’ से बच कर गुज़र लेते हैं.

ऐसी एक हज़ार मिसालें दे सकता हूं, जब हमने देसी अल्फ़ाज़ की छुट्टी कर हिंदुस्तानी या सहज हिन्दी को मारा मगर शुद्ध हिन्दी का बिगुल न बजा सके. उसको दुरूह बनाते गए, और इस संस्कृत विलास में आसान और आमफ़हम अंग्रेज़ी शब्दावली बाज़ी मारती गई. यही हाल पाकिस्तान में उर्दू को अरबी से लादने वालों ने किया. देसी अल्फ़ाज़ बेमौत मार डाले, अरबी से गढ़ी इस्लामिक टच वाली भारी-सी शब्दावली किताबों की ज़ीनत बन रह गई.

कितने आम मुसलमान हैं भारत और पाकिस्तान के जो ‘लुग़ात’, ‘तैयारा’, ‘मुन्सलिक’, ‘बुरहान’, ‘इस्तिलाही’ ‘अल्फ़ाज़’, ‘इल्मे नफ़सियात’, ‘मनशियात’ जैसे क्लिष्ट अरबी terms का इस्तेमाल करते हैं ? आम आदमी वहां भी ज़्यादातर अंग्रेज़ी terms ही इस्तेमाल करता है.

भारत और पाकिस्तान को सांप्रदायिक रूप से शुद्ध बनाने के फेर में संस्कृत और अरबी के पागल दीवानों ने ख़ुद अपना ही गृहनाश कर लिया. लोकप्रिय देसी शब्दों को हटा शुद्ध हिन्दी और ख़ालिस उर्दू जैसी बनावटी भाषाएं पैदा कर डाली.

मुसलमान तो एक क़दम और आगे निकले. उन्होंने फ़ारसी को भी जहां तक हो सका, बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि अरबी का इस्लाम से सीधा सम्बन्ध जो है. ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ की जगह ‘अल्लाह हाफ़िज़’, ‘रमज़ान’ की जगह ‘रमादान’, ‘जुहा’ की जगह ‘अदहा’, ‘बन्दगी’ या ‘आदाब’ की जगह सलाम वआले क़ुम ही नहीं आया, फ़ारसी की हर शोबे में सफ़ाई की गई. ख़ैर, इस पर कभी अलग से लिखेंगे,अभी मुख्य फ़ोकस शुद्ध हिन्दी और हिन्दुस्तानी पर ही रखा जाए.

अफ़सोस तो मुझे उन हिन्दीवादियों की हरकतों पर होता है जो हर साल इस बनावटी हिन्दी के लोकप्रिय न हो पाने का बाक़ायदा शोक मनाते हैं और इस बात पर ध्यान नहीं देते कि आम आदमी की मेहरबानी और राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच होने की वजह से हिन्दी आज भी सबसे आगे है. यह अफ़सोस और भी बढ़ जाता है जब इस कृत्रिम भाषा को प्रचारित करने में अरबों सरकारी रुपये उड़ा दिये जाते हैं जबकि प्रादेशिक भाषाओं की गिरती हालत पर कोई ज़बानी जमाख़र्च तक नहीं करता.

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