अक्सर लोग कहते व लिखते हैं कि व्हाट्सएप्प, ट्विटर यूनिवर्सिटी ने भारतीयों को झूठा, गपोड़ी और फ़र्ज़ी ज्ञान वान बना दिया !
मुझे इस कथन से ऐतराज़ है.
दरअसल हम भारतीय आदिकाल से ही यूरोपियन, अमरीकन, मध्य एशियाइयों, अफ्रीकियों और ऑस्ट्रलियाईयों के मुकाबले बहुत ज़्यादा झूठे, मक्कार, आला दरजे के गपोड़ी और फ़र्ज़ी ज्ञान पर आसानी से विश्वास कर लेने वाले मूर्ख हैं. हमने अपनी मूर्खता को छिपाने के लिए अपने इस टुच्चे ज्ञान को धर्म संस्कृति और आस्था का नाम दे, उस पर तर्कशीलता को निरस्त कर देने की टुच्ची हरकत की है. यही एक मात्र हमारी अक्लमंदी है. सत्य और तर्क को बाधित रखने की इस कला पर इतराते हुए हम भारतीय विश्वगुरु होने के शेखचिल्ली सपने आदिकाल से देखते रहते हैं.
यूरोप में एक आध ही फ़र्ज़ी धार्मिक चमत्कार आज माना जाता हो. क्रिश्चियनिटी के फेथ जीसस खुदा के बेटे हैं पर तक यूरोप आज बंटा हुया है. मध्य एशिया की संस्कृति और धार्मिक विचारों में यूरोप के मुकाबले कुछ और अधिक फ़र्ज़ी चमत्कार मिल जाएंगे ! मुहम्मद का चांद को टुकड़े कर देना और जिब्राइल का अब्राहम के बेटे को को दुम्बे में बदल देना जैसे चमत्कारों को मध्य एशियाई लोग और उनके धर्म के दुनिया में बसे अनुयायी आज भी शिद्दत से मानते दिखेंगे. अमरीकी रेड इंडियन, ऑस्ट्रेलियाई मूल निवासी, अफ्रीका के कबीले तक अपनी मूर्खताओं से बाहर निकल आये हैं। बस भारतीय उपमहाद्वीप के लोग इन फ़र्ज़ी कहानियों को रचने, विश्वास करने, और ज़्यादा लंपट तरीके से glorified करने के आज अभ्यस्थ हैं.
अब बताइये क्या ये सब व्हाट्सएप्प और ट्विटर विश्विद्यालय का ज्ञान था ? जब हमारे लंपट पूर्वज मनु ने ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न वर्णाश्रम थ्योरी लिखी … क्या व्हाट्सएप्प था ? जब बालक के सिर पर शिव ने हाथी का सिर जोड़ शल्य क्रिया कर दी तो ट्विटर काम करता था क्या ?
अब दौने में संग्रहीत मात्र पुरुष वीर्य से द्रोणाचार्य उत्पन्न होने का ज्ञान लिखा गया तब फेसबुक पोस्ट अस्तित्व में थे क्या ? हनुमान, सुग्रीव, जामवंत, समस्त वानर सेना, जटायु, मारीच की शक्तियां और चेहरे मोहरे, अहिल्या का पत्थर हो जाना और पुनः स्त्री हो जाना क्या सोशल साइट्स के फ़र्ज़ी लेखक लिखे हैं ?
शिव जटाओं में गंगा रोक लेना, पांडव व कौरवों की जन्म थ्योरी, जरासंध का जन्म व गुण आज के लेखक लिख रहे है क्या ? कितने उदाहरण और दूं अपने पूर्वजों के ढपोरशंख लेखन के ?
मैं ये नहीं कहता कि अन्य देशों और संस्कृतियों में ऐसा नहीं हुआ. लेकिन वे इतने आला दर्जे के गपोड़ी नहीं थे जैसे हमारे संस्कृति के सृजक हुए हैं. वर्तमान में वे अधिकतर अपनी मूर्खताओं और तर्कहीनता से बाहर निकल भी गए. आज वे आस्था पर तर्क को प्रधानता देने वाले बहुसंख्यक समाज के रूप में जाने जाते हैं और हम तर्क पर ढपोरशंखी आस्था को वरीयता देने वाले बहुसंख्यक समाज के रूप में चिन्हित हैं.
हमारे दोगलेपन की पराकाष्ठा इतनी ज्यादा है कि पुनर्जागरण काल के तर्कवादी ज्योतिबा फूले और पेरियार के विचारों को नमन करने के तुरंत बाद फर्ज़ी डिग्री का आरोपी प्रधानमंत्री सर्जन चिकित्सकों के सेमिनार में बालक के सिर की जगह हाथी के सिर को हेड ट्रांसप्लांट सर्जरी का प्रथम उदाहरण बताता है और बुद्धिजीवी डॉक्टर तालियां पीटते हैं.
मोदी जी के इस उवाच में गप्पों पर यकीन रखने वाला आम मूरख भारतीय ही प्रतिबिम्बित होता है. तो जनाब हम फ़र्ज़ी कहानियां कहने वालों के अंधभक्त वंशज अपनी संस्कृति के शुरआती काल से ही हैं. अपवाद हो सकते हैं लेकिन वे नगण्य हैं.
व्हाट्सएप्प, ट्विटर, फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स के फ़र्ज़ी ज्ञान ने गप्पों के इस क्षेत्र में कुछ नया या क्रांतिकारी नहीं किया है बल्कि हमारी जेनेटिक गपोड़ी मूल प्रवृत्ति को कुछ सहलाया मात्र ही है और इसमें हिन्दू और मुसलमान समान स्थिति में हैं.
- फरीदी अल हसन तनवीर
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