हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता
भारत में जब कोई युवा किसी प्रतियोगी परीक्षा को पास करता है, तब उसकी सफलता की कहानी बताते समय यह बताया जाता है कि इसके पिताजी रिक्शा चलाते थे या होटल में प्लेट साफ करते थे और देखी आज उनका बेटा आईएएस बन गया है. इस पूरे विवरण में जो विचार है, वह यह है कि रिक्शा चलाना या होटल में प्लेट साफ करना नीचा और छोटा काम है और आईएएस ऊंचा होता है.
असल में भारत में कामों को लेकर व्यक्ति की इज्जत और बेइज्जती निर्धारित होती है. प्लेट धोने वाले और रिक्शा चलाने वाले की इज्जत नहीं होगी, आईएएस की इज्जत होगी इसलिए भारत में शरीर से काम ‘श्रम’ करना हमेशा नीच कर्म और प्रशासन, शासन, धनवान बनना उच्च कार्य माना गया है. भारत के छात्र जो विदेशों में रहकर पढ़ते हैं, वह वहां होटल में पार्ट टाइम वेटर का काम करते हैं. अपनी पढ़ाई का खर्चा निकालते हैं.
अमेरिका में रहने वाले मेरे परिवार के एक सदस्य ने मुझे बताया कि अमेरिका में हमारे रेस्टोरेंट में जब कोई अमेरिकी आता था और हम उनसे पूछते थे आज आप कैसे हैं तो वह बहुत शालीनता से जवाब देता था, हाथ मिलाता था लेकिन जब अमेरिका में रहने वाला कोई भारतीय आता था तो वह हमारे सवाल का जवाब देने की वजाय सीधा मेन्यू पढ़ने लगता था और ऑर्डर देने लगता था. उसे हमसे बात करने में अपनी तौहीन लगती थी.
भारत में बहुत सारे बच्चे इसलिए भी आत्महत्या करते हैं क्योंकि हमने उन्हें सिखाया है कि यदि तुम डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस नहीं बने तो तुम्हारी जिंदगी बेकार है. अब समाज में ना तुम्हारी इज्जत होगी, ना तुम्हें पैसा मिलेगा. व्यक्ति की इज्जत उसके इंसान होने के कारण करने की बजाए हम इज्जत उसके पद या उसके पैसे की करते हैं.
समाज में हर काम जरूरी है
जितनी जरूरत आपको आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर या कारपोरेट में काम करने वाले या बैंकर अथवा फिनेंशियल एक्सपर्ट की है, उतनी ही जरूरत कार मैकेनिक, प्लंबर, स्वीपर, कॉबलर, टैक्सी ड्राइवर, किसान और मजदूर की भी है. लेकिन आपके दिमाग में परंपरागत ब्राह्मणवादी संस्कार भर दिया गया है, जिसके मुताबिक मानसिक श्रम श्रेष्ठ है और शारीरिक श्रम करने वाले नीच जात के शूद्र होते हैं.
हम मेहनतकश को जीवन भर अपमानित करते हैं और उसकी जिंदगी को सजा बना देते हैं. वह जीता तो है लेकिन हमेशा अपमानित, खुद को छोटा समझते हुए हीन भावना में, इसलिए हमें कभी इस बात को बताते समय कि इस आईएएस के पिता रिक्शा चलाते हैं, यह नहीं जताना चाहिए कि देखो पिताजी कितने छोटे हैं और बेटा कितना बड़ा हो गया क्योंकि किसी भी लिहाज से रिक्शा चलाना छोटा काम और कुर्सी पर बैठकर काम करना ऊंचा काम नहीं हो सकता.
भारतीय इतिहास में वेदों या पुराणों में राजाओं की कहानियां हैं. इन राजाओं को ब्राह्मणों ने भगवान बताया. किसानों, मजदूरों, कारीगरों की कहानियों को बाहर रखा गया. आज़ादी से पहले बड़ी जातियों, साहूकारों, योद्धा जातियों के मजे थे. काम करने वालों को नीच जातियां घोषित कर सामजिक, आर्थिक और राजनैतिक सत्ता बड़ी जातियों, साहूकारों, योद्धा जातियों और ब्राह्मणों ने अपने हाथ में रखी हुई थी.
समानता के बजाय गैर-बराबरी
आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब भारत को एक राष्ट्र के रूप में बनाने का सोचा गया तब सभी भारतीय नागरिकों की समानता का विचार सामने आया. आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति का मकसद इसी बराबरी को हासिल करना था लेकिन हमेशा से सत्ता में रहे वर्ग इस बराबरी से घबराए हुए थे. उन्हें लग रहा था कि बराबरी आ गई तो उनकी ऐश की जिंदगी खतम हो जायेगी इसलिए इन वर्गों ने बड़ी चालाकी से भारत की राजनीति में साम्प्रदायिक मुद्दे खड़े किये.
इन्होने कहा कि भारत की राजनीति का मकसद यह नहीं है कि सभी नागरिक सामान हों बल्कि भारत की राजनीति का मकसद यह होना चाहिये कि राम मंदिर बनेगा या नहीं ? इन लोगों ने कहा कि भारत की राजनीति का मकसद हिंदु गौरव की पुनर्स्थापना होगी.
इन चालाक लोगों ने भारतीय मेहनतकश जातियों, किसानों, मजदूरों और औरतों की बराबरी की राजनीति को नष्ट करने के लिए मंदिर, दंगे, हिंदू स्वाभिमान आदि जैसे गैर जरूरी, गैर-राजनैतिक काल्पनिक मुद्दों को भारतीय राजनीति का मुख्य मुद्दा बना दिया.
इन ताकतों ने भारतीय चिंतन को खींच कर सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दिया. भारत की जिस आज़ादी का सपना आज़ाद होने के बाद सारी दुनिया में समानता के लिए काम करने का था, वह भारतीय राजनीति अपने ही देश के अल्पसंख्यकों, दलित जातियों और औरतों की समानता के विरुद्ध हो गयी. आज का दौर भारतीय समाज के पतन की चरम अवस्था है.
भारत के वैज्ञानिक, आधुनिक चिंतन और सारी वैचारिक प्रगति पर इन कूपमंडूक और धूर्त लोगों ने बुरी तरह हमला किया है. इसी चालाकी के दम पर अपराधी लोग आज भारत के भाग्य विधाता बने हुए हैं. जिन अपराधियों को जेलों में होना चाहिये था, वे आज सत्ता में बैठ कर देश के लिए काम करने वाले सामजिक कार्यकर्ताओं की सूचियां बनवा रहे हैं ताकि उन्हें जेलों में डाल सकें. यह निराशा का नहीं इसे बदलने की चुनौती स्वीकारने का समय है.
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