शादाब सलीम, अधिवक्ता, इंदौर
‘हिन्दू जाग गया है’ यह जुमला नहीं है बल्कि यह बड़ी सार्थक बात है. किसी ज़माने में हम ऊपर-ऊपर कह देते थे कि गंगा जमना तहज़ीब और अंदर से बिल्कुल काले थे.
श्री मोदी को प्रचंड बहुमत मिला है और मुस्लिम वोट अर्थहीन हुए है. जो दल मुसलमानों के नज़दीक गया, उसे खतरनाक तरीक़े से हंकाला गया है.
समीक्षा चल रही है. हार के कारण तलाशे जा रहे है. एक सबसे बड़ा कारण है, जिसे सब मिलकर छिपा रहे हैं, वह कारण है-कट्टरता.
हिन्दू को जिस रूप में हम देख रहे हैं, वह सदा से ऐसा कभी नहीं था. इस तरह के लोग थे तो सही, पर उनकी तादाद उंगलियों पर गिन लेने जितनी थी. अगर हिन्दू आज जैसा है ऐसा देश के संविधान बनते समय होता तो किसी की हिम्मत नहीं थी जो आप इस तरह का संविधान गढ़ लेता. आप देखिए कैसे कट्टर-से-कट्टर लोगों को आत्मसात किया जा रहा है. पहले योगी, फिर साध्वी, आगे और कोई भी है. जो ज़रा भी लिबरल था, उसे बाहर किया जा रहा है – अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथसिंह.
हिन्दू में बदलाव आया है. यह लोग हिन्दू के जागने का अर्थ किस बात से लगा रहे ? हिन्दू के जागने का अर्थ है – हिन्दू का कट्टर हो जाना.
एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो इस देश के तमाम धर्मनिरपेक्ष लोगों को मथ कर रख देगा. आख़िर हिन्दू इस रूप में आया कैसे ?
इसका एक ही जवाब है – मुसलमानो की कट्टरता. एक अरसे से मुसलमान अपनी कट्टरता को छिपाए-छिपाए बैठे हैं. यह सियासत में तो धर्मनिरपेक्षता चाह रहे थे और अपने सामाजिक जीवन में खतरनाक तरीक़े से कट्टर हो रहे थे.
इन लोगों ने किसी मुस्लिम औरत के माथे पर बिंदी लगा लेने और मांग में सिंदूर रख लेने तक पर सवाल पैदा किये है. दीवाली के दिए और होली के रंग तक को हराम करार दिया है. बीते पचास सालों में इन्होंने जी भर कर कट्टरता फैलाई है. एक तरफ यह सेकुलर गिरोह को राजनीति में वोट करते रहे और दूसरी तरफ यह लोग अपने आर्थिक सामाजिक जीवन में कट्टरता को फ़रोग़ देते रहे.
यह इतने भोले थे कि इन्हें यह भी ख़बर नहीं थी कि हमारी इस कट्टरता से कौन फ़ायदा उठा रहा है और हमारी इस कट्टरता से हमारा कितना नुकसान है ?
यह हर कट्टरता को अपना धर्म बताते रहे और उस कट्टरता पर अमल करना अपना संवैधानिक अधिकार बताते रहे. इन्होंने रत्ती भर यह प्रयास नहीं किया कि हम गंगा-जमना तहज़ीब को बराकर रखे, उसमें अपना योगदान दें. अगर इनके समुदाय का कोई आदमी गलती से किसी मंदिर में घंटी बजाता मिल जाए तो कोहराम हो जाता.
इनकी यह सारी सामाजिक और धार्मिक कट्टरता हिन्दुओं की राजनीतिक कट्टरता में तब्दील हो गयी. फिर आरएसएस ने अपना पत्ता फेंका और हिन्दुओं के घर-घर मुसलमानों की कट्टरता को भेजने का काम किया. ख़ासकर इंटरनेट क्रांति ने उनका यह काम आसान किया. इससे हुआ यह कि दूर दराज़ के देहात के रहने वाले हिन्दुओं तक यह बातें चली गयी और इन बातों को एक का चार करके पेश किया गया.
सबसे पहले सवर्ण वर्ग मुसलमानों से दूर हुआ. जो ब्राह्मण इनके लिए आवाज़ उठाया करता था, गांधीवाद पर ईमान रखता था, वह मस्ज़िद के सामने एहतराम से झुका करता था, उसे इनसे नफ़रत होने लगी और वह सीधे सावरकर और हेडगेवार की गोद में जाकर बैठने लगा. एक तरफ वह राष्ट्रवाद और दूसरी तरफ मुस्लिम द्वेष पर बल देने लगा. बाबरी मस्जिद के मुद्दे ने लगभग अस्सी फ़ीसदी सवर्ण को मुस्लिम से बिल्कुल दूर कर दिया और गुजरात दंगे ने इस आंकड़े को नब्बे फ़ीसदी कर दिया.
जब बाबरी को लेकर बातें चल रही थी, उस वक़्त भी मुसलमानों ने कोई ढंग का फैसला नहीं लिया और लगभग सारे सवर्ण को अपना दुश्मन कर लिया. एक मस्ज़िद इन्हें हमेशा का ज़ख्म दे गयी. हिन्दुओं के मन में यह धारणा को जन्म दिया गया कि जिन हिन्दुओं ने इन्हें समानता के साथ रहने के अधिकार दिए और इनकी तहज़ीब को अपने देश में जगह दी, उन ही हिन्दुओं की आस्थाओं के लिए इन्होंने एक मस्जिद तक नहीं छोड़ी. यह राग अलाप करते रहे कि ‘हमने एक मस्ज़िद छोड़ी तो यह सारी मस्जिदें ले लेंगे.’ और यहां कामयाब हुआ संघ. लगभग सारे सवर्ण वह अपने साथ ले गया, जहां उसने इन्हें सांप्रदायिकता की भट्टी में तपा कर नफ़रत का लोहा बनाया.
मुसलमानों के साथ बचा दलित और पिछड़ा. मुसलमानों ने इनके साथ भी कौड़ी भर का न्याय नहीं किया. जो दलित मुसलमान बने, उन्हें अशराफ मुसलमानों ने किस हद दर्जे का अपमानित किया है. सैय्यदवाद और पठानी अहंकार इनके सर पर था. इन्होंने अपने धर्म में आए दलितों के साथ कोई रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं किए. जब हिन्दू दलित ने मुसलमानों की इन जातिगत भेदभाव को देखा, तो वह भी इनसे चिढ़ने लगा. वह दंगों में मुसलमानों के खिलाफ जमकर अभिव्यक्ति देता रहा. धीरे-धीरे वह कट्टर हुए सवर्णों के साथ शामिल होंगे लगा और अनन्तः वह लगभग सत्तर फ़ीसदी उनके साथ चला गया.
अब मुसलमानों के साथ रह गए थोड़े बहुत सेकुलर और नास्तिक लोग, जिनमें दलित, ब्राह्मण, क्षत्रिय, सिख, ईसाई सभी शामिल हैं. अगर अब यह लोग अपनी सामाजिक और धार्मिक कट्टरता पर अड़े रहते हैं और विचारों की विविधता पर पूरी तरह यकीन नहीं रखते, एक स्कर्ट और बुरखा पहनने वाली औरत को समान नज़र से नहीं देखते तो बहुत जल्द यह लोग भी इनसे टूट जाएंगे और यह पूरी तरह राजनीतिक सामाजिक और धार्मिक अछूत बना दिए जाएंगे.
मेरा यह लेख नीम की पत्तियों की तरह है. आपको इसे आत्मसात करना ही होगा. और हां, बुरी अभिव्यक्ति बिल्कुल न दीजिए और इस्लाम की तालीम भी बिल्कुल नहीं दीजिए. मेरे पास इस्लाम की बहुत तालीम है और इतनी है कि मैं टोपी लगाकर मज़हबी तकरीरें करने लग जाऊंं तो आप हाथ चूमेंगे.
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