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उदार गांधी की नज़र में सावरकर

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उदार गांधी की नज़र में सावरकर

Kanak Tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

विनायक दामोदर सावरकर ने साफ कहा था कि हिन्दू वह है जो सिंधु नदी से लेकर सिंधु अर्थात समुद्र तक फैले भू-भाग को अपनी पितृभूमि मानता है और उनके रक्त का वंशज है. जो उस जाति या समुदाय की भाषा संस्कृत का उत्तराधिकारी है और अपनी धरती को पुण्य भूमि समझता है, जहां उसके पूर्वज, दार्शनिक, विचारक, ऋषि और गुरु पैदा हुए हैं. हिन्दुत्व के प्रमुख लक्षण हैं एक जाति और एक संस्कृति.

गोलवलकर ने तो अपनी पुस्तक ‘वीः अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में यहां तक कहा कि हमारा एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के जीवन को उच्चता और उज्जवलता के शिखर पर बैठाना है. वे ही राष्ट्रवादी हैं, देशभक्त हैं जो हिन्दू जाति को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से अपनी गतिविधियों में संलग्न हैं, बाकी सब लोग दगाबाज़ और राष्ट्र के शत्रु हैं.

इस दृष्टि से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा स्वीकार करनी होगी, उन्हें हिन्दू धर्म के प्रति सश्रद्ध होना होगा. उन्हें और किसी आदर्श को नहीं अपनाना है लेकिन वे इस देश में हिन्दू राष्ट्र के मातहत बिना कोई मांग या सुविधा के साथ रह सकते हैं. उन्हें किसी तरह की प्राथमिकता यहां तक कि नागरिक के भी अधिकार नहीं मिलेंगे. आश्चर्यजनक रूप से एक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने भी हिन्दुत्व की परिभाषा स्थिर करने में इस पूरी पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं किया, जिसमें यहां तक कहा गया था कि पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में स्थापित होगा.

विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने का मौजूदा केन्द्र सरकार का इरादा बहुमत के कारण तो कभी भी लागू हो सकता है, बशर्ते उसका वोट बैंक बढ़े, जो शिवसेना के कारण महाराष्ट्र में चुनाव के वक्त नहीं हो पाया. सावरकर ने ही हिन्दू धर्म की अपनी ढपली, अपना राग जैसे ‘हिंदुत्व‘ शब्द का आविष्कार किया. युवावस्था में ही मिली तकलीफदेह जेल यातनाओं के भी कारण बर्बर गोरी हुकूमत को लगातार माफीनामे लिखते लिखते कैद से बरी तो हो गए लेकिन आज़ादी के कई बरस बाद तक बर्तानवी हुकूमत को दिए गए लिखित वायदे के कारण उसके खिलाफ मुंह तक नहीं खोला.

ऐसा करते तो माफीनामे का कलंक धुलता तो नहीं लेकिन धुंधला हो सकता था. यही आरोप भी उन पर लगाया जाता है. विवादों की पृष्ठभूमि से अलग हटकर राष्ट्रपिता की सयानी गरिमामय बुद्धि की नज़र से सावरकर की भूमिका और उनके विचारों के असर को तटस्थ भाषा में समझना मुनासिब होगा. गांधी की हत्या को लेकर सावरकर पर लगा आरोप सबूतों के अभाव में तकनीकी साक्ष्य संहिता के कारण भले ही सिद्ध नहीं हो पाया हो.

श्यामजीकृष्ण वर्मा और सावरकर सहित कई हिंसा समर्थक भारतीयों से एक सभा में लन्दन में हिंदुओं के आराध्य राम के जीवन के मूल संदेश को खोजने लम्बी बहस हुई. फकत राक्षसों की हिंसा तक सीमित नहीं कर उसके बनिस्बत लोकतंत्र के आदर्श आयामों के आधार पर रामराज्य स्थापित करने की बात गांधी ने सावरकर की सम्मान सभा में कही. सभा की अध्यक्षता करने वहां और कोई तैयार नहीं हुआ था. अंगरेज हुक्कामों से भी बहस मुबाहिसे में गांधी को नाउम्मीदी मिली थी. खिन्न और निराश गांधी ने अंतर में अकुलाते कड़वे पराजित अवसाद को बुद्धिजीविता की रचनाशीलता में मुखर किया.

दक्षिण अफ्रीका लौटते 13 नवंबर से 22 नवंबर, 1909 तक ‘एस. एस. किल्डोनन कैसल’ नामक पानी के जहाज पर गुजराती में ‘हिन्द स्वराज्य’ बीजग्रंथ बारी-बारी से दोनों हाथों से लिख डाला. भारत सहित पूरी दुनिया के लिए राजनीतिक फलसफा के फलक को वह पुस्तिका नायाब, मौलिक, अनोखी और विचारोत्तेजक देन हुई.

सावरकर द्वारा आश्वस्त कर दिए जाने पर लगभग हमउम्र युवा मदनलाल धींगरा ने अंगरेज अधिकारी सर कर्जन वाइली की लंदन में सरेआम हत्या कर दी. सावरकर पर कुछ और हिंसक कारनामों के लिए फ्रांस से जुगाड़कर हथियार भेजने का आरोप भी लगा था. इस पर खुद गांधी का लिखा विवरण पढ़ना बेहतर है –

वे काफी समय तक लन्दन में रहे. यहां उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक आन्दोलन चलाया. वह एक वक्त में ऐसी हालत में पहुंच गया कि सावरकर पेरिस से भारत को बन्दूकें आदि भेजने लग गए थे. पुलिस की निगरानी से भाग निकलने की उनकी सनसनी फैला देने वाली कोशिश और जहाज के झरोखे से उनका फ्रांसीसी समुद्र में कूद पड़ना भी हुआ. नासिक के कलेक्टर श्री ए. एम. टी. जैक्सन की हत्या के सिलसिले में उन पर यह आरोप लगाया गया था कि जिस पिस्तौल से जैक्सन की हत्या की गई, वह सावरकर द्वारा लन्दन से भेजी गई पिस्तौलों में से एक थी. …सन् 1857 के सिपाही विद्रोह पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी, जो जब्त कर ली गई है. सन् 1910 में उन पर मुकदमा चलाया गया और 24 सितम्बर, 1910 को उन्हें वही सजा दी गई, जो उनके भाई को दी गई थी. सन् 1911 में उन पर लोगों को हत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया लेकिन इनके विरुद्ध भी किसी प्रकार की हिंसा का आरोप सिद्ध नहीं हो पाया.

यह अलग बात है कि इसके बाद सावरकर ने लगातार ताबड़तोड़ माफीनामे लिखकर अंगरेज सल्तनत से अपनी रिहाई मांगी. उन्हें अंततः अन्दमान की कठिन जेल सजा से 1921 और 1924 में निजात भी मिली. राजनीतिक घटनाएं जनयुद्ध के योद्धा गांधी की माइक्रोस्कोपिक और टेलेस्कोपिक नज़रों से ओझल नहीं होती थी. दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी 1920 में तिलक के निधन के बाद कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हो गए. कभी कभार पार्टी की सदस्यता और पद पर नहीं रहकर भी कांग्रेस के सलाहकार की भूमिका में सक्रिय रहते गांधी का फैसला संगठन को अमूमन कुबूल होता था.

केन्द्रीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की उपस्थिति में हिन्दुत्व के जमावड़े की रक्षा करते दरअसल उन पर ही सर्जिकल स्ट्राइक कर ली है. यह कह दिया कि महात्मा गांधी के कहने से सावरकर ने (सावरकर बंधु भी कहा जा सकता है) माफीनामा लिखा था. संघ परिवार और भाजपा झूठ बोलने के सिद्धहस्त महारथी हैं. बेचारा झूठ खुद उनसे पनाह मांगता रहता है.

टेलीविजन के चैनल ‘आज तक’ पर बापू के प्रपौत्र और मेरे मित्र तुषार गांधी और सावरकर के पौत्र रंजीत सावरकर की बहस सु्रप्रसिद्ध एंकरानी अंजना ओमकश्यप संचालित कर रही थी. दोनों वंशज अपने अपने पूर्वजों की ही शैली में कहते प्रतीत हो रहे थे. पक्षपाती एंकर को जोश नहीं आया क्योंकि तुषार गांधी ने लगातार अपने कथनों और अपनी पुस्तकों में गांधी को जीवित रखा है, साथ ही गांधी का प्रपौत्र होते सावरकर की चरित्र हत्या भी नहीं की.

दरअसल दिसंबर 1919 में अंगरेजी शाही आदेश लन्दन से निकला था. अंगरेज ने अपनी चतुर और कुटिल रणनीति के चलते सभी तरह के बंदियों को रिहा करने के अपने इरादे का ऐलान किया था, उसके कई कारण रहे होंगे – 1. जेलों का खर्च बढ़ रहा था. 2. कई अपराधियों की तो सजा खत्म हो चली थी. 3. कई अपराधियों को स्वामिभक्त बनाने का भी चस्का रहा होगा. 4. यह भी जांचना चाहते रहे होंगे कि जेल यातना के कारण कितने वतनपरस्त आगे वतनपरस्ती में टिक पाएंगे, या सियासत और आजादी की लड़ाई से बेरुख होकर गुलाम रियाया में तब्दील हो जाएंगे.

अंगरेजी में जारी यह राजाज्ञा सरकारी हिन्दी अनुवाद में अंगरेज की बदनीयती को साथ ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाती. अंगरेजी भाषा में हिन्दी व्याकरण के श्लेष, यमक, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, ब्याजनिन्दा, ब्याजस्तुति अलंकारों वगैरह का इतना चुस्त, कुटिल और फसीह भी प्रयोग होता है कि माना जाता है ये सब अलंकार उनकी ही कोख के हैं. उस राजाज्ञा का सही हिन्दी में अनुवाद करने में कठिनाई है. कई लोग मतिभ्रम में पड़ सकते हैं. उसे जस का तस पढ़ना मुुनासिब होगा.

आपकी सुविधा के लिए वह राॅयल प्रोक्लेमेशन इस तरह है :

It is my earnest desire at this time that so far as possible any trace of bitterness between people and those who are responsible for My Government should be obliterated. Let those who in their eagerness for political progress had broken the law in the past respect it in the future. Let it become possible for those who are charged with the maintenance of peaceful and orderly Government to forget the extravagances which they have had to curb. A new era is opening. Let it begin with a common determination among My people and officers to work together for a common purpose. I therefore direct My Viceroy to exercise in My name and on My behalf My Royal clemency to political offenders in the fullest measure which in his judgement is compatible with the public safety. I desire him to extend it on this condition to persons who for offences against the State or under any special or emergency legislation, are suffering imprisonement or restriction upon their liberty. I trust that this leniency will be justified by the future conduct of those whom it benefits and that all My subjects will so demean themselves as to render it unnecessary to force the laws for such offences hereinafter.- The Royal Proclamation.

गांधी ने ‘यंग इंडिया’ 26 मई 1920 में लिखा –

मैं भारत सरकार और प्रदेश सरकारों का भी शुक्रिया अदा करता हूं जिनके कारण कई लोगों को इस सार्वजनिक क्षमादान का लाभ मिला है. लेकिन कई विख्यात राजनीतिक अपराधी हैं, जो अभी छूटे नहीं हैं. उनमें मैं सावरकर बंधुओं को शामिल करता हूं. ये राजनीतिक अपराधी उसी तरह हैं जिस तरह कुछ लोग पंजाब में छोड़ दिए गए हैं. इसके बावजूद दोनों भाइयों को आज़ादी नहीं मिली है. हालांकि राजाज्ञा हुए पांच महीने का वक्त बीत गया है. सावरकर को 24 दिसंबर 1910 में उसी तरह सजा मिली जिस तरह उनके भाई को 9 जून 1909 को मिली थी. सावरकर के आरोप पत्र में हत्या के लिए उकसाए जाने का अपराध भी शामिल किया गया. हालांकि उनके खिलाफ यह अपराध सिद्ध नहीं हुआ.

गांधी ने आगे लिखा –

दोनों भाइयों ने अपने राजनीतिक विचारों का खुलासा कर दिया है. दोनों ने कहा है उनके मन में किसी प्रकार के क्रान्तिकारी मन्सूबे नहीं हैं. अगर उन्हें छोड़ दिया गया तो वे 1919 के रिफाॅर्म्स आदेशों के तहत काम करना पसन्द करेंगे. उनका खयाल है इस रिफाॅर्म (गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट 1919) के तहत लोगों को भारत के लिए राजनीतिक जिम्मेदारियां मिल जाती हैं. दोनों ने बिना शर्त कह दिया है कि वे ब्रिटेन से आजा़दी नहीं चाहते. इसके बरक्स उन्हें लगता है कि भारत की तकदीर ब्रिटेन के साथ रहकर ही बेहतर गढ़ी जा सकती है. किसी ने भी उनके बयानों या ईमानदारी पर शक नहीं किया है. मेरा ख्याल है कि उन्होंने जो इरादे सार्वजनिक किए हैं, उन पर ज्यों का त्यों भरोसा कर लेना चाहिए. मेरे ख्याल से जो बात इससे भी बड़ी है. वह यह है कि आज बेखटके कहा जा सकता है कि इस समय भारत में हिंसावादी विचारधारा के मानने वालों की संख्या बहुत कम है.

इसकी सूक्ष्म उपपत्ति राजनाथ सिंह और रंजीत सावरकर ने सिर के ऊपर से इसलिए गुजार दी क्योंकि जानबूझकर हंगामा ही खड़ा करना उनका मकसद रहा है. कुछ चुनाव होने वाले हैं, वहां वे हर घटना से अपने वोट बैंक के लिए फायदा ज़रूर उठाना चाहेंगे.

सत्य के आधुनिक मसीहा गांधी पर झूठ का लबादा ओढ़ाने की अजीब घिनौनी कोशिश है ! जिस गांधी ने अपने अवमानना का मुकदमा चलने पर अंगरेज जज से माफी नहीं मांगी, जबकि वह उनको छोड़ना चाहता था. गांधी ने यही कहा ‘मैं सत्य का उपासक हूं. मैं सच कह रहा हूं. मेरे मन में आपके लिए कोई अवमानना नहीं है.’ बेचारे जज ने उन्हें छोड़ तो दिया लेकिन अपनी नौकरी बचाने के नाम पर चेतावनी भर दे दी. मरणासन्न कस्तूरबा तक को अपने सिद्धांतों और कार्यक्रम को चलाते रहने के इरादे से गांधी ने माफी नहीं मांगने का अपना दु:ख भी व्यक्त किया. लेकिन यही कहा कि मुझे डटे रहना चाहिए का समर्थन तुम भी करोगी.

1931 में भगतसिंह के लिए भी माफी देने को गांधी ने अंगरेज को तो नहीं लिखा क्योंकि गांधी और भगतसिंह दोनों जानते थे कि हत्या के आरोपी को माफ करने का कोई अंगरेज विधान नहीं है. इसके अलावा किसी भी कीमत पर भगतसिंह ने मौत को गले लगाना तय कर रखा था. उन्हें छुड़ाने की को​शिश को सुनकर अपने पिता और परिवार को भी झिड़की दी थी. सावरकर को तो मर जाने का कोई खतरा नहीं था, तब भी माफी मांग ली ? राजनाथ सिंह ने संघ परिवार के प्रवक्ता बनते तोहमत गांधी पर मढ़ दी.

गांधी ने 26 मई 1920 को ‘यंग इंडिया’ में आगे लिखा कि दोनों भाइयों को जेल में नजरबंद रखने का यही एक प्रतिबंध हो सकता है कि वे लोकसुरक्षा के लिए खतरा हैं. अंगरेज सम्राट ने भारत के वाइसराॅय को राजनीतिक कैदियों के मामले में सार्वजनिक क्षमादान का अधिकार दे दिया है कि वे उसे इस तरह इस्तेमाल करें जो लोकसुरक्षा के अनुकूल हो. गांधी ने कहा कि जब इस बात का मुकम्मिल सबूत नहीं मिले कि दोनों भाई राज्य के लिए खतरा होंगे, तब उन्हें बंद रखना ठीक नहीं है. वे काफी दिन जेल में काट चुके. उनका वजन भी कम हो गया है और उन्होंने अपने इरादे सार्वजनिक कर दिए हैं. उन्हें वाइसराॅय द्वारा जेल से छोड़ने का हुक्म देना उसी तरह है जिस तरह किसी जज को अख्तियार होता है कि वह अपराधी को कानून में प्रावधानित चाहे तो कम से कम सजा दे. यदि उन्हें इसके बावजूद निरोध में रखा जाता है तो कारण बताते जनता के लिए सरकार की ओर से पूरा ब्यौरा प्रकाशित होना चाहिए.

गांधी के इस लेख को डूबते सावरकर का तिनका बनाया जा रहा है. कोई भी समझ सकता है कि जब कोई व्यक्ति 1. अपनी क्रांतिकारिता को ही जमींदोज कर रहा है. 2. छूट जाने पर वह गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट, 1919 के तहत आचरण करने की प्रतिबद्धता का बयान कर रहा है. 3. ऐलानिया कह रहा है कि अंगरेजी अधिनियम के तहत उसे देश के लिए कुछ करने की राजनीतिक जिम्मेदारी मिल जाएगी. 4. वे ब्रिटेन से भारत की आजादी भी नहीं चाहते. 5. उनका यह भी कहना है कि ब्रिटेन की संगति में रहकर ही भारत की तकदीर गढ़ी जा सकती है.

अंगरेज की कुटिलता यह थी कि वह उन्हें ही माफी देता 1. जिनके मन में अंगरेजी हुकूमत से पारस्परिक कड़वापन ही खत्म हो जाए. 2. जिन्होंने अपनी राजनीतिक बढोतरी के जोश में कानून तोड़ा लेकिन भविष्य में उसका पालन करने वचनबद्ध होंगे. 3. सरकार को भरोसा है कि उसकी यह उदारता ऐसे लोगों के लिए न्यायोचित होगी जो उसके खिलाफ अपराधों के उनके द्वारा घटित होने की संभावना को ही निर्मूल कर देंगे. 4. ऐसी रिहाई सशर्त ही होनी थी, बिना ऊपर की शर्तों के कारण ही. 5. अंगरेज शायद रिहाई प्राप्त कैदियों से ही मुखबिर बनाना चाहते थे. बाद में हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों ने यही तो किया.

अब इसके बाद क्या बचा ? ऐसी राजाज्ञा को सिर पर लादकर, जेल से मुक्ति पाकर, क्रांतिधर्मिता को रफादफा कर गांधी का कंधा पकड़ने की जरूरत कहां बची ? गांधी ने तो 1919 की राजाज्ञा के पांच महीने बाद ‘यंग इंडिया’ में लेख उन सभी राजनैतिक कैदियों के वास्ते लिखा था जो इंकलाब और आजादी से बचकर गुमनामी और गुलामी का जीवन जीने का कायर ऐलान कर रहे थे. यह तो दो ऐलानों का मिलन हुआ. शाही ऐलान और गुलामी के ऐलान का.

गांधी यहां साफ कर देते हैं कि आजादी की लड़ाई और क्रांतिकारिता से कन्नी काट ही ली गई है तो ऐसे सभी व्यक्तियों को जिनमें सावरकर बंधु भी शामिल हैं, शाही ऐलान के तहत छोड़ दिया जाना चाहिए. उन्हें छोड़ने की गांधी ने अपनी कोई स्वैच्छिक तजबीज नहीं की. गांधी बैरिस्टर थे. उनका कहना था जब बाकी राजनीतिक कैदी पंजाब में छोड़ दिए गए, तो सावरकर बंधुओं को तो छोड़ा ही जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने भी जंगे आजादी का अपना लबादा तो उतार दिया है.

गांधी ने साफ किया कि शाही फरमान संदेहजनक प्रकरणों में ही नहीं, सभी प्रकरणों के लिए लागू था. वाइसराॅय को इतना ही कहना है कि ऐसों के छोड़ दिए जाने से लोकसुरक्षा को खतरा नहीं होगा. साफ है केवल उन्हें छोड़ा जाए जिनके वजूद में क्रांति और अंगरेजों से लड़ने की ताब खुदकुशी कर चुकी हो, वही तो सावरकर ने किया. ऐसे पराजित व्यक्ति से लोकसुरक्षा को क्या खतरा हो सकता था ?

हालांकि यह भी सही है कि वाइसराॅय मांटेग्यू ने तब तक सावरकर बंधुओं से मिले माफीनामे पर विचार करने से इंकार कर दिया था इसलिए गांधी जी ने जोर देकर कहा कि उनके प्रकरण आलमारियों में बंद नहीं रखे जा सकते. यह देश को जानने का हक है कि इस ऐलान के बावजूद ऐसा क्या है जिसकी वजह से उनको नहीं छोड़ा जा रहा है. अंगरेजों की नीयत, कानूनों की मंशा और भारतीय संघर्षकथा में सावरकर की भूमिका तथा सजा को लेकर इतिहास की नजर से गांधी हर मकड़जाल निकाल देते हैं. सरल हृदय के लेकिन कम्प्यूटरनुमा दिमाग के गांधी दो टूक कहते हैं. गांधी मनुष्य की स्वायत्तता और उसकी आज़ादी पर किसी भी तरह की गैरकानूनी सरकारी बंदिश लगाए जाने की गुलाम भारत में भी संवैधानिक भाषा में मुखालफत करते हैं.

यह गौरतलब है सावरकर बंधुओं की कथित हिंसात्मक गतिविधियों को लेकर ही गांधी ने उन्हें कभी नहीं बख्शा. गांधी के वक्तव्य में द्वैध और श्लेष की कूटनीतिक राॅकेटनुमा प्रहारशक्ति दोनों पढ़ी जा सकती है. गांधी के मुताबिक जनता को भी सावरकर भाइयों पर आरोपित हिंसात्मक या अन्य कानूनतोड़क कार्यवाहियों की पूरी जानकारी होने का जनतांत्रिक अधिकार है. गांधी की समझ में इसके बावजूद सावरकर बंधुओं और जनता दोनों के नैसर्गिक अधिकारों को रहस्यमयता का कानूनी लबादा ओढ़कर अंगरेज कुचल रहे थे.

ताजा इतिहास को यह भी मालूम होना चाहिए. सावरकर की रिहाई के लिए दिए जाने वाले माफीनामे के समर्थन में अनुरोध पत्र पर गांधी के दस्तखत की उम्मीद महसूस की गई थी. गांधी ने दस्तखत करने से इंकार किया लेकिन सयानेपन तथा मानवीय उदारता के चलते मनुष्यता के लिए अपनी भूमिका का सचनामा गांधी ने 27 जुलाई 1937 के बाॅम्बे क्राॅनिकल के अपने पत्र में लिखा ‘सावरकर मानते होंगे कि मैंने उनकी रिहाई के लिए भरसक कोशिश तो की थी. वे यह भी मानेंगे कि मेरे और उनके बीच लंदन में हुई पहली मुलाकात के वक्त आत्मीय रिश्ते थे.’ शेगांव से 12 अक्टूबर 1939 को लिखे पत्र में गांधी ने फिर खुलासा किया वे अपनी बात समझाने के लिए सावरकर के घर भी गए थे, भले ही उसे ठीक नहीं समझा गया हो.

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ROHIT SHARMA

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